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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 2 - Skand 9, Adhyay 2

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परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन

नारदजी बोले - हे प्रभो ! देवियोंका सम्पूर्ण चरित्र मैंने संक्षेपमें सुन लिया, अब सम्यक् प्रकारसे बोध प्राप्त करनेके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥

सृष्टिप्रक्रियामें सृष्टिकी आद्यादेवीका प्राकट्य कैसे हुआ? हे वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ ! वे प्रकृति पुनः पाँच रूपोंमें कैसे आविर्भूत हुईं; यह बतायें। इस संसारमें उन त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके कलांशोंसे जो देवियाँ उत्पन्न हुईं, उनका चरित्र मैं अब विस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥2-3॥

हे विज्ञ! उनके जन्मकी कथा, उनके पूजा ध्यानकी विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य और मंगलमय शौर्यका वर्णन कीजिये ॥ 4 ॥

श्रीनारायण बोले- जैसे आत्मा नित्य है, आकाश नित्य है, काल नित्य है, दिशाएँ नित्य हैं, ब्रह्माण्डगोलक नित्य है, गोलोक नित्य है तथा उससे थोड़ा नीचे स्थित वैकुण्ठ नित्य है; उसी प्रकार ब्रह्मकी सनातनी लीलाशक्ति प्रकृति भी नित्य है ॥ 5-6 ॥जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति, चन्द्रमा तथा कमलमें शोभा, सूर्यमें दीप्ति सदा विद्यमान रहती और उससे अलग नहीं होती है; उसी प्रकार परमात्मामें प्रकृति विद्यमान रहती है ॥ 7 ॥

जैसे बिना स्वर्णके स्वर्णकार कुण्डलादि आभूषणोंका निर्माण करनेमें असमर्थ होता है और बिना मिट्टीके कुम्हार घड़ेका निर्माण करनेमें सक्षम नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके सहयोगके बिना परमात्मा सृष्टिकी रचनामें समर्थ नहीं होता। वे प्रकृति ही सभी शक्तियोंकी अधिष्ठात्री हैं तथा उनसे ही परमात्मा सदा शक्तिमान् रहता है ।। 8-9 ॥

'श' ऐश्वर्यका तथा 'क्ति' पराक्रमका वाचक है। जो इनके स्वरूपवाली है तथा इन दोनोंको प्रदान करनेवाली है; उस देवीको शक्ति कहा गया है ॥ 10 ॥

ज्ञान, समृद्धि, सम्पत्ति, यश और बलको 'भग' कहते हैं। उन गुणोंसे सदा सम्पन्न रहनेके कारण ही शक्तिको भगवती कहते हैं तथा वे सदा भगरूपा हैं। उनसे सम्बद्ध होनेके कारण ही परमात्मा भी भगवान् कहे जाते हैं। वे परमेश्वर अपनी इच्छाशक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण साकार और निराकार दोनों रूपोंसे अवस्थित रहते हैं ।। 11-12 ॥

उस तेजस्वरूप निराकारका योगीजन सदा ध्यान करते हैं तथा उसे परमानन्द, परब्रह्म तथा ईश्वर कहते हैं ॥ 13 ॥ अदृश्य, सबको देखनेवाले, सर्वज्ञ, सबके कारणस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सर्वरूप उस परब्रह्मको वैष्णवजन नहीं स्वीकार करते ॥ 14 ॥ वे कहते हैं कि तेजस्वी सत्ताके बिना किसका तेज प्रकाशित हो सकता है ? अतः तेजोमण्डलके मध्य अवश्य ही तेजस्वी परब्रह्म विराजते हैं ॥ 15 ॥

वे स्वेच्छामय, सर्वरूप और सभी कारणोंक भी कारण | हैं। वे अत्यन्त सुन्दर तथा मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं, वे किशोर अवस्थावाले, शान्तस्वभाव, सभी मनोहर अंगोंवाले तथा परात्पर हैं। वे नवीन मेघकी कान्तिके एकमात्र धामस्वरूप श्याम विग्रहवाले हैं, उनके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्नमें खिले कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले हैं और उनकी मनोरम दन्तपंक्ति मुक्ताकी शोभाको भी तुच्छ कर देनेवाली है ॥ 16-18 ॥उन्होंने मयूरपिच्छका मुकुट धारण किया है, उनके गलेमें मालतीकी माला सुशोभित हो रही है। उनकी सुन्दर नासिका है, उनका मुखमण्डल मुसकानयुक्त तथा सुन्दर है और वे भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। वे प्रज्वलित अग्निके सदृश विशुद्ध तथा देदीप्यमान पीताम्बरसे सुशोभित हो रहे हैं। उनकी दो भुजाएँ हैं, उन्होंने मुरलीको हाथमें धारण किया है, वे रत्नोंके आभूषणोंसे अलंकृत हैं। वे सर्वाधार, सर्वेश, सर्वशक्तिसे युक्त, विभु, सभी प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सब प्रकारसे स्वतन्त्र तथा सर्वमंगलरूप हैं । 19 - 21 ॥ वे परिपूर्णतम सिद्धावस्थाको प्राप्त, सिद्धोंके स्वामी तथा सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले हैं। वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भयको दूर करते हैं, ऐसे उन सनातन परमेश्वरका वैष्णवजन सदा ध्यान करते रहते हैं ।। 223 ll

ब्रह्माजीकी आयु जिनके एक निमेषको तुलनामें है, उन परमात्मा परब्रह्मको 'कृष्ण' नामसे पुकारा जाता है। 'कृष्' उनकी भक्ति तथा 'न' उनके दास्यके वाचक शब्द हैं। इस प्रकार जो भक्ति और दास्य प्रदान करते हैं, उन्हें कृष्ण कहा गया है अथवा 'कृष्' सर्वार्थका तथा 'न' कार बीजका वाचक है, अतः श्रीकृष्ण ही आदिमें सर्वप्रपंचके स्रष्टा तथा सृष्टिके एकमात्र बीजस्वरूप हैं। उनमें जब सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके अंशभूत कालके द्वारा प्रेरित होकर स्वेच्छामय वे प्रभु अपनी इच्छासे दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम भागांश स्त्रीरूप तथा दक्षिणांश पुरुषरूष कहा गया है ।। 23-27 ॥

उन [वामभागोत्पन्न ] कामकी आधारस्वरूपाको उन सनातन महाकामेश्वरने देखा। उनका रूप अतीव मनोहर था। वे सुन्दर कमलकी शोभा धारण किये हुए थीं। उन परादेवीका नितम्बयुगल चन्द्रबिम्बको तिरस्कृत कर रहा था और अपने जघनप्रदेशसे सुन्दर कदलीस्तम्भको निन्दित करते हुए वे मनोहर प्रतीत हो | रही थीं। शोभामय श्रीफलके आकारवाले स्तनयुगलसे वे मनोरम प्रतीत हो रही थीं। वे मस्तकपर पुष्पोंकी सुन्दर माला धारण किये थीं, वे सुन्दर वलियोंसे युक्त थीं, उनका कटिप्रदेश क्षीण था, वे अति मनोहर थीं,वे अत्यन्त सुन्दर, शान्त मुसकान और कटाक्षसे सुशोभित थीं। उन्होंने अग्निके समान पवित्र वस्त्र धारण कर रखा था और वे रत्नोंके आभूषणोंसे सुशोभित थीं ॥ 28-31 ॥

वे अपने चक्षुरूपी चकोरोंसे करोड़ों चन्द्रमाओंको तिरस्कृत करनेवाले श्रीकृष्णके मुखमण्डलका प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर पान कर रही थीं। वे देवी ललाटके ऊपरी भागमें कस्तूरीकी बिन्दीके साथ-साथ नीचे चन्दनकी बिन्दी तथा ललाटके मध्यमें सिन्दूरकी बिन्दी धारण किये थीं। अपने प्रियतममें अनुरक्त चित्तवाली वे देवी मालतीकी मालासे भूषित घुँघराले केशसे शोभा पा रही थीं तथा श्रेष्ठ रत्नोंकी माला धारण किये हुए थीं। कोटि चन्द्रकी प्रभाको लज्जित करनेवाली शोभा धारण किये वे अपनी चालसे राजहंस और गजके गर्वको तिरस्कृत कर रही थीं ॥ 32-35 ॥

उन्हें देखकर रासेश्वर तथा परम रसिक श्रीकृष्णने उनके साथ रासमण्डलमें उल्लासपूर्वक रासलीला की। ब्रह्माके दिव्य दिवसकी अवधितक नाना प्रकारकी श्रृंगारचेष्टाओंसे युक्त उन्होंने मूर्तिमान् श्रृंगाररसके समान सुखपूर्वक क्रीड़ा की। तत्पश्चात् थके हुए उन जगत्पिताने नित्यानन्दमय शुभ मुहूर्तमें देवीके क्षेत्रमें तेजका आधान किया। हे सुव्रत क्रीडाके अन्तमें हरिके तेजसे परिश्रान्त उन देवीके शरीरसे स्वेद निकलने लगा और महान् परिश्रमसे खिन्न उनका श्वास भी वेगसे चलने लगा। तब वह सम्पूर्ण स्वेद विश्वगोलक बन गया और वह निःश्वास वायु जगत् में सब प्राणियोंके जीवनका आधार बन गया ॥ 36–41 ॥ उस मूर्तिमान् वायुके वामांगसे उसकी प्राणप्रिय पत्नी प्रकट हुईं, पुनः उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
जो जीवोंके प्राणके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। प्राण, अपान,
समान, उदान तथा व्यान-ये पाँच वायु और उनके पाँच
अधोगामी प्राणरूप पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ 42-43 ॥ स्वेदके रूपमें निकले जलके अधिष्ठाता महान् वरुणदेव हुए। उनके वामांगसे उनकी पत्नी वरुणानी प्रकट हुई। श्रीकृष्णकी उन चिन्मयी शक्तिने उनके गर्भको धारण किया। वे सौ मन्वन्तरोंतक ब्रह्मतेजसे | देदीप्यमान बनी रहीं। वे श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवीहैं, कृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। वे कृष्णकी सहचरी हैं और सदा उनके वक्षःस्थलपर विराजमान रहती हैं। सौ मन्वन्तर बीतनेपर उन सुन्दरीने स्वर्णकी कान्तिवाले, विश्वके आधार तथा निधानस्वरूप श्रेष्ठ बालकको जन्म दिया ॥ 44-47 ॥

उस बालकको देखकर उन देवीका हृदय अत्यन्त दुःखित हो गया और उन्होंने उस बालकको कोपपूर्वक उस ब्रह्माण्डगोलकमें छोड़ दिया। बालकके उस त्यागको देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण हाहाकार करने लगे और उन्होंने उसी क्षण उन देवीको समयानुसार शाप दे दिया- हे कोपशीले! हे निष्ठुरे ! तुमने पुत्रको त्याग दिया है, इस कारण आजसे तुम निश्चित ही सन्तानहीन रहोगी तुम्हारे अंशसे जो जो देवपत्नियाँ प्रकट होंगी, वे भी तुम्हारी तरह सन्तानरहित तथा नित्ययौवना रहेंगी ।। 48-51॥

इसके बाद देवीके जिह्वाग्रसे सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथमें वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥

इसी बीच श्रीकृष्ण भी द्विधारूपसे प्रकट हो गये। उनके दक्षिणार्धसे द्विभुज रूप प्रकट हुआ तथा वामार्धसे चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ। तब श्रीकृष्णने उन सरस्वती देवीसे कहा कि तुम इस (चतुर्भुज) विष्णुकी कामिनी बनो। ये मानिनी राधा इस द्विभुजके साथ यहीं रहेंगी। तुम्हारा कल्याण होगा। इस प्रकार प्रसन्न होकर उन्होंने लक्ष्मीको नारायणको समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् वे जगत्पति उन दोनोंके साथ वैकुण्ठको चले गये ।। 55-57 ॥

राधाके अंशसे प्रकट वे दोनों लक्ष्मी तथा सरस्वती निःसन्तान ही रहीं। भगवान् नारायणके अंगसे चतुर्भुज पार्षद प्रकट हुए। वे तेज, वय, रूप और गुणोंमें नारायणके समान ही थे उसी प्रकार लक्ष्मीके अंगसे उनके ही समान करोड़ों दासियाँ प्रकट हो गयीं ॥ 58-59 ॥हे मुने! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रममें उन्हींके समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्णके प्राणोंके समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥

श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधाके ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिरयौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं। हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं। वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ 62-65 ll

सभी शक्तियोंकी बीजरूपा वे मूलप्रकृति ही ईश्वरी, परिपूर्णतमा तथा तेजपूर्ण त्रिगुणात्मिका हैं। वे तपाये हुए स्वर्णकी कान्तिवाली, कोटि सूर्योकी आभा धारण करनेवाली, किंचित् हास्यसे युक्त प्रसन्नवदनवाली तथा सहस्र भुजाओंसे शोभायमान हैं। वे त्रिलोचना भगवती नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र समूहोंको धारण करती हैं, अग्निसदृश विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए हैं और रत्नाभरणसे भूषित हैं ।। 66-68 ॥

उन्हींकी अंशांशकलासे सभी नारियाँ प्रकट हुई हैं। उनकी मायासे विश्वके सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं। वे गृहस्थ सकामजनोंको सब प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली, वैष्णवजनोंको वैष्णवी कृष्णभक्ति देनेवाली, मोक्षार्थी-जनोंको मोक्ष देनेवाली तथा सुख चाहनेवालोंको सुख प्रदान करनेवाली हैं ।। 69-703 ।।

वे देवी स्वर्गमें स्वर्गलक्ष्मी, गृहोंमें गृहलक्ष्मी, तपस्वियोंमें तप तथा राजाओंमें राज्यलक्ष्मीके रूपमें स्थित हैं। वे अग्निमें दाहिका शक्ति, सूर्यमें प्रभारूप, चन्द्रमा तथा कमलोंमें शोभारूपसे और परमात्मा श्रीकृष्णमें सर्वशक्तिरूपसे विद्यमान हैं ॥ 71-73 ॥हे नारद! जिनसे परमात्मा शक्तिसम्पन्न होता है तथा जगत् भी शक्ति प्राप्त करता है और जिनके बिना सारा चराचर विश्व जीते हुए भी मृतकतुल्य हो जाता है, जो सनातनी संसाररूपी बीजरूपसे वर्तमान हैं, वे ही समस्त सृष्टिकी स्थिति, वृद्धि और फलरूपसे स्थित हैं ।। 74-75 ॥

वे ही भूख-प्यास, दया, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति तथा कान्तिरूपसे सर्वत्र विराजती हैं। सर्वेश्वर प्रभुकी स्तुति करके वे उनके समक्ष स्थित हो गयीं। राधिकाके ईश्वर श्रीकृष्णने उन्हें रत्नसिंहासन प्रदान किया । ll 76-77 ।।

हे महामुने! इसी समय वहाँ सपत्नीक ब्रह्माजी पद्मनाभ भगवान्के नाभिकमलसे प्रकट हुए। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा परम तपस्वी वे ब्रह्मा कमण्डलु धारण किये हुए थे। देदीप्यमान वे ब्रह्मा चारों मुखोंसे श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ 78-79 ।।

सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिवाली, अग्निके समान चमकीले वस्त्रोंको धारण किये और रत्नाभरणोंसे भूषित प्रकट हुई वे सुन्दरी सबके कारणभूत परमात्माकी स्तुति करके अपने स्वामी श्रीकृष्णके साथ रमणीय रत्नसिंहासनपर उनके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक बैठ गर्यो ।। 80-81 ll

उसी समय वे श्रीकृष्ण दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम अर्धांग महादेवके रूपमें परिणत हो गया और दक्षिण अधग गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण ही बना रह गया। वे महादेव शुद्ध स्फटिकके समान प्रभायुक्त थे, शतकोटि सूर्यकी प्रभासे सम्पन्न थे, त्रिशूल तथा पट्टिश धारण किये हुए थे तथा बाघम्बर पहने हुए थे। वे परमेश्वर तप्त स्वर्णके समान कान्तिवाले थे, वे जटाजूट धारण किये हुए थे, उनका शरीर भस्मसे विभूषित था, वे मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण कर रखा था। वे दिगम्बर नीलकण्ठ सपके आभूषण से अलंकृत थे। उन्होंने दाहिने हाथमें सुसंस्कृत रत्नमाला धारण कर रखी थी । ll 82 - 85 ।।वे पाँचों मुखोंसे सनातन ब्रह्मज्योतिका जप कर रहे थे। उन सत्यस्वरूप, परमात्मा, ईश्वर, सभी कारणोंके कारण, सभी मंगलोंके भी मंगल, जन्म मृत्यु, जरा-व्याधि-शोक और भयको दूर करनेवाले, कालके काल, श्रेष्ठ श्रीकृष्णकी स्तुति करके मृत्युंजय नामसे विख्यात हुए वे शिव विष्णुके समक्ष रमणीय रत्नसिंहासनपर बैठ गये॥ 86–88 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन