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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 17 - Skand 3, Adhyay 17

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धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना

व्यासजी बोले [हे राजन्!] भारद्वाजमुनिका यह वचन सुनकर राजा युधाजितूने अपने प्रधान अमात्यको बुलाकर बड़ी सावधानीसे उनसे पूछा हे सुबुद्धे! आप बतायें कि अब मुझे क्या करना चाहिये? हे सुव्रत। क्या मधुर वचन बोलनेवाली मनोरमाको पुत्रसहित बलपूर्वक ले चलूँ? अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह तुच्छ शत्रुकी भी उपेक्षा न करे; क्योंकि वह राजयक्ष्मा रोगके समान बढ़कर मृत्युका कारण बन जाता है ॥ 13॥

यहाँ न कोई सेना है और न कोई योद्धा ही है जो मुझे रोक सके। अतः मैं अपने दौहित्रके शत्रु उस सुदर्शनको पकड़कर अभी मार डालूँगा। यदि मैं बलपूर्वक इस प्रयत्नमें सफल हो जाता हूँ तो उसकाvराज्य निष्कंटक हो जायगा। सुदर्शनके मर जानेपर निश्चय ही वह निर्भय हो जायगा ।। 4-5 ॥

प्रधान अमात्यने कहा- हे राजन् ! ऐसा दुःसाहस नहीं करना चाहिये। अभी आपने भारद्वाजमुनिका वचन सुना ही है। हे मान्य! उन्होंने [इस सम्बन्धमें ] विश्वामित्रका दृष्टान्त दिया है ॥ 6 ॥

प्राचीन समयमें गाधितनय विश्वामित्र एक समृद्धिशाली तथा प्रसिद्ध राजा थे। एक बार वे महाराज घूमते हुए महर्षि वसिष्ठके आश्रम में जा पहुँचे 7 ॥ प्रतापी राजाओं श्रेष्ठ वे महाराज विश्वामित्र उन्हें प्रणाम करके मुनिद्वारा प्रदत्त आसनपर बैठ गये। उसके बाद महात्मा वसिष्ठजीने उन्हें भोजनके लिये निकिया, तब वे महायशस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्र अपने सैनिकों सहित उपस्थित हो गये॥ 8-9 ॥उस समय भक्ष्य तथा भोज्य आदि जो भी आवश्यक हुआ, वह सब उनकी नन्दिनी गौने उपस्थित कर दिया। सेनासमेत राजा विश्वामित्र मनोवांछित भोजन करके इसे नन्दिनी गौका प्रभाव | समझकर वे राजा उन मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीसे नन्दिनी गौ माँगने लगे । 10-11 ॥

विश्वामित्र बोले- हे मुने! मैं आपको पर्याप्त दूध देनेवाली हजारों गौएँ दूंगा; आप मुझे यह अपनी नन्दिनी गौ दे दीजिये हे परन्तप। मैं यही प्रार्थना कर रहा हूँ ॥ 12 ॥

वसिष्ठ बोले- हे राजन् ! यह गौ होमके लिये हविष्य प्रदान करती है। अतः मैं इसे किसी प्रकार भी नहीं दे सकता आपकी हजार गौएँ आपके ही पास रहें ।। 13 ।

विश्वामित्र बोले- हे साधो मैं आपकी इच्छा अनुसार दस हजार अथवा एक लाख गौएँ दे रहा हूँ, आप नन्दिनी मुझे दे दीजिये, नहीं तो मैं इसे बलपूर्वक ग्रहण कर लूँगा 14 ॥

वसिष्ठ बोले- हे नृपते! जैसी आपकी रुचि हो, आप इसे बलपूर्वक अभी ले लीजिये, किंतु हे राजन् ! मैं तो इस नन्दिनीको स्वेच्छासे अपने आश्रमसे आपको नहीं दूँगा ॥ 15 ॥

यह सुनकर राजा विश्वामित्रने अपने महाबली अनुचरोंको आदेश दिया कि तुमलोग इस नन्दिनी गौको ले चलो। तब बलके अभिमानमें चूर उन अनुचरोंने आक्रमण करके उस धेनुको बलपूर्वक बाँधकर पकड़ लिया 163 ॥

तब आँखों में आँसू भरकर काँपती हुई उस नन्दिनीने मुनिसे कहा- हे मुने! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं? ये सब मुझे बाँधकर खींच रहे हैं॥ 101 ॥

वसिष्ठजीने उससे कहा- हे उत्तम दूध देनेवाली नन्दिनी! मैं तुम्हें त्याग नहीं रहा हूँ। ये राजा तुम्हें बलपूर्वक ले जा रहे हैं जबकि मैंने अभी इनका स्वागत किया है। हे सुभे मैं क्या करूँ? मैं अपने मनसे तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता ॥ 18-19 ॥मुनिके ऐसा कहनेपर वह धेनु क्रोधित हो गयी और कर्कश शब्दोंवाला अत्यन्त भयंकर हम्भारव करने लगी ॥ 20 ॥

उसी समय उसके शरीरसे महाभयंकर दैत्य 'ठहरो ठहरो' ऐसा कहते हुए निकल पड़े। वे शस्त्र धारण किये हुए थे और उनका शरीर कवचसे डैका हुआ था ।। 21 ।।

उन्होंने सारी सेनाका संहार कर दिया और नन्दिनीको उनसे छुड़ा लिया। तब अत्यन्त व्यथित होकर राजा विश्वामित्र अकेले ही घर लौट गये। [वे अपने मनमें सोचने लगे-] हाय! मैं कितना पापी एवं दीनात्मा हूँ क्षत्रियबलकी निन्दा करते हुए वे विश्वामित्र ब्राह्मणके बलको महान् तथा दुराराध्य समझकर तप करने लगे। महावनमें अनेक वर्षोंतक कठोर तपस्या करके विश्वामित्रने क्षात्रधर्मका त्याग करके अन्तमें ऋषित्व प्राप्त कर लिया ॥ 22-24 ॥

अतः हे राजेन्द्र ! आप भी ऐसा अद्भुत वैर न करें; क्योंकि तपस्वियोंके साथ किया जानेवाला युद्ध निश्चित ही कुलका नाश करनेवाला होता है॥ 25 ॥ अतः आप तपोनिधि मुनिवर भारद्वाजके पास अभी जाइये और उन्हें आश्वासन दीजिये। हे राजेन्द्र ! सुदर्शनको यहीं छोड़ दीजिये, जिससे वह आनन्दपूर्वक रह सके ॥ 26 ॥

हे राजन् ! यह दीन बालक आपका क्या अहित कर सकेगा? ऐसे दुर्बल एवं अनाथ बालकके प्रति आपका यह वैरभाव व्यर्थ है ॥ 27 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! सर्वत्र दया करनी चाहिये। यह संसार सदा दैवके अधीन रहता है। ईर्ष्या करनेसे क्या लाभ? जो होनी होगी, वह तो होकर ही रहेगी ॥ 28 ॥

हे राजन् । दैवयोगसे कभी वज्र तृण बन | जाता है और किसी समय तृण वज्र बन जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। दैवयोगसे ही खरगोश सिंहको और मच्छर हाथीको मार देता है। अतः हे मेधाविन्! आप दुःसाहस छोड़िये तथा मेरा हितकर वचन मानिये ।। 29-30 ॥व्यासजी बोले- [ हे जनमेजय!] मन्त्रीकी यह बात सुनकर नृपश्रेष्ठ राजा युधाजित् भारद्वाजमुनिको सिर झुकाकर प्रणाम करके अपने पुरको चले गये। तब रानी मनोरमा भी निश्चिन्त हो गयीं और उस आश्रममें रहती हुई अपने सत्यव्रती पुत्र सुदर्शनका पालन करने लगीं ॥ 31-32 ॥

अब वह सुन्दर कुमार मुनिबालकोंके साथ सर्वत्र निर्भय होकर क्रीड़ा करता हुआ दिनोंदिन बढ़ने लगा। एक दिन सुदर्शनके पास आये हुए विदल्लको किसी मुनिकुमारने 'क्लीब' इस नामसे पुकारा ।। 33-34 ॥

उसे सुनकर सुदर्शनने उसके एकाक्षर 'क्ली' शब्दको स्पष्टरूपसे धारण कर लिया और उसvअनुस्वारविहीन अक्षरका ही वह बार-बार उच्चारण करने लगा ।। 35 ।।

बालकने इस कामराज नामक बीजमन्त्रको मनसे ग्रहण कर लिया और उसे हृदयंगम करके आदरपूर्वक जपना प्रारम्भ कर दिया। हे महाराज! दैवयोगसे ही उस बालक सुदर्शनको यह कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र स्वयमेव प्राप्त हो गया ।। 36-37 ॥

उस समय केवल पाँच वर्षकी अवस्थामें ही वह ऋषि तथा छन्दसे विहीन और ध्यान तथा न्यासरहित मन्त्र प्राप्तकर मन ही मन उसे जपता हुआ खेलता तथा सोता था; उस मन्त्रको स्वयं सबका सार समझकर वह सुदर्शन उसे कभी नहीं भूलता था ।। 38-39 ।।

मुनिने ग्यारहवें वर्ष में उस राजकुमारका उपनयन संस्कार किया और उसे वेद पढ़ाया एवं सांगोपांग धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्रकी विधिवत् शिक्षा दी। उस बालकने उसी मन्त्रके प्रभावसे समस्त विद्याओंका सम्यक् अभ्यास कर लिया ।। 40-41 ।।

एक बार उसने देवीके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन भी किया। उस समय वे लाल वस्त्र धारण किये थीं, उनके विग्रहका रंग भी लाल था और उनके सभी अंगोंमें रक्तवर्णके ही आभूषण सुशोभित हो रहेथे। [इस प्रकारका दिव्य स्वरूप धारणकर] वाहन गरुडपर विराजमान उन अद्भुत वैष्णवी शक्तिको | देखकर राजकुमार सुदर्शनके मुखमण्डलपर प्रसन्नता छा गयी ।। 42-43 ॥

इस प्रकार समस्त विद्याओंका रहस्य जाननेवाला वह सुदर्शन उस वनमें रहकर जगदम्बाकी उपासना करता हुआ नदीतटपर विचरण करने लगा। उसी वनमें भगवती जगदम्बाने उसे धनुष, अनेक तीक्ष्ण बाण, तूणीर तथा कवच प्रदान किये ।। 44-45 ॥

इसी समय सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त 'शशिकला' नामसे विख्यात काशिराजकी परम प्रिय पुत्रीने उस वनमें रहनेवाले समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, पराक्रमी तथा दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होनेवाले राजकुमार सुदर्शनके विषयमें सुना ॥ 46-47 ॥

बन्दीजनोंके मुखसे अतिसम्मानित राजकुमारके विषयमें सुनकर शशिकलाने मन-ही-मन बुद्धिपूर्वक उसे पतिरूपमें वरण करनेका निश्चय कर लिया ॥ 48 ॥

[उसी दिन] आधी रातको जगदम्बा स्वप्नमें शशिकलाके पास आकर स्थित हो गयीं और उसे आश्वस्त करके यह वचन बोलीं- 'हे सुश्रोणि ! सुदर्शन मेरा भक्त है, तुम उसीको अपना पति स्वीकार कर लो । हे भामिनि ! मेरी आज्ञासे वह तुम्हारी सब कामनाएँ पूर्ण करेगा' ॥ 49-50 ॥

इस प्रकार स्वप्नमें भगवतीका मनोहर स्वरूप देखकर तथा उनके इस वचनको स्मरण करके परम मानिनी शशिकला प्रसन्न हो गयी ॥ 51 ॥

वह प्रसन्नताके साथ उठ गयी। उसकी माताने उसे हर्षित देखकर बार-बार प्रसन्नताका कारण पूछा, किंतु उस सुन्दरीने अति लज्जाके कारण कुछ नहीं बताया ।। 52 ।।

स्वप्नका बार-बार स्मरण करके प्रसन्नतासे युक्त होकर वह जोरसे हँस पड़ती थी। तब उसने अपनी एक अन्य सखीसे स्वप्नका सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कह दिया ॥ 53 ॥

किसी दिन वह विशालनयनी शशिकला अपनी सखीके साथ चम्पाके वृक्षोंसे सुशोभित एक सुन्दर उपवनमें विहारके लिये गयी। वहाँ पुष्प चुनती | हुई वह कुमारी एक चम्पावृक्षके नीचे खड़ी हो गयी।तभी उसने मार्गमें शीघ्रतापूर्वक आते हुए किसी ब्राह्मणको देखा। उस ब्राह्मणको प्रणाम करके - हे महाभाग ! सुन्दरी शशिकलाने मधुर वाणीमें कहा आप किस देशसे आये हैं ? ॥ 54-56 ॥

ब्राह्मणने कहा- हे बाले! एक कार्यवश भारद्वाजमुनिके आश्रमसे मेरा आगमन हुआ है। तुम क्या पूछ रही हो; मुझे बताओ ॥ 57 ॥

शशिकला बोली- हे महाभाग ! उस आश्रममें अत्यन्त प्रशंसनीय, संसारमें सबसे बढ़कर तथा विशेषरूपसे दर्शनीय कौन-सी वस्तु है ? ॥ 58 ॥

ब्राह्मणने कहा—हे सुश्रोणि ! महाराज ध्रुवसन्धिके पुत्र श्रीमान् सुदर्शन वहाँ रहते हैं। पुरुषोंमें श्रेष्ठ वे सुदर्शन अपने नामके अनुरूप ही हैं ॥ 59 ॥

हे सुन्दरि ! जिसने राजकुमार सुदर्शनको नहीं देखा, मैं तो उसके नेत्रोंको अत्यन्त निष्फल मानता हूँ॥60॥

सृष्टिकी अभिलाषावाले ब्रह्माने कौतूहलवश उन एक सुदर्शनमें सभी गुणोंको भर दिया है। अतः गुणोंकी खान सुदर्शनको ही मैं देखनेयोग्य मानता हूँ ॥ 61 ॥

वे राजकुमार तुम्हारे अनुरूप हैं और तुम्हारे पति होनेयोग्य हैं। मणि और कांचनकी भाँति यह तुम दोनोंका संयोग पहलेसे ही निश्चित हो चुका है ॥ 62 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना