श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] उस दानवके संहारकार्यमें शिवजीको नियुक्तकर ब्रह्माजी तत्काल अपने स्थानपर चले गये और अन्य देवता भी अपने अपने स्थानके लिये प्रस्थित हो गये ॥ 1 ॥
तदनन्तर महादेवजी देवताओंके अभ्युदयके उद्देश्यसे चन्द्रभागानदीके तटपर एक मनोहर वटवृक्षके नीचे आसीन हो गये ॥ 2 ॥
उन्होंने अपने अत्यन्त प्रिय गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त) को दूत बनाकर तुरन्त प्रसन्नतापूर्वक शंखचूड़के पास भेजा ॥ 3 ॥
सर्वेश्वर शिवकी आज्ञा पाकर चित्ररथ तत्काल | शंखचूड़के उत्तम नगर गया, जो इन्द्रपुरीसे भी उत्कृष्ट तथा कुबेरके भवनसे भी अधिक सुन्दर था ॥ 4 ॥
वह नगर पाँच योजन चौड़ा तथा उससे दुगुना लम्बा था। वह स्फटिकके आकारवाली मणियोंसे निर्मित था तथा उसके चारों ओर अनेक वाहन स्थित थे। वह नगर सात दुर्गम खाइयोंसे युक्त था । प्रज्वलित अग्निके समान निरन्तर चमकनेवाले करोड़ों रत्नोंसे उसका निर्माण किया गया था। वह नगर सैकड़ों वीथियों तथा मणिमय विचित्र वेदियोंसे सम्पन्न था। वह व्यापारियोंके बड़े बड़े महलोंसे आवृत था, जिनमें अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ विराजमान थीं। उसी प्रकार वह नगर सिन्दूरके समान लाल मणियोंद्वारा निर्मित विचित्र, सुन्दर तथा दिव्य करोड़ों आश्रमोंसे सुशोभित था ॥ 5-8 ॥
हे मुने! नगरमें पहुँचकर पुष्पदन्तने उसके मध्यमें स्थित शंखचूड़का श्रेष्ठ भवन देखा, जो पूर्णचन्द्र मण्डलकी भाँति पूर्णतः वलयाकार था, प्रज्वलित अग्निकी लपक समान प्रतीत होनेवाली चार परिखाओंसे सुरक्षित था, शत्रुओंके लिये अत्यन्त दुर्गम था, किंतु दूसरे लोगोंके लिये सुगम एवं सुखप्रद था, अत्यन्त ऊँचाई वाले गगनस्पर्शी मणि-निर्मित कंगूरोंसे सुशोभित था द्वारपालोंसे युक्त बारह द्वारोंसे सुसजित था और सर्वोत्कृष्ट मणियोंसे निर्मित लाखों मन्दिरों, सोपानों तथा रत्नमय खम्भोंसे मण्डित था ॥ 9-12 ॥उसे देखकर पुष्पदन्तने एक दूसरा प्रधान द्वार देखा। उस द्वारपर सुरक्षा हेतु नियुक्त एक पुरुष हाथमें त्रिशूल धारण किये मुसकराता हुआ वहाँ स्थित था। पुष्पदन्तने पीली आँखोंवाले तथा ताम्र वर्णके शरीरवाले उस भयंकर पुरुषसे सारी बातें बतायीं और फिर उसकी आज्ञासे वह आगे बढ़ा। उस द्वारको पार करके वह भीतर चला गया। यह युद्धका सन्देश देनेवाला दूत है - यह जानकर कोई उसे रोकता भी नहीं था ॥ 13-15 ॥
भीतरी द्वारपर पहुँचकर उसने द्वारपालसे कहा- युद्धका सम्पूर्ण वृत्तान्त [राजाको] बता दो, इसमें विलम्ब मत करो। उस द्वारपालसे ऐसा कहकर वह दूत [ पुष्पदन्त ] स्वयं जानेके लिये बोला। वहाँ जाकर उसने राजमण्डलीके मध्यमें स्वर्णके सिंहासनपर बैठे हुए परम मनोहर शंखचूड़को देखा। उस दिव्य सिंहासनमें सर्वोत्तम मणियाँ जड़ी थीं, वह रत्नमय दण्डोंसे युक्त था, वह रत्ननिर्मित कृत्रिम तथा उच्च कोटिके पुष्पोंसे सदा सुशोभित था, एक सेवक शंखचूडके सिरके ऊपर स्वर्णका मनोहर छत्र लगाये खड़ा था, सुन्दर तथा श्वेत चँवर डुलाते हुए पार्षदगण उसकी सेवामें संलग्न थे, सुन्दर वेष धारण करने तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत होनेके कारण वह रमणीय प्रतीत हो रहा था। हे मुने! वह माला पहने था, शरीरमें चन्दनका लेप किये हुआ था और दो महीन तथा सुन्दर वस्त्र धारण किये हुआ था। वह शंखचूड़ सुन्दर वेष धारण करनेवाले तीन करोड़ दानवेन्द्रोंसे घिरा हुआ था। इसी प्रकार हाथमें अस्त्र धारण किये हुए सैकड़ों करोड़ अन्य दानव भी उसके चारों ओर इधर-उधर घूम रहे थे। इस प्रकारके उस शंखचूड़को देखकर परम विस्मयको प्राप्त उस पुष्पदन्तने शंकरजीके द्वारा जो युद्धविषयक समाचार कहा गया था, उसे बताना आरम्भ किया ॥ 16-223 ॥ पुष्पदन्त बोला- हे राजेन्द्र ! हे प्रभो ! | शंकरजीका सेवक हूँ, मेरा नाम पुष्पदन्त है। शंकरजीने जो कुछ कहा है, मैं वही कह रहा हूँ, आप सुनिये मैं | अब आप देवताओंका राज्य तथा अधिकार लौटादीजिये क्योंकि ये देवता देवेश श्रेष्ठ श्रीहरिकी शरणमें गये थे उन श्रीहरिने अपना त्रिशूल देकर आपके विनाशार्थ शिवजीको भेजा है। वे त्रिलोचन शिव इस समय भद्रशीला नदीके तटपर वटवृक्षके नीचे विराजमान हैं। अतः आप उन देवताओंका राज्य लौटा दीजिये अथवा युद्ध कीजिये। अब आप मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं शिवजीके पास जाकर | उनसे क्या कहूँ ? ॥ 23-263 ॥
[[हे नारद!] दूतकी बात सुनकर शंखचूडने हँसकर कहा- 'तुम चलो, मैं प्रातः काल वहाँ पहुँचूँगा' ॥ 276 ॥ तदनन्तर पुष्पदन्तने वटवृक्षके नीचे विराजमान परमेश्वर शिवके पास पहुँचकर शंखचूड़के मुखसे कही गयी वह बात ज्यों की त्यों उनसे कह दी ।। 283 ।।
इतनेमें ही कार्तिकेयजी भगवान् शंकरके पास आ गये। वीरभद्र, नन्दी, महाकाल, सुभद्र, विशालाक्ष, बाण, पिंगलाक्ष, विकम्पन, विरूप, विकृति, मणिभद्र, बाष्कल, कपिलाख्य, दीर्घदंष्ट्र, विकट, ताम्रलोचन, कालकण्ठ, बलीभद्र, कालजिह्न, कुटीचर, बलोन्मत्त, रणश्लाघी, दुर्जय, दुर्गम तथा जो आठ भैरव, ग्यारह रुद्र, आठ वसु और बारह आदित्य कहे गये हैं- वे सब, अग्नि, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, दोनों अश्विनीकुमार, कुबेर, यमराज, जयन्त, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध, मंगल, धर्म, शनि, ईशान तथा ओजस्वी कामदेव भी वहाँ आ गये । ll29-35॥
उग्रद्रष्ट्रा, उग्रचण्डा, कोटरा तथा कैटभी आदि देवियाँ भी वहाँ पहुँच गयीं। इसी प्रकार आठ भुजाएँ धारण करनेवाली तथा भय उत्पन्न करनेवाली साक्षात् भगवती भद्रकाली भी वहाँ पहुँच गयीं। वे सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित विमानपर विराजमान थीं। वे लाल वस्त्र तथा लाल पुष्पोंकी माला धारण किये थीं और लाल चन्दनसे अनुलिप्त थीं वे प्रसन्नतापूर्वक नाचती हँसती तथा मधुर स्वरमें गाती हुई सुशोभित हो रही थीं। वे देवी अभया भोंको अभय तथा शत्रुओंको भय प्रदान करती हैं। वे योजनभर लम्बी तथा लपलपाती हुई भयंकर जीभ, शंख, चक्र, गदा, पद्म, खड्ग, ढाल, धनुष, बाण, एक योजन विस्तृत वर्तुलाकार गम्भीर खप्पर, आकाशको छूता हुआ विशाल त्रिशूल,एक जन लम्बी शक्ति, मुद्गर, मुसल, वज्र, खेटक, प्रकाशमान फलक, वैष्णवास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र, नागपाश, नारायणास्त्र, गन्धवस्त्र, ब्रह्मास्त्र गरूडास्त्र, पर्जन्यास्त्र, पाशुपतास्त्र, जृम्भणास्त्र, पर्वतास्त्र माहेश्वरास्त्र, वायव्यास्त्र, सम्मोहन दण्ड, दिव्य अमोघ अस्त्र तथा दिव्य श्रेष्ठ सैकड़ों अस्त्र धारणकर तीन करोड़ योगिनियों और तीन करोड़ भयंकर डाकिनियोंको साथ लिये वहाँ आकर विराजमान हो गयीं ॥ 36-44 ॥
भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, बेताल, राक्षस, यक्ष और किन्नर भी वहाँ उपस्थित हो गये। उन सभी देवियों [तथा अन्य देवगणों] को साथ लेकर कार्तिकेय अपने पिता शिवको प्रणाम करके सहायता प्रदान करनेके उद्देश्यसे उनकी आज्ञासे उनके पास बैठ गये ।। 45-46 ।।
इधर, दूतके चले जानेपर प्रतापी शंखचूड़ने अन्तःपुरमें जाकर तुलसीको सारी बात बतायी ॥ 47 ॥
बुद्धकी बात सुनकर उस तुलसीके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये और वह साध्वी तुलसी दुःखी मनसे मधुर वाणीमें कहने लगी ॥ 48 ll
तुलसी बोली- हे प्राणबन्धो! हे नाथ! हे प्राणेश्वर ! मेरे वक्षःस्थलपर क्षणभरके लिये विराजिये। हे प्रणाधिष्ठातृदेव क्षणभर मेरे प्राणोंकी रक्षा कीजिये। मैं क्षणभर अपने नेत्रोंसे आदरपूर्वक आपको देख तू और यह जन्म पाकर आप मेरे मनमें विहारकी जो अभिलाषा है, उसे पूर्ण कीजिये आज ही रात्रिके अन्तमें मैंने एक दुःस्वप्न देखा है, जिससे मेरे प्राण काँप रहे हैं और मनमें लगातार जलन हो रही है ।। 49-51 ॥
तुलसीको बात सुनकर परम ज्ञानसम्पन राजेन्द्र शंखचूड भोजन-पानादिसे निवृत्त होकर तुलसीसे हितकर, सत्य तथा यथोचित वचन कहने लगा ॥ 52 ॥
शंखचूड़ बोला – कल्याण, हर्ष, सुख, दुःख, | भय, शोक और मंगल - ये समस्त कर्मभोगके बन्धन | कालके साथ बंधे हुए हैं ॥ 53 ॥समयसे ही वृक्ष उगते हैं, समयसे ही उनमें शाखाएँ निकलती हैं और फिर क्रमशः पुष्प तथा फल भी उनमें कालानुसार ही लगते हैं। तत्पश्चात् उन वृक्षोंके फल भी समयसे ही पकते हैं । अन्तमें फलयुक्त वे सभी वृक्ष समयानुसार नष्ट भी हो जाते हैं ll 54-55 ll
हे सुन्दरि ! समयसे विश्व बनते हैं और समयपर नष्ट हो जाते हैं। कालकी प्रेरणासे ही ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और विश्वके संहारक शम्भु संहार करते हैं। वे सब क्रमशः कालानुसार ही अपने-अपने कार्यमें नियुक्त होते हैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंकी नियामिका वे पराप्रकृति ही हैं। वही परमेश्वर सृष्टि, रक्षा तथा संहार करनेवाला है और वही परमात्मा कालको नचानेवाला है। उन्हीं प्रभुने समयानुसार इच्छा पूर्वक अपने अभिन्न प्रकृतिका निर्माणकर विश्वमें रहनेवाले समस्त स्थावर-जंगम जीवोंकी रचना की है। वे ही सबके ईश्वर हैं, सभी रूपोंमें वे ही विद्यमान हैं, वे ही सबकी आत्मा हैं और वे ही परम ईश्वर हैं ॥ 56-59 ॥
जो जनसे जनकी उत्पत्ति करता है, जनसे जनकी रक्षा करता है और जनसे जनका संहार करता है, उन्हीं प्रभुकी अब तुम उपासना करो ॥ 60 ॥
जिनकी आज्ञासे शीघ्रगामी पवनदेव प्रवाहित होते हैं, सूर्य यथासमय तपते हैं, इन्द्र समयानुसार वृष्टि करते हैं, मृत्यु सभी जीवोंमें विचरण करती है, अग्निदेव यथासमय दाह उत्पन्न करते हैं, शीतल चन्द्रमा आकाशमें परिभ्रमण करते हैं उन्हीं मृत्युके भी मृत्यु कालके भी काल, यमराजसे भी बड़े यमराज, सृष्टिकर्ता ब्रह्माके भी स्रष्टा, जगत् माताकी माता, संहार करनेवाले शिक्के भी संहर्ता परमप्रभु परमेश्वरकी शरणमें जाओ। हे प्रिये! इस जगत्में कौन किसका बन्धु है; अतः सभी प्राणियोंके बन्धुस्वरूप उन प्रभुकी उपासना करो ।। 61-64 ॥ मैं कौन हूँ और तुम कौन हो? ब्रह्माने पहले मुझे तुम्हारे साथ संयुक्त कर दिया और फिर उन्हींके द्वारा कर्मानुसार वियुक्त भी कर दिया जाऊँगा। शोकतथा विपत्तिमें अज्ञानी मनुष्य भयभीत होता है, न कि विद्वान्। इस प्रकार मनुष्य कालचक्र के क्रमसे सुख तथा दुःखके चक्रमें भ्रमण करता रहता है ।। 65-66 ॥ अब तुम निश्चय ही सर्वेश्वर भगवान् नारायणको पतिरूपमें प्राप्त करोगी, जिनके लिये तुमने पूर्वकालमें बदरिकाश्रममें रहकर तप किया था ॥ 67 ॥
तपस्या तथा ब्रह्माजीके वरदानसे तुम मुझे प्राप्त हुई हो। हे कामिनि ! उस समय जो तुम्हारी तपस्या थी, वह भगवान् श्रीहरिकी प्राप्तिके लिये थी, अतः तुम उन्हीं गोविन्द श्रीहरिको गोलोक स्थित वृन्दावनमें प्राप्त करोगी। मैं भी अपना यह दानवी शरीर त्यागकर उसी लोकमें चलूँगा, तब वहींपर तुम मुझे देखोगी और मैं तुम्हें देखूँगा। हे प्रिये ! सुनो इस समय मैं राधिकाके शापसे ही अगम तथा अत्यन्त दुर्लभ इस भारतवर्षमें आया हूँ और वहींपर पुनः चला जाऊँगा, अतः मेरे लिये शोक क्या ? हे कान्ते! तुम भी शीघ्र ही इस शरीरका त्यागकर दिव्य रूप धारण करके उन्हीं श्रीहरिको पतिरूपमें प्राप्त करोगी, अतः दुःखी मत होओ ।। 68-713 ॥
यह कहकर वह शंखचूड़ सायंकाल होनेपर उस तुलसीके साथ पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित सुन्दर शय्यापर सो गया और अनेकविध विलास करने लगा। रत्नके दीपकोंसे सुशोभित अपने रत्नमय भवनमें स्त्रीरत्नस्वरूपिणी सुन्दरीको पाकर राजा शंखचूड़ने मांगलिक आमोद-प्रमोदोंके द्वारा रात्रि व्यतीत की। तत्पश्चात् अत्यन्त दुःखित होकर रोती हुई, निराहार रहनेके कारण कुश शरीरवाली तथा शोक सागरमें निमग्न अपनी उस प्रिया तुलसीको अपने वक्षः से लगाकर वह ज्ञानसम्पन्न शंखचूड़ दिव्यज्ञानके द्वारा उसे पुनः समझाने लगा। प्राचीनकालमें भांडीरवनमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने जिस उत्तम, सभी शोकोंको दूर करनेवाले परम ज्ञानका उपदेश उसके लिये किया था, उसी सम्पूर्ण ज्ञानको शंखचूड़ने उस तुलसीको प्रदान किया। ज्ञान पाकर देवी तुलसीका मुख तथा नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठा। 'सब कुछ नश्वर है' ऐसा मानकर वह हर्षपूर्वक विहार करने लगी ॥72-77॥हे मुने! विहार करते हुए वे दोनों पति-पत्नी सुखके सागरमें निमग्न हो गये। रतिक्रीडाके लिये उत्सुक वे दोनों निर्जन स्थानमें परस्पर अंग-प्रत्यंगके स्पर्शसे मूर्च्छित-जैसे हो गये। उस समय अत्यन्त प्रसन्नचित्त उन दोनोंके सभी अंग पुलकित थे । वे दोनों एक अंगके रूपमें होकर अर्धनारीश्वरके समान प्रतीत हो रहे थे। तुलसी अपने पतिको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझती थी और राजा शंखचूड़ भी अपनी उस साध्वी प्राणेश्वरीको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझता था। समान सौन्दर्यवाले वे दोनों ही तन्द्रायुक्त दम्पती सुखपूर्वक सोये हुए थे। सुन्दर वेष धारण किये हुए वे मनोहर दम्पती सम्भोगजनित सुखके कारण अचेत पड़े थे। जब कभी वे चेतनामें आते, तब परस्पर रसमयी बातें करने लगते तथा मनोरम और दिव्य कथा कहने लगते, फिर हँसने लगते थे, इसके बाद क्षणभरमें ही श्रृंगार भावसे युक्त होकर क्रीडा करने लगते थे। इस प्रकार कामकलाके जाननेवाले वे दोनों क्रीडा-विलाससे कभी भी विरत नहीं होते थे। दोनों ही निरन्तर विजयी बने रहकर कभी क्षणभरको भी अपनेको पराजित नहीं मानते थे ॥ 78- 84 ॥