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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 25 - Skand 6, Adhyay 25

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पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन

व्यासजी बोले- मेरी वह बात सुनकर वासवराजकुमारी सत्यवती चकित हो गयीं और पुत्रके लिये अत्यन्त व्यग्र होकर मुझसे कहने लगीं हे पुत्र! काशिराजकी श्रेष्ठ पुत्री वधू अम्बालिका विचित्रवीर्यकी भार्या है, जो विधवा तथा पतिशोकसे सन्तप्त है। वह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और रूप तथा यौवनसे युक्त है। तुम उसके साथ संसर्ग करके प्रिय पुत्र उत्पन्न करो ॥ 1-3 ॥

नेत्रहीनको राजा बननेका अधिकार नहीं हो सकता। इसलिये हे मानद! मेरी बात मानकर तुम उस राजपुत्रीसे एक मनोहर पुत्र उत्पन्न करो ॥ 4 ॥

हे मुने! तब मैं माताजीके ऐसा कहनेपर वहाँ हस्तिनापुरमें ठहर गया और जब सुन्दर केशपाशवाली काशिराजकी पुत्री अम्बालिका ऋतुमती हुई तो अपनी सासके कहनेपर वह एकान्त शयनकक्षमें लज्जित | होती मेरे पास आयी ।। 5-6 ll

वहाँ मुझ जटाधारी इन्द्रियनिग्रही तथा शृङ्गाररससे अनभिज्ञ तपस्वीको देखकर उसके मुखपर पसीना आ गया, शरीर पीला पड़ गया और उसका मन बहुत खिन्न हो गया ॥ 7 ॥तत्पश्चात् रात्रिमें सम्पर्कके लिये आयी हुई उस सुन्दरीको अपने पासमें बैठी देखकर मैं कुपित हो गया और रोषपूर्वक बोला- सुमध्यमे। मुझे देखकर यदि तुम अभिमानसे पीली पड़ गयी हो तो तुम्हारा पुत्र भी पीतवर्णका होगा ॥ 8-9 ll

ऐसा कहकर मैं उस अम्बालिकाके साथ रातभर वहीं रहा और फिर मातासे आज्ञा लेकर अपने आश्रमके लिये प्रस्थित हो गया ॥ 10 ॥

तदनन्तर समय आनेपर उन दोनोंने अन्धे तथापाण्डुवर्णके दो पुत्र उत्पन्न किये। वे दोनों धृतराष्ट्र तथा पाण्डु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ 11 ॥

उन दोनों राजकुमारोंको इस प्रकारका देखकर मेरी माता खिन्नमनस्क हो गयीं। तत्पश्चात् एक वर्षके अनन्तर मुझे बुलाकर उन्होंने कहा- हे द्वैपायन! इस प्रकारके दोनों पुत्र राज्य करनेके योग्य नहीं हैं, अतएव तुम एक अन्य मनोहर पुत्र उत्पन्न करो, जो मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ 12-13 ॥

'वैसा ही होगा 'मेरे इस प्रकार कहनेपर माता अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। इसके बाद ऋतुकाल आनेपर माताने पुत्रहेतु अम्बिकासे प्रार्थना की- हे पुत्र ! हे सुमुखि ! व्यासके साथ समागम करके तुम कुरुवंश चलानेवाला तथा राज्य करनेयोग्य एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करो ॥ 14-15 ।।

उस समय लज्जासे युक्त वधू अम्बिकाने कुछ भी नहीं कहा और मैं माताकी वह बात मानकर रातमें शयनागारमें चला गया ॥ 16 ll

तत्पश्चात् अम्बिकाने विचित्रवीर्यकी रूप यौवनसम्पन्न दासीको सुन्दर आभूषण तथा वस्त्र पहनाकर मेरे पास भेज दिया ॥ 17 ॥

शरीरपर चन्दन लगाये, फूलकी मालाओंसे विभूषित तथा सुन्दर केशोंवाली वह सुन्दरी हंसकी भाँति मन्द मन्द चलती हुई बड़े हाव-भावसे मेरे पास आयी ॥ 18 ॥

मुझे पलंगपर बैठाकर वह भी प्रेमपूर्वक मेरे पास बैठ गयी। हे मुने! उसके इस प्रेमपूर्ण हाव-भावसे मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ 19 ॥हे नारद! रात्रिमें मैंने उसके साथ प्रेमपूर्वक विहार किया और पुनः प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया हे सुभगे ! तुम्हें सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, - रूपवान्, सभी धर्मोंका ज्ञाता, सत्यवादी तथा शान्त स्वभाववाला पुत्र उत्पन्न होगा ॥ 20-21 ॥ समय आनेपर उसे विदुर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार मुझसे तीन पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई। है साधी परक्षेत्रमें मेरेद्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रोंके प्रति मेरी ममता बढ़ने लगी ॥ 22 ॥

उन तीनों पुत्रोंको अत्यन्त बलवान् तथा वीर्यवान् देखकर मैं अपने शोकके एकमात्र कारण शुकसम्बन्धी वियोगको भूल गया ॥ 23 ॥

हे ब्रह्मन् ! माया बलवती होती है, आत्मज्ञानसे रहित पुरुषोंके लिये यह अत्यन्त दुस्त्यज है। रूपहीन तथा आलम्बरहित यह माया ज्ञानियोंको भी मोहित कर देती है ॥ 24 ॥

हे मुनिवर ! मातामें तथा उन पुत्रोंमें स्नेहासतिसे आवद्ध मेरे मनको वनमें भी शान्ति नहीं मिल पाती थी ॥ 25 ॥

मेरा मन दोलायमान हो गया। वह कभी हस्तिनापुरमें रहता था तो कभी सरस्वतीनदीके तटपर चला आता था इस प्रकार मेरा मन किसी जगह स्थिर नहीं रहता था ॥ 26 ॥

कभी-कभी मनमें ज्ञानका उदय हो जानेपर मैं सोचने लगता था कि ये पुत्र कौन हैं, यह मोह कैसा ? मेरे मर जानेपर ये मेरा श्राद्ध भी तो नहीं कर सकेंगे ॥ 27 ॥

दुराचारसे उत्पन्न ये पुत्र मुझे कौन-सा सुख | देंगे। माया बड़ी प्रबल होती है; यह मनमें मोह पैदा कर देती है ॥ 28 ॥

हे मुने! कभी-कभी शान्तचित्त होकर एकान्तमें मैं यह सन्ताप करने लगता था कि मैं जान-बूझकर | इस मोहरूपी अन्धकूपमें व्यर्थ ही गिर गया हूँ॥ 29 ॥

भीष्मकी सम्मति से जब बलवान् पाण्डुको राज्य प्राप्त हुआ, उस समय मेरा मन इस बातसे बहुत प्रसन्न हुआ कि मेरा पुत्र राजसिंहासनपर बैठा है ।। 30 ।।तत्पश्चात् सुन्दर रूपवाली कुन्ती तथा माद्री उनकी दो भार्याएँ हुई उनमें कुन्ती महाराज शूरसेनकी पुत्री थी तथा दूसरी रानी माद्री मद्रदेशके राजाकी कन्या थी ॥ 31 ॥

ब्राह्मणसे शाप प्राप्त करके राजा पाण्डु अत्यन्त दुःखित हुए और वे राज्यका परित्याग करके अपनी दोनों रानियोंके साथ वन चले गये ॥ 32 ॥

अपने पुत्रको वनमें स्थित सुनकर मुझे महान् शोक हुआ मैं वहाँ पहुँच गया, जहाँ वे अपनी दोनों पत्नियोंके साथ रह रहे थे ॥ 33 ॥

वनमें उन पाण्डुको सान्त्वना देकर मैं पुनः हस्तिनापुर आ गया और वहाँ धृतराष्ट्रके साथ बातचीत करके सरस्वतीनदीके तटपर पुनः चला गया ।। 34 ।।

वनमें अपने आश्रममें उन्होंने धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमारोंसे पाँच क्षेत्रज पुत्रोंको पाँच पाण्डवोंके रूपमें उत्पन्न कराया। धर्म, वायु तथा इन्द्रसे उत्पन्न हुए युधिष्ठिर, भीमसेन तथा अर्जुन ये कुन्तीपुत्र कहे गये हैं। इसी तरह नकुल तथा सहदेव- ये दोनों माद्रीके पुत्र हुए। 35-363 ॥

एक दिन महाराज पाण्डु एकान्तमें माद्रीका आलिंगन करके पूर्वशापके कारण मृत्युको प्राप्त हो गये। तत्पश्चात् मुनियोंने उनका दाह संस्कार किया और माद्री सती होकर पतिके साथ प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट हो गयी और पुत्रोंसे युक्त कुन्ती वहीं स्थित रह गयी। तत्पश्चात् मुनिलोग पतिविहीन उस दुःखित शूरसेन पुत्री कुन्तीको उसके पुत्रोंसहित हस्तिनापुर ले आये और उसे भीष्म तथा महात्मा विदुरको साँप दिया। यह सुनकर मैं उन पाण्डुपुत्रोंके कारण सुख दुःखसे पीड़ित हो गया। पाण्डुके ये पुत्र हैं- ऐसा सोचकर भीष्म, मतिमान् विदुर तथा धृतराष्ट्र प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे ।। 37-413 ॥

धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि जो कर हृदयवाले पुत्र थे, वे एक समूह बनाकर उनका घोर विरोध करने लगे। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य यहाँ आये और भीष्मने उनका सम्मान किया। उन्होंने पुत्रोंको धनुर्विद्याकी शिक्षा देनेके लिये उन्हें उसी पुरमें रख लिया ll 42-433 llकुन्तीने उत्पन्न होते ही जब बालक कर्णका परित्याग कर दिया तब अधिरथ नामक सूतने नदीमें बहते हुए उस कर्णको पाया और उसका पालन-पोषण किया। सर्वश्रेष्ठ वीर होनेके कारण कर्ण दुर्योधनका प्रिय हो गया। बादमें भीम तथा दुर्योधन आदिमें परस्पर विरोध भाव उत्पन्न हो गया ।। 44-453 ।।

तब धृतराष्ट्रने अपने पुत्रों तथा उन पाण्डवोंके परस्पर संकटका विचार करके तथा उनके विरोध भावको समाप्त करनेके उद्देश्यसे वारणावत नगरमें महात्मा पाण्डवोंको बसानेका निश्चय किया ।। 46-47 ।

द्रोहके कारण दुर्योधनने अपने मित्र पुरोचनको वहाँ भेजकर दिव्य लाक्षागृहका निर्माण करा दिया ।। 48 ।। हे मुनिश्रेष्ठ। तत्पश्चात् कुन्तीसहित उन पाण्डवोंक

उस लाक्षागृहमें दग्ध हो जानेका समाचार सुनकर उनके प्रति पौत्र भाव होनेके कारण मैं दुःखके सागरमें डूब गया और उस निर्जन वनमें उन्हें दिन रात खोजता हुआ अति शोकसन्तप्त रहता था। तभी मैंने दुःखके कारण अत्यन्त दुर्बल उन पाण्डवोंको एकचक्रा नगरीमें देखा। उन पाण्डवोंको देखकर मेरे मनमें अत्यधिक प्रसन्नता हुई और मैंने उन्हें तुरंत महाराज द्रुपदके नगरमें भेज दिया ।। 49-51 कृश शरीरवाले वे दुःखित पाण्डव मृगचर्म पहनकर ब्राह्मणका वेश धारण करके वहाँ गये और द्रुपदकी स्वयंवर सभायें जा पहुँचे वहाँपर अर्जुन अपने
पराक्रमका प्रदर्शन करके द्रुपद-पुत्री द्रौपदीको जीतकर
ले आये पुनः माता कुन्तीके आदेशसे पाँचों भाइयोंने
मानिनी द्रौपदीके साथ विवाह किया ।। 52-53॥ उनका विवाह देखकर मैं परम प्रसन्न हुआ। हे मुने! तत्पश्चात् वे सभी द्रौपदीसहित हस्तिनापुर चले आये ॥ 54 ॥ धृतराष्ट्रने उन पाण्डवोंक रहनेके लिये खाण्डवप्रस्थ
देनेका निश्चय किया है द्विजश्रेष्ठ नारद। वसुदेवनन्दन
भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके साथ अग्निदेवको सन्तुष्ट
किया। पाण्डवोंने जब राजसूय यज्ञ किया तब मैं
बहुत प्रसन्न हुआ ।। 55-56 ॥उन पाण्डवोंका वैभव तथा मय दानवद्वारा निर्मित की गयी सभाको देखकर दुर्योधन अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने द्यूतक्रीडाकी योजना बनायी। शकुनि कपटपूर्ण द्यूतमें अति निपुण था तथा धर्मराज युधिष्ठिर पासेके खेलसे अनभिज्ञ थे। अतएव दुर्योधनने [द्यूतक्रीडाके माध्यमसे] पाण्डवोंका सम्पूर्ण राज्य तथा धन छीन लिया तथा द्रौपदीको भी अपमानित किया। दुर्योधनने द्रौपदीसहित पाँचों पाण्डवोंको बारह वर्षकी अवधितक वनमें निवास करनेके लिये निर्वासित कर दिया; इससे मुझे बहुत दुःख हुआ ।। 57 - 59॥

हे नारद! इस प्रकार सनातन धर्मको जानते हुए भी मैं सुख तथा दुःखसे पूर्ण इस संसारमें भ्रमसे ही बन्धनमें पड़ा हूँ। मैं कौन हूँ, ये किसके पुत्र हैं, यह किसकी माता है और सुख क्या है? जिससे मेरा मन मोहित होकर दिन-रात इन्हींमें भ्रमण करता रहता है ॥ 60-61 ॥

मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? किसी प्रकारसे भी मुझे सन्तोष नहीं मिलता। दोलायमान मेरा चंचल मन स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ 62 ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव मेरे सन्देहका निवारण कीजिये। आप कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं सन्तापरहित होकर सुखी हो जाऊँ ॥ 63 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना