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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 36 - Skand 9, Adhyay 36

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धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना

सावित्री बोली- हे वेद-वेदांगमें पारंगत महाभाग धर्मराज! नानाविध पुराणों तथा इतिहासों में जो सारस्वरूप है, उसे प्रदर्शित कीजिये अब आपमुझसे उस कर्मका वर्णन कीजिये जो सबका सारभूत, सबका अभीष्ट, सर्वसम्मत, कर्मोंका उच्छेद करनेके लिये बीजरूप, परम श्रेष्ठ, मनुष्योंको सुख देनेवाला, सब कुछ प्रदान करनेवाला तथा सभीका सब प्रकारका कल्याण करनेवाला है और जिसके प्रभावसे सभी मनुष्य भय तथा दुःखका अनुभव नहीं करते, नरककुण्डोंको उन्हें देखना नहीं पड़ता, वे उनमें नहीं गिरते तथा जिससे उनका जन्म आदि नहीं होता है ॥ 1-4 ॥

उन नरककुण्डोंके आकार कैसे हैं और वे किस प्रकार बने हैं? कौन-कौन पापी किस रूपसे वहाँ निवास करते हैं? अपने देहके भस्मसात् हो जानेपर मनुष्य किस देहसे परलोकमें जाता है और अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मोंके फल भोगता है? दीर्घकालतक महान् क्लेशका भोग करनेपर भी उस देहका नाश क्यों नहीं होता और वह देह किस प्रकारका होता है? हे ब्रह्मन् ! यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ll 5-7 ॥

श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] सावित्रीकी बात सुनकर धर्मराजने भगवान् श्रीहरिका स्मरण करते हुए कर्मबन्धनको काटनेवाली कथा कहनी आरम्भ की ॥ 8 ॥

धर्मराज बोले- हे वत्से! हे सुव्रते ! चारों वेदों, धर्मशास्त्रों, संहिताओं, पुराणों, इतिहासों, पांचरात्र आदि धर्मग्रन्थों तथा अन्य धर्मशास्त्रों और वेदांगोंमें पाँच देवताओंकी उपासनाको सर्वेष्ट तथा सारभूत बताया गया है ।। 9-10 ॥

यह देवोपासना जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा संतापका नाश करनेवाली; सर्वमंगलरूप; परम आनन्दका कारण; सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्रदान करनेवाली; नरकरूपी समुद्रसे उद्धार करनेवाली; भक्तिरूपी वृक्षको अंकुरित करनेवाली; कर्मबन्धनरूपी वृक्षको काटनेवाली; मोक्षके लिये सोपानस्वरूप; शाश्वतपदस्वरूप; सालोक्य, साष्टि, सारूप्य तथा सामीप्य आदि मुक्तियोंको प्रदान करनेवाली तथा मंगलकारी बतायी गयी है ॥ 11-13 ॥हे शुभे । यमदूत इन नरककुण्डोंकी सदा रखवाली किया करते हैं। पंचदेवोंकी आराधना करनेवाले मनुष्योंको स्वप्नमें भी इन कुण्डोंका दर्शन नहीं होता। जो भगवतीकी भक्तिसे रहित हैं, वे ही मेरी पुरीको देखते हैं ।। 141/2 ।।

जो भगवानके तीर्थोंमें जाते हैं, एकादशीका व्रत करते हैं, भगवान् श्रीहरिको नित्य प्रणाम करते हैं और उनकी प्रतिमाकी पूजा करते हैं, उन्हें भी मेरी भयंकर संयमिनी पुरीमें नहीं जाना पड़ता ।। 15-16 ॥

त्रिकाल सन्ध्यासे पवित्र तथा विशुद्ध सदाचारसे गुरु ब्राह्मण भी बिना भगवतीकी उपासनाके मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते ॥ 17 ॥

अपने धार्मिक आचार-विचारसे सम्पन्न तथा अपने धर्ममें संलग्न रहनेवालोंको मृत्युलोक गये हुए मेरे दूत दिखायी नहीं पड़ते। मेरे दूत शिवके उपासकोंसे उसी तरह भयभीत होते हैं, जैसे गरुड़से सर्प हाथमें पाश लिये हुए अपने दूतको शिवोपासककी ओर जाते देखकर मैं उसे रोक देता हूँ। ll 18-19 ।।

मेरे दूत भगवान् श्रीहरिके भक्तोंके आश्रमको छोड़कर सभी जगह जा सकते हैं। श्रीकृष्णके मन्त्रोंकी उपासना करनेवालोंसे मेरे दूत गरुड़से सर्पकी भाँति डरते हैं ॥ 20 ॥

[पाप करनेवालोंकी सूचीसे] देवीके मन्त्रोपासकोंके लिखे नामोंको चित्रगुप्त भयभीत होकर अपनी नखरूपी लेखनीसे काट देते हैं; साथ ही मधुपर्क आदिसे बार बार उनका सत्कार करते हैं। हे सति। वे भक्त ब्रह्मलोक पार करके भगवतीके लोक (मणिद्वीप) - को चले जाते हैं । ll 21-22 ॥

जिनके स्पर्शमात्र से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं, वे [भक्त] महान् सौभाग्यशाली हैं। वे हजारों कुलोंको पवित्र कर देते हैं। जलती हुई अग्निमें पड़े सूखे पत्तोंकी भाँति उनके पाप जल जाते हैं। उन भक्तोंको देखकर मोह भी भयभीत होकर मोहित हो जाता है, हे साध्वि! काम निर्मूल हो जाता है, लोभ तथा क्रोध नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु विलीन हो जाती है; इसी प्रकार रोग, जैरा, शोक, भय, काल शुभाशुभ कर्म, हर्ष तथा भोग-ये सब प्रभावहीन हो जाते हैं॥ 23-25 llहे साध्वि ! जो-जो लोग उस नारकीय पीड़ाको प्राप्त नहीं करते, उनके विषयमें मैंने बता दिया। अब आगम-शास्त्र के अनुसार देहका विवरण बताता हूँ, उसे सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच तत्त्व स्पष्ट ही हैं । स्रष्टाके सृष्टिविधानमें प्राणियोंके लिये एक देहबीज निर्मित होता है। पृथ्वी आदि पाँच भूतोंसे जो देह निर्मित होता है, वह कृत्रिम तथा नश्वर है और इस लोकमें ही वह भस्मसात् हो जाता है ॥ 26–283 ॥

उस शरीरमें जो जीव आबद्ध रहता है, वह उस समय अँगूठेके आकारवाले पुरुषके रूपमें हो जाता है। अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये वह जीव सूक्ष्मरूपसे उस देहको धारण करता है। मेरी पुरीमें प्रज्वलित अग्निमें डाले जानेपर भी वह देह भस्म नहीं होता ॥ 29-30 ॥

वह सूक्ष्म यातनाशरीर न तो जलमें नष्ट होता है और न दीर्घकालतक प्रहार करनेपर ही नष्ट होता है। उस शरीरको अस्त्र अथवा शस्त्रसे नष्ट नहीं किया जा सकता । अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाले काँटे, तपते हुए तेल, तप्त लोहे और तप्त पाषाणपर पड़नेपर तथा अत्यन्त तप्त प्रतिमासे सटानेपर और पूर्वकथित नरककुण्डोंमें गिरानेपर भी वह यातनाशरीर न तो दग्ध होता है और न भग्न ही होता है; अपितु कष्ट ही भोगता रहता है। [हे साध्वि !] आगमशास्त्रके अनुसार देहवृत्तान्त तथा कारण आदि मैंने बता दिये, अब तुम्हारी जानकारीके लिये नरककुण्डोंका लक्षण बताता हूँ ॥ 31-33 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन