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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 10 - Skand 9, Adhyay 10

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पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन

नारदजी बोले - भूमिका दान करनेसे होनेवाले पुण्य तथा उसका हरण करनेसे होनेवाले पाप, दूसरेकी भूमि छीननेसे होनेवाले पाप, दूसरेके द्वारा खोदे गये जलहीन कुएँको बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने, अम्बुवाची दिनोंमें भूखनन करने, पृथ्वीपर वीर्य त्याग करने तथा दीपक रखनेसे जो पाप होता है, उसे मैं यत्नपूर्वक सुनना चाहता हूँ। हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! मेरे पूछनेके अतिरिक्त अन्य भी जो पृथ्वीसम्बन्धी पाप हो, उसे तथा उसके निराकरणका उपाय बतलाइये ॥ 1-3 ॥

श्रीनारायण बोले- जो मनुष्य भारतवर्षमें वितस्ति ( बित्ता) मात्र भूमि भी किसी सन्ध्योपासनासे पवित्र हुए ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है ॥ 4 ॥

जो मनुष्य किसी ब्राह्मणको सब प्रकारकी फसलोंसे सम्पन्न भूमि प्रदान करता है, वह उस भूमिमें विद्यमान धूलके कणोंकी संख्याके बराबर वर्षोंतक भगवान् विष्णुके लोकमें निवास करता है ॥ 5 ॥

जो व्यक्ति ब्राह्मणको ग्राम, भूमि और धान्यका दान करता है, उसके पुण्यसे दाता और प्रतिगृहीता दोनों व्यक्ति सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर जगदम्बाके लोकमें स्थान पाते हैं ॥ 6 ॥

जो सज्जन भूमिदानके अवसरपर दाताके | इस कर्मका अनुमोदन करता है, वह अपने मित्रों तथा सगोत्री बन्धुओंसहित वैकुण्ठलोकको प्राप्त होता है ॥ 7 ॥

जो मनुष्य किसी ब्राह्मणकी अपने अथवा दूसरेके द्वारा दी गयी आजीविकाको उससे जनता है, वह सूर्य तथा चन्द्रमाके स्थितिपर्यन्त कालसूत्र नरकमें रहता है। इस पापके प्रभावसे उस व्यक्तिके पुत्र-पौत्र आदि भूमिसे होन रहते हैं। वह लक्ष्मीरहित, पुत्रविहीन तथा दरिद्र होकर भीषण रौरवनरकमें पड़ता है ॥ 8-9 ॥जो मनुष्य गोचर भूमिको जोतकर उससे उपार्जित धान्य ब्राह्मणको देता है, वह देवताओंके दिव्य सौं वत कुम्भीपाकनरकमें निवास करता है॥ 10 ॥

जो मनुष्य गायोंके रहनेके स्थान, तड़ाग तथा मार्गको जोड़कर वहाँसे पैदा किये हुए अन्नका दान करता है, वह चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त असिपत्र नामक नरकमें पड़ा रहता है ॥ 11 ॥

जो मनुष्य किसी दूसरेके कुएँ, तड़ाग आदिमेंसे पाँच मृतिका पिण्डौको निकाले बिना ही उसमें स्नान करता है, वह नरक प्राप्त करता है और उसका स्नान भी निष्फल होता है ॥ 12 ॥

जो कामास पुरुष एकान्तमें पृथ्वीपर वीर्यका त्याग करता है, वहाँकी जमीनपर जितने धूलकण हैं, उतने वर्षोंतक वह रौरवनरकमें वास करता है ॥ 13 ॥

जो मनुष्य अम्बुवाचीकालमें भूमि खोदनेका कार्य करता है, वह कृमिदंश नामक नरकमें जाता है और वहाँपर चार युगोंतक उसकी स्थिति रहती है ॥ 14 ॥

जो मूर्ख मनुष्य किसी दूसरेके लुप्त कुएँपर अपना कुआँ तथा लुप्त बावलीपर अपनी बावली बनवाता है, उस कार्यका सारा फल उस दूसरे व्यक्तिको | मिल जाता है और वह स्वयं तप्तकुण्ड नामक नरकमें पड़ता है। वहाँपर चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त कष्ट भोगते हुए वह पड़ा रहता है ।। 15-16 ॥

जो मनुष्य दूसरेके तड़ागमें पड़ी हुई कीचड़को साफ करके स्नान करता है, उस कीचड़में जितने कण होते हैं, उतने वर्षोंतक वह ब्रह्मलोकमें निवास करता है ॥ 17 ॥

जो मूर्ख मनुष्य भूमिपतिके पितरको पिण्ड दिये बिना श्राद्ध करता है, वह अवश्य ही नरकगामी होता है ॥ 18 ॥

जो व्यक्ति भूमिपर दीपक रखता है, वह सात जन्मोंतक अन्धा रहता है और जो भूमिपर शंख रखता है, वह दूसरे जन्ममें कुष्ठरोगसे ग्रसित होता है ।। 19 ।।

जो मनुष्य मोती, माणिक्य, हीरा, सुवर्ण तथा मणि- इन पाँच रत्नोंको भूमिपर रखता है, वह सात जन्मोंतक अन्धा रहता है ॥ 20 ॥जो मनुष्य शिवलिंग भगवती शिवाकी प्रतिमा तथा शालग्रामशिला भूमिपर रखता है, वह सौ मन्वन्तरतक कृमिभक्ष नामक नरकमें वास
करता है ॥ 21 ॥ जो शंख, यन्त्र, शालग्रामशिलाका जल, पुष्प और तुलसीदलको भूमिपर रखता है; वह निश्चितरूपसे नरकमें वास करता है॥ 22 ॥

जो मन्दबुद्धि मनुष्य जपमाला, पुष्पमाला, कपूर तथा गोरोचनको भूमिपर रखता है, वह निश्चितरूपसे नरकगामी होता है ॥ 23 ॥

चन्दनकाष्ठ, रुद्राक्ष और कुशकी जड़ जमीनपर रखनेवाला मनुष्य एक मन्वन्तरपर्यन्त नरकमें वास करता है ।। 24 ।।

जो मनुष्य पुस्तक तथा यज्ञोपवीत भूमिपर रखता है, वह अगले जन्ममें विप्रयोनिमें उत्पन्न नहीं होता है ॥ 25

जो सभी वर्णोंके द्वारा पूज्य ग्रन्थियुक्त यज्ञोपवीतको
भूमिपर रखता है, वह निश्चितरूपसे इस लोकमें
ब्रह्म हत्या के समान पापका भागी होता है॥ 26 ॥
जो मनुष्य यज्ञ करके वहभूमिको दूधसे नहीं सींचता है, वह सात जन्मोंतक कष्ट भोगता हुआ तप्तभूमि नामक नरकमें निवास करता है ॥ 27 ॥

जो मनुष्य भूकम्प तथा ग्रहणके अवसरपर भूमि खोदता है, वह महापापी जन्मान्तरमें निश्चितरूपसे अंगहीन होता है ॥ 28 ॥

हे महामुने! इस धरतीपर सभी लोगोंके भवन हैं; इसलिये यह 'भूमि', कश्यपकी पुत्री होनेके कारण 'काश्यपी', स्थिररूपमें रहनेके कारण 'अचला', विश्वको धारण करनेसे 'विश्वम्भरा', अनन्त रूपोंवाली होनेके कारण 'अनन्ता' और पृथुकी कन्या होने अथवा सर्वत्र फैली रहनेके कारण 'पृथिवी' कही गयी है ll 29-30 ll

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन