श्रीनारायण बोले- हे देवर्षे! जो दान और धनके आदान-प्रदानमें साक्षी बनकर सदा झूठ बोलते हैं, वे पापबुद्धि मनुष्य मरनेपर सौ योजन ऊँचे पर्वत शिखरसे अवीचि नामक परम भयंकर नरकमें गिरते हैं ॥ 1-2 ॥
इस अवीचि नामक आधारशून्य नरकमें प्राणियोंको नीचा सिर किये हुए गिरना पड़ता है, जहाँ स्थलभाग लहरयुक्त जलकी भाँति दिखायी पड़ता है। इसीलिये इसे अवीचि कहते हैं। हे देवर्षे! वहाँ पत्थर ही पत्थर बिछे रहते हैं उनपर गिरनेसे प्राणियोंका शरीर तिल-तिल करके कट जाता है। वे मरते भी नहीं और उसीमें उन्हें बार-बार गिराया जाता है । ll 3-4 ॥
हे ब्रह्मपुत्र जो ब्राह्मण अथवा ब्राह्मणी अथवा व्रतमें स्थित अन्य कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उसका अय: पान नामक नरकमें पतन होता है। हे मुने! हे ब्रह्मापुत्र! यमराजके दूत वहाँपर उन्हें आगसे अत्यन्त सन्तप्त तथा पिघला हुआ लोहा पिलाते हैं ।। 5-63 ।।हे मुने! जो नराधम स्वयं निम्न श्रेणीमें उत्पन्न हुआ है, किंतु अभिमानवश विद्या, जन्म, तप, आचार, वर्ण या आश्रममें अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषोंका यथोचित सम्मान नहीं करता; वह महान् अधम मनुष्य यमदूतोंके द्वारा क्षारकर्दम नामक नरकमें सिर नीचा किये हुए ले जाया जाता है; वहाँपर वह घोर कष्टप्रद यातनाएँ भोगता है ll 7- - 9॥
हे महामुने! जो मनुष्य मोहग्रस्त होकर नरमेधके द्वारा अन्य [यक्ष, राक्षस आदि] का पूजन करते हैं अथवा जो स्त्रियाँ भी नरपशुका मांस खाती हैं; वे रक्षोगणसम्भोज नामक नरकमें गिरते हैं। उनके द्वारा इस लोकमें मारे गये वे पशु यमपुरीमें पहलेसे ही कसाईके रूपमें विद्यमान रहते हैं। हे मुने! जिस प्रकार इस लोकमें पशुओंका मांस खानेवाले पुरुष आनन्दित होते हैं, उसी प्रकार वे पशु भी निर्मम कसाईका रूप धारणकर तेज धारवाले अस्त्रसे उनके शरीरको काटकर उससे निकले रक्तको पीते हैं और अनेक प्रकारसे नाचते तथा गाते हैं॥ 10-12 ॥
हे ब्रह्मपुत्र ! जो लोग ग्राममें अथवा जंगलमें रहनेवाले निरपराध प्राणियोंको-जो जीनेकी इच्छा रखते हैं- उन्हें विविध उपायोंसे विश्वासमें लेकर तथा फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और अपने मनोरंजनके लिये उनके शरीरमें काँटे चुभाकर अथवा रस्सी आदिमें बाँधकर पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरनेपर शूलपात (शूलप्रोत ) नामक नरकमें गिरते हैं। उनके शरीरमें शूल आदि चुभाये जाते हैं, वे भूख तथा प्यासे अत्यन्त पीड़ित होते हैं और तीखी चोंचवाले कंक, बक आदि पक्षी उन्हें जहाँ-तहाँ नोचते हैं। उस समय कष्ट भोग रहे वे प्राणी अपने पूर्वकृत पापोंका बार-बार स्मरण करते हैं । ll 13 - 153 ॥
हे विप्र उग्र स्वभाववाले जो मनुष्य सपकी भाँति प्राणियोंको उद्विग्न करते हैं, वे मरणोपरान्त | दन्दशूक नामक नरकमें पढ़ते हैं, जहाँपर पाँच तथा सात मुखोंवाले क्रूरस्वभाव सर्प मरनेके बाद इस नरकमें पहुँचे हुए प्राणियोंको चूहेकी भाँति निगल जाते हैं ॥ 16-18 ॥जो अन्धकूपोंमें, प्रकाशरहित घर आदिमें अथवा अन्धकारयुक्त गुफाओं में प्राणियोंको बन्द कर देते हैं, उन पापकर्मपरायण लोगोंको यमराजके दूत मरनेके उपरान्त [अवटारोध नामक नरकमें गिराते हैं और ] उनका हाथ पकड़कर विषैली अग्निके धुएँसे भरे हुए उसी प्रकारके अँधेरे स्थानोंमें प्रवेश कराकर उन्हें बन्द कर देते हैं । 19-20 ॥
जो द्विज स्वयं गृहका स्वामी होकर अपने यहाँ समयपर आये हुए अतिथियोंको पापपूर्ण नेत्रसे इस प्रकार देखता है, मानो उसे भस्म ही कर डालेगा, मरनेपर उस पापदृष्टिवाले पुरुषको यमराजके सेवक पर्यावर्तन नामक नरकमें गिराते हैं । वहाँपर वज्रतुल्य चोंचोंवाले कंक, काक, वट, गीध आदि महान् क्रूर पक्षी बलपूर्वक उसकी आँखें निकाल लेते हैं ।। 21-223 ॥
जो अधम मनुष्य अपनेको वैभवसम्पन्न मानकर अभिमानसे अत्यन्त गर्वित होकर दूसरोंको वक्रदृष्टिसे देखता है, जो सबके प्रति शंकाभाव रखता है, जो अपने चित्तमें सदा धन कमाने किंतु व्यय न करनेकी ही भावना रखता है तथा ग्रहकी भाँति सदा धनकी रक्षा करता है, वह सूखते हुए हृदय तथा मुखवाला प्राणी कभी शान्तिको प्राप्त नहीं होता है। मरनेपर यमराजके सेवकोंद्वारा वह अपने पापकर्मके कारण सूचीमुख नामक नरकमें गिराया जाता है। यमराजके दूत उस अर्थपिशाचके सम्पूर्ण अंगोंको उसी प्रकार सिल देते हैं, जैसे दर्जी सूई-धागेसे वस्त्र सिलते हैं ।। 23 - 263 ॥
हे विप्र ! पापकर्म करनेवाले मनुष्योंको यातना | देनेके लिये ये अनेक प्रकारके नरक हैं। इसी तरह और भी सैकड़ों तथा हजारों नरक हैं। हे देवर्षे ! उनमेंसे कुछ ही बताये गये हैं, मैंने बहुत-से नरकोंका वर्णन ही नहीं किया। हे मुने! पापी मनुष्य अनेक यातनाओंसे भरे इन नरकोंमें जाते हैं और धर्मपरायणलोग सुखप्रद लोकोंमें जाते हैं ॥ 27–29 ॥
हे महामुने। मैंने जिस प्रकार आपसे भगवतीके पूजनके स्वरूप और देवीकी आराधनाके लक्षणोंका वर्णन विस्तारसे किया है, वही अपना धर्म है; जिसकेअनुष्ठानमात्रसे मनुष्य नरकमें नहीं जाता। सम्यक् प्रकारसे पूजित होनेपर वे भगवती संसाररूपी समुद्रसे प्राणियोंका उद्धार कर देती हैं 30-31 ॥