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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 1 - Skand 7, Adhyay 1

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पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति

सूतजी बोले - [ हे ऋषियो!] तपस्वी व्यासजीसे यह दिव्य कथा सुनकर परीक्षित्के पुत्र धर्मात्मा राजा जनमेजयने प्रसन्नतापूर्वक पुनः व्यासजीसे पूछा ॥ 1 ॥ जनमेजय बोले- हे स्वामिन्! मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओंके वंशका विस्तृत वर्णन सम्यक् प्रकारसे सुनना चाहता हूँ ॥ 2 ॥

हे पुण्यात्मन्! हे सर्वज्ञ आप उन राजाओंके चरित्र तथा उनके दोनों वंशोंसे सम्बन्धित उस पापनाशिनी कथाका विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 3 ॥ मैंने ऐसा सुना है कि वे सभी पराशक्ति जगदम्बाके महान् भक्त थे; अतः देवीभक्तका चरित्र सुनने से भला कौन विमुख होना चाहेगा? ॥ 4 ॥

राजर्षि जनमेजयके ऐसा पूछनेपर प्रसन्न मुखमण्डलवाले सत्यवतीनन्दन मुनि व्यासने उनसे कहा ॥ 5 ॥

व्यासजी बोले- हे महाराज ! अब मैं सूर्यवंश, चन्द्रवंश तथा अन्य वंशोंकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित कथाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ आप सुनिये ॥ 6॥

भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे चार मुखवाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने घोर तपस्या करके अत्यन्त कठिनतापूर्वक प्राप्त होनेवाली महादेवीकी आराधना की ॥ 7 ॥

उन भगवतीसे वरदान प्राप्त करके ब्रह्माजी जगत्की रचना करनेमें प्रवृत्त हुए, किंतु लोकपितामह ब्रह्माजी मानवी सृष्टि कर पानेमें सफल नहीं हुए ॥ 8 ॥ब्रह्माजीके मनमें सृष्टिके लिये अनेक प्रकारके विचार उत्पन्न हुए, किंतु वे महात्मा अपनी रचनाको शीघ्र विस्तार प्रदान करनेमें समर्थ नहीं हुए ॥ 9 ॥ (तत्पश्चात् प्रजापति ब्रह्माजीने अपने सात मानस पुत्रोंका सृजन किया।) मरीचि, अंगिरा, अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, क्रतु और पुलस्त्य - इन नामोंसे उन सात मानस पुत्रोंकी प्रसिद्धि हुई ॥ 10 ॥

ब्रह्माजीके रोषसे रुद्र उत्पन्न हुए तथा उनकी गोदसे नारदजीका प्राकट्य हुआ। अँगूठेसे दक्षप्रजापति उत्पन्न हुए। इसी प्रकार सनक आदि अन्य मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई ॥ 11 ॥

बायें हाथके अँगूठेसे समस्त सुन्दर अंगोंवाली दक्षपत्नीका प्रादुर्भाव हुआ। हे राजन्! वे पुराणोंमें 'वीरिणी' नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ 12 ॥

वे असिक्नी नामसे भी विख्यात हैं और उन्हींसे देवर्षिश्रेष्ठ नारदजीका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ 13 ॥ ब्रह्माजीके मानसपुत्र जनमेजय बोले- हे ब्रह्मन् ! अभी-अभी आपने जो बात कही है कि महान् तपस्वी नारदजी दक्षसे | तथा वीरिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे, इस विषयमें मुझे सन्देह हो रहा है ॥ 14 ॥

धर्मके पूर्ण ज्ञाता तथा तपस्वियोंमें श्रेष्ठ नारदमुनि तो ब्रह्माके मानस पुत्र हैं तो फिर वे दक्षपत्नी वीरिणीसे किस प्रकार उत्पन्न हुए ? ॥ 15 ॥

आपके द्वारा कथित यह वार्ता अत्यन्त विस्मयमें | डालनेवाली है। दक्षसे तथा उनकी भार्या 'वीरिणी' से इन नारदजीके जन्मके विषयमें आप मुझे विस्तारपूर्वक
बताइये ॥ 16 ॥

हे मुने! विपुल ज्ञान रखनेवाले महात्मा नारदजीने किसके शापसे अपने पूर्व शरीरका त्याग करके किसलिये फिरसे जन्म धारण किया ? ॥ 17 ॥

व्यासजी बोले- स्वयम्भू ब्रह्माजीने सबसे पहले दक्षप्रजापतिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी और कहा कि तुम प्रजाकी रचनायें तत्पर हो जाओ, जिससे प्रजाकी अधिकाधिक वृद्धि हो सके ॥ 18 ॥

तब दक्षप्रजापतिने वीरिणीके गर्भसे अत्यन्त बल | शाली तथा पराक्रमी पाँच हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ 19 ॥प्रजाकी वृद्धिहेतु विपुल उत्साहसे सम्पन्न उन सभी पुत्रोंको देखकर कालकी प्रेरणाके अनुसार देवर्षि नारदजी हँसते हुए यह बात कहने लगे ॥ 20 ॥

पृथ्वीकी वास्तविक परिमितिका बिना ज्ञान किये ही तुमलोग प्रजाके सृष्टिकार्यमें कैसे तत्पर हो गये ? इससे तो तुमलोग निःसन्देह जगत्में उपहासके पात्र बनोगे ॥ 21 ॥

पृथ्वीका परिमाण जानकर ही तुम्हें इस कार्यमें संलग्न होना चाहिये। ऐसा करनेपर ही तुमलोगोंका कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ 22 ॥

तुमलोग तो मूर्ख हो जो कि पृथ्वीके परिमाणको जाने बिना ही प्रजोत्पत्तिमें संलग्न हो गये हो; इसमें सफलता कैसे मिल सकती है ? ॥ 23 ॥

व्यासजी बोले- नारदजीके इस प्रकार कहनेपर दैवयोगसे दक्षपुत्र हर्यश्व परस्पर कहने लगे कि मुनिने तो ठीक ही कहा है। अब हमलोग पृथ्वीका परिमाण जान लेनेके पश्चात् ही सुखपूर्वक प्रजाकी सृष्टि करेंगे। ऐसा विचार करके वे सभी पृथ्वीका विस्तार | जाननेके लिये चल पड़े ॥ 24-25 ॥

तत्पश्चात् नारदजीके कथनानुसार पृथ्वीके सम्पूर्ण तलका ज्ञान करनेके लिये कुछ पूर्व दिशामें, कुछ पश्चिम दिशामें, कुछ उत्तर दिशामें तथा कुछ दक्षिण दिशामें बड़े उत्साह के साथ चले। इधर, दक्षप्रजापति सभी पुत्रोंको गया हुआ देखकर बहुत ही शोकाकुल हो गये ॥ 26-27 ॥

दृढ़निश्चयी दक्षप्रजापतिने प्रजाओंकी सृष्टिके लिये पुनः अन्य पुत्र उत्पन्न किये। वे सभी पुत्र भी प्रजा-सृष्टिके कार्यमें उत्साहपूर्वक तत्पर हो गये ॥ 28 ॥

उन्हें देखकर नारदमुनिने पूर्वकी भाँति वही बात उनसे भी कही - तुमलोग बड़े ही मूर्ख हो। अरे, पृथ्वीके वास्तविक परिमाणका ज्ञान किये बिना ही तुमलोग प्रजाकी सृष्टि करनेमें किस कारणसे संलग्न हो गये हो ? ॥ 293 ॥

मुनिकी वाणी सुनकर तथा उसे सत्य मानकर वे भी भ्रमित हो गये। वे सभी पुत्र उसी प्रकार भूमण्डलका विस्तार जाननेके लिये चल पड़े, जिसप्रकार उनके भाईलोग पहले चले गये थे। उन पुत्रोंको वहाँसे प्रस्थित देखकर दक्ष अत्यन्त कुपित | हो उठे और पुत्रशोकजन्य कोपसे उन्होंने नारदजीको शाप दे दिया ।। 30-313 ॥

दक्ष बोले- [ हे नारद!] जिस प्रकार तुमने मेरे पुत्रोंको नष्ट किया है, उसी प्रकार तुम भी नाशको प्राप्त हो जाओ। हे दुर्बुद्धे ! तुमने मेरे पुत्रोंको भ्रष्ट किया है, अतएव इस पापके परिणामस्वरूप तुम्हें गर्भमें वास करना होगा और मेरा पुत्र बनना पड़ेगा ।। 32-33 ॥

इस प्रकार शापके प्रभावसे मुनि नारद वीरिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए। तदनन्तर दक्षने वीरिणीके गर्भसे साठ कन्याओंको उत्पन्न किया, ऐसा हमने सुना है ॥ 34 ॥

पुत्रोंका शोक त्यागकर परम धर्मनिष्ठ दक्षप्रजापतिने उन कन्याओंमेंसे तेरह कन्याएँ महात्मा कश्यपको अर्पित कर दीं। हे पृथ्वीपते! उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, सत्ताईस चन्द्रमाको, दो भृगुमुनिको चार अरिष्टनेमिको, दो अंगिरा ऋषिको तथा शेष दोको पुनः अंगिराऋषिको ही सौंप दिया। उन्हीं कन्याओंके पुत्र तथा पौत्र देवता एवं दानवके रूपमें उत्पन्न हुए। वे महान् बलशाली तथा आपसमें विरोधभाव रखते थे। एक-दूसरेके विरोधी तथा परस्पर रागद्वेषकी भावना रखनेवाले वे सभी पराक्रमी देवता तथा दानव अत्यन्त मायावी थे तथा सदा मोहसे ग्रस्त रहते थे ।। 35-38 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति