सावित्री बोली- हे वेद-वेदांगमें पारंगत महाभाग धर्मराज! नानाविध पुराणों तथा इतिहासों में जो सारस्वरूप है, उसे प्रदर्शित कीजिये अब आपमुझसे उस कर्मका वर्णन कीजिये जो सबका सारभूत, सबका अभीष्ट, सर्वसम्मत, कर्मोंका उच्छेद करनेके लिये बीजरूप, परम श्रेष्ठ, मनुष्योंको सुख देनेवाला, सब कुछ प्रदान करनेवाला तथा सभीका सब प्रकारका कल्याण करनेवाला है और जिसके प्रभावसे सभी मनुष्य भय तथा दुःखका अनुभव नहीं करते, नरककुण्डोंको उन्हें देखना नहीं पड़ता, वे उनमें नहीं गिरते तथा जिससे उनका जन्म आदि नहीं होता है ॥ 1-4 ॥
उन नरककुण्डोंके आकार कैसे हैं और वे किस प्रकार बने हैं? कौन-कौन पापी किस रूपसे वहाँ निवास करते हैं? अपने देहके भस्मसात् हो जानेपर मनुष्य किस देहसे परलोकमें जाता है और अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मोंके फल भोगता है? दीर्घकालतक महान् क्लेशका भोग करनेपर भी उस देहका नाश क्यों नहीं होता और वह देह किस प्रकारका होता है? हे ब्रह्मन् ! यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ll 5-7 ॥
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] सावित्रीकी बात सुनकर धर्मराजने भगवान् श्रीहरिका स्मरण करते हुए कर्मबन्धनको काटनेवाली कथा कहनी आरम्भ की ॥ 8 ॥
धर्मराज बोले- हे वत्से! हे सुव्रते ! चारों वेदों, धर्मशास्त्रों, संहिताओं, पुराणों, इतिहासों, पांचरात्र आदि धर्मग्रन्थों तथा अन्य धर्मशास्त्रों और वेदांगोंमें पाँच देवताओंकी उपासनाको सर्वेष्ट तथा सारभूत बताया गया है ।। 9-10 ॥
यह देवोपासना जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा संतापका नाश करनेवाली; सर्वमंगलरूप; परम आनन्दका कारण; सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्रदान करनेवाली; नरकरूपी समुद्रसे उद्धार करनेवाली; भक्तिरूपी वृक्षको अंकुरित करनेवाली; कर्मबन्धनरूपी वृक्षको काटनेवाली; मोक्षके लिये सोपानस्वरूप; शाश्वतपदस्वरूप; सालोक्य, साष्टि, सारूप्य तथा सामीप्य आदि मुक्तियोंको प्रदान करनेवाली तथा मंगलकारी बतायी गयी है ॥ 11-13 ॥हे शुभे । यमदूत इन नरककुण्डोंकी सदा रखवाली किया करते हैं। पंचदेवोंकी आराधना करनेवाले मनुष्योंको स्वप्नमें भी इन कुण्डोंका दर्शन नहीं होता। जो भगवतीकी भक्तिसे रहित हैं, वे ही मेरी पुरीको देखते हैं ।। 141/2 ।।
जो भगवानके तीर्थोंमें जाते हैं, एकादशीका व्रत करते हैं, भगवान् श्रीहरिको नित्य प्रणाम करते हैं और उनकी प्रतिमाकी पूजा करते हैं, उन्हें भी मेरी भयंकर संयमिनी पुरीमें नहीं जाना पड़ता ।। 15-16 ॥
त्रिकाल सन्ध्यासे पवित्र तथा विशुद्ध सदाचारसे गुरु ब्राह्मण भी बिना भगवतीकी उपासनाके मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते ॥ 17 ॥
अपने धार्मिक आचार-विचारसे सम्पन्न तथा अपने धर्ममें संलग्न रहनेवालोंको मृत्युलोक गये हुए मेरे दूत दिखायी नहीं पड़ते। मेरे दूत शिवके उपासकोंसे उसी तरह भयभीत होते हैं, जैसे गरुड़से सर्प हाथमें पाश लिये हुए अपने दूतको शिवोपासककी ओर जाते देखकर मैं उसे रोक देता हूँ। ll 18-19 ।।
मेरे दूत भगवान् श्रीहरिके भक्तोंके आश्रमको छोड़कर सभी जगह जा सकते हैं। श्रीकृष्णके मन्त्रोंकी उपासना करनेवालोंसे मेरे दूत गरुड़से सर्पकी भाँति डरते हैं ॥ 20 ॥
[पाप करनेवालोंकी सूचीसे] देवीके मन्त्रोपासकोंके लिखे नामोंको चित्रगुप्त भयभीत होकर अपनी नखरूपी लेखनीसे काट देते हैं; साथ ही मधुपर्क आदिसे बार बार उनका सत्कार करते हैं। हे सति। वे भक्त ब्रह्मलोक पार करके भगवतीके लोक (मणिद्वीप) - को चले जाते हैं । ll 21-22 ॥
जिनके स्पर्शमात्र से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं, वे [भक्त] महान् सौभाग्यशाली हैं। वे हजारों कुलोंको पवित्र कर देते हैं। जलती हुई अग्निमें पड़े सूखे पत्तोंकी भाँति उनके पाप जल जाते हैं। उन भक्तोंको देखकर मोह भी भयभीत होकर मोहित हो जाता है, हे साध्वि! काम निर्मूल हो जाता है, लोभ तथा क्रोध नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु विलीन हो जाती है; इसी प्रकार रोग, जैरा, शोक, भय, काल शुभाशुभ कर्म, हर्ष तथा भोग-ये सब प्रभावहीन हो जाते हैं॥ 23-25 llहे साध्वि ! जो-जो लोग उस नारकीय पीड़ाको प्राप्त नहीं करते, उनके विषयमें मैंने बता दिया। अब आगम-शास्त्र के अनुसार देहका विवरण बताता हूँ, उसे सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच तत्त्व स्पष्ट ही हैं । स्रष्टाके सृष्टिविधानमें प्राणियोंके लिये एक देहबीज निर्मित होता है। पृथ्वी आदि पाँच भूतोंसे जो देह निर्मित होता है, वह कृत्रिम तथा नश्वर है और इस लोकमें ही वह भस्मसात् हो जाता है ॥ 26–283 ॥
उस शरीरमें जो जीव आबद्ध रहता है, वह उस समय अँगूठेके आकारवाले पुरुषके रूपमें हो जाता है। अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये वह जीव सूक्ष्मरूपसे उस देहको धारण करता है। मेरी पुरीमें प्रज्वलित अग्निमें डाले जानेपर भी वह देह भस्म नहीं होता ॥ 29-30 ॥
वह सूक्ष्म यातनाशरीर न तो जलमें नष्ट होता है और न दीर्घकालतक प्रहार करनेपर ही नष्ट होता है। उस शरीरको अस्त्र अथवा शस्त्रसे नष्ट नहीं किया जा सकता । अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाले काँटे, तपते हुए तेल, तप्त लोहे और तप्त पाषाणपर पड़नेपर तथा अत्यन्त तप्त प्रतिमासे सटानेपर और पूर्वकथित नरककुण्डोंमें गिरानेपर भी वह यातनाशरीर न तो दग्ध होता है और न भग्न ही होता है; अपितु कष्ट ही भोगता रहता है। [हे साध्वि !] आगमशास्त्रके अनुसार देहवृत्तान्त तथा कारण आदि मैंने बता दिये, अब तुम्हारी जानकारीके लिये नरककुण्डोंका लक्षण बताता हूँ ॥ 31-33 ॥