श्रीदेवी बोली- हे भूमिपाल ! हे महाबाहो ! हे मनुजाधिप। यह सब पूर्ण होगा। तुमने जो-जो माँगा है, वह मैं तुम्हें दे रही हूँ ॥ 1 ॥ बड़े-बड़े दैत्योंका संहार करनेवाली तथा अमोष पराक्रमवाली मैं तुम्हारे द्वारा किये गये वाग्भव-मन्त्रके जप तथा तपसे निश्चितरूपसे प्रसन्न हूँ। हे वत्स ! तुम्हारा राज्य निष्कण्टक होगा और तुम्हारे पुत्र वंशकी वृद्धि करनेवाले होंगे; तुम मेरे प्रति दृढ़ भक्तिवाले
रहोगे और अन्तमें परमपद प्राप्त करोगे ॥ 2-3 ॥ इस प्रकार उन महात्मा मनुको वर देकर महादेवी जगदम्बा उनके देखते-देखते विन्ध्यपर्वतपुर चली गयीं ॥ 4 ॥
यह वही विन्ध्याचल है, जो सूर्यके मार्गका अवरोध करनेके लिये आकाशको छूता हुआ ऊपरकी ओर बढ़नेके लिये प्रवृत्त था और महर्षि अगस्त्यने उसे रोक दिया था ॥ 5 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! वरदायिनी तथा परमेश्वरी वे विष्णुभगिनी विन्ध्यवासिनी सभी लोगोंके लिये पूज्य हो गयीं ॥ 6 ॥
ऋषि बोले- हे सूतजी वह विन्ध्याचल कौन है, आकाशको छूता हुआ वह क्यों बढ़ा, उसने सूर्यके मार्गका अवरोध क्यों किया और मैत्रावरुणि अगस्त्यजीनेउस महान् ऊँचे पर्वतको बढ़नेसे क्यों रोक दिया? यह सब आप विस्तारसे मुझे बताइये ॥ 7-8 ॥ हे साथी! आपके मुखसे निःसृत देवीचरित्ररूपी | अमृतका पान करते हुए हम सब तृप्त नहीं हो रहे हैं, अपितु तृष्णा बढ़ती ही जा रही है ॥ 9 ॥ सूतजी बोले- सम्पूर्ण पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल नामक एक पर्वत था। वह बड़े-बड़े वनोंसे सम्पन्न तथा अति विशाल वृक्षोंसे घिरा था वह अनेक प्रकारके पुष्पोंसे लदी हुई लताओं तथा वल्लरियोंसे आच्छादित था। मृग, वराह, महिष, बाघ, सिंह, वानर, खरगोश, भालू, सियार आदि हृष्ट-पुष्ट तथा अति शक्ति-शाली वन्य जन्तु उसमें चारों ओर सदा | विचरण करते रहते थे। वह नदियों तथा नदोंके जलसे व्याप्त था एवं देवताओं, गन्धव, किन्नरों, अप्सराओं, किम्पुरुयों तथा सभी प्रकारके मनोवांछित फल देनेवाले वृक्षोंसे शोभायमान था ॥ 10- 13 ॥
किसी समय देवर्षि नारद परम प्रसन्न होकर इच्छापूर्वक पृथ्वीलोक में विचरण करते हुए इस प्रकारके विन्ध्यपर्वतपर पहुँच गये ll 14 ॥
उन्हें देखकर विन्ध्याचलने शीघ्र ही वेगपूर्वक उठ करके आदरपूर्वक उन्हें पाद्य-अर्घ्य प्रदानकर उत्तम आसन अर्पित किया। तदनन्तर सुखपूर्वक आसनपर विराजमान उन प्रसन्न देवर्षि से विन्ध्यपर्वत कहने लगा ॥ 153 ॥
विन्ध्य बोला- हे देवर्षे कहिये, आपका यह शुभागमन कहाँसे हुआ है ? ॥ 16 ॥
आपके आगमनसे मेरा घर परम पावन हो गया। जैसे सूर्य संसारके कल्याणार्थ भ्रमण करते हैं, उसी प्रकार आप भी देवताओंको अभय प्रदान करने हेतु भ्रमण करते रहते हैं। हे नारदजी! आपके मनमें जो भी विशेष बात हो, उसे मुझे बताइये ॥ 173॥
नारदजी बोले - हे इन्द्रशत्रु! मेरा आगमन | सुमेरुगिरिसे हुआ है। वहाँ मैंने इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुणके लोकोंको देखा है। हे विन्ध्यपर्वत वहाँपर मुझे समस्त लोकपालोंके नानाविध भोग प्रदान करनेवाले भवन चारों ओर दिखायी पड़े । 18-193 ॥ऐसा कहकर ब्रह्माजीके पुत्र नारदने दीर्घ श्वास ली। नारदमुनिको इस प्रकार श्वास लेते हुए देखकर पर्वतराज विन्ध्यने उनसे पुन: पूछा- हे देवर्षे ! इस उच्छ्वासका क्या कारण है, उसे मुझे बताइये ॥ 20-21 ॥
विन्ध्यपर्वतका यह कथन सुनकर अपरिमित तेजवाले देवर्षि नारद बोले- हे वत्स! मेरे उच्छ्वासका | कारण सुनो ॥ 22 ॥ पार्वतीके पिता हिमालय शिवजीके श्वसुर हैं।
इस प्रकार शंकरजीसे सम्बन्ध होनेके कारण वे सभी
पर्वतोंके पूज्य हो गये ॥ 23 ॥ इसी प्रकार शिवजीका निवास-स्थल कैलास भी सभी पर्वतोंका पूज्य स्वामी बन गया और लोकमें पापसमूहका विनाशक हो गया ॥ 24 ॥
इसी तरह निषध, नील तथा गन्धमादन आदि सभी पर्वत भी अपने-अपने स्थानपर स्थित होकर पूज्य पर्वतके रूपमें प्रतिष्ठित हैं ॥ 25 ॥
यह वही सुमेरुगिरि है, जिसकी परिक्रमा समस्त विश्वकी आत्मा, स्वर्गके राजा तथा हजारों किरणें धारण करनेवाले सूर्य समस्त ग्रह-नक्षत्रोंके समूहसहित करते हैं ॥ 26 ॥
वह अपनेको पर्वतोंमें श्रेष्ठ तथा महान् मानता है। वह समझता है कि मैं ही सभी पर्वतोंमें अग्रणी हूँ तथा मेरे समान लोकोंमें कोई नहीं है ॥ 27 ॥
इस प्रकारके मान-अभिमानवाले उस पर्वतका स्मरण करके मैंने यह उच्छ्वास लिया है। हे पर्वत ! जो भी हो, तपरूपी बलवाले हम सबको इससे कोई प्रयोजन नहीं है। मैंने तो प्रसंगवश आपसे ऐसा कह दिया; अब मैं अपने घरके लिये प्रस्थान कर रहा हूँ ॥ 28 ॥