जनमेजय बोले- [ हे मुने!] आपने सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशमें उत्पन्न राजाओंका जो उत्तम कथाओंसे अन्वित तथा अमृतमय चरित्र वर्णित किया, उसे मैंने सुना ॥ 1 ॥
सम्पूर्ण मन्वन्तरोंमें जिस-जिस स्थानपर तथा जिस-जिस कर्मसे एवं जिस-जिस रूपसे उन देवी जगदम्बाकी पूजा की जाती है, अब उसे मैं सुनना चाहता हूँ। (सभी फल प्रदान करनेवाली वे पूज्या देवीश्वरी जिस बीज-मन्त्रसे, जहाँ-जहाँ तथा जिस रूपमें पूजी जाती हैं, उसे सुनाइये। साथ ही भगवतीके विराट् स्वरूपका वर्णन यथार्थरूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ 2-3 ॥
हे विप्रर्षे! जिस ध्यानसे उन भगवतीके सूक्ष्म स्वरूपमें बुद्धि स्थिर हो जाय, वह सब मुझे बतलाइये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ॥ 4 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन्! सुनिये, अब मैं देवीकी उत्तम आराधनाके विषयमें कह रहा हूँ, जिसे करने अथवा सुननेसे भी मनुष्य इस लोकमें कल्याण प्राप्त कर लेता है ॥ 5 ॥
इसी प्रकार पूर्वकालमें नारदजीके द्वारा योगचर्याके प्रवर्तक भगवान् नारायणसे पूछे जानेपर उन्होंने नारदजीसे जो कहा था, वही मैं बता रहा हूँ ॥ 6 ॥
एक बार श्रीमान् नारद इस पृथ्वीपर विचरण करते हुए नारायणके आश्रमपर पहुँचे और वहाँ निश्चिन्त होकर बैठ गये। हे अनघ । तत्पश्चात् उन योगात्मा नारायणको प्रणाम करके ब्रह्माजीके पुत्र नारदने उनसे यही प्रश्न पूछा था, जो आपने मुझसे पूछा है ।। 7-8 ॥नारदजी बोले - हे देवदेव ! हे महादेव! हे पुराणपुरुषोत्तम हे जगदाधार! हे सर्वज्ञ हे श्लाघनीय। हे विपुल सद्गुणोंसे सम्पन्न! इस जगत्का जो आदितत्त्व है, उसे आप यथेच्छरूपसे मुझे बताइये। यह जगत् किससे उत्पन्न होता है, किससे इसकी रक्षा होती है, किसके द्वारा इसका संहार होता है, किस समय सभी कर्मोंका फल उदित होता है तथा किस ज्ञानके हो जानेपर इस मोहमयी मायाका नाश हो जाता है ? ।। 9-11 ॥
हे देव! किस पूजासे, किस जपसे और किस ध्यानसे अन्धकारमें सूर्योदयकी भाँति अपने हृदयकमलमें प्रकाश उत्पन्न होता है ? ॥ 12 ॥
हे देव! इन सभी प्रश्नोंका उत्तर पूर्णरूपसे बताइये, जिससे इस संसारके प्राणी अज्ञानान्धकारमय जगत्को शीघ्रतासे पार कर लें ॥ 13 ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन्!] देवर्षि नारदके इस प्रकार पूछने पर महायोगी, मुनिश्रेष्ठ तथा सनातन पुरुष भगवान् नारायणने साधुवाद देकर यह वचन कहा ।। 14 ।।
श्रीनारायण बोले- हे देवर्षिश्रेष्ठ! अब आप जगत्का उत्तम तत्त्व सुनिये, जिसे जान लेनेपर मनुष्य सांसारिक भ्रममें नहीं पड़ता ।। 15 ।।
इस जगत्का एकमात्र तत्त्व भगवती जगदम्बा ही हैं ऐसा मैं बता चुका है और ऋषियों, देवताओं, गन्धर्वों तथा अन्य मनीषियोंने भी ऐसा ही कहा है ॥ 16 ॥
तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम ) - से युक्त होनेके कारण वे भगवती ही सम्पूर्ण जगत्की रचना करती हैं, वे ही पालन करती हैं और वे ही संहार करती हैं- ऐसा कहा गया है ॥ 17 ॥
अब मैं भगवती के सिद्ध ऋषिपूजित स्वरूपका वर्णन करूँगा; जो स्मरण करनेवालोंके सभी पापोंका नाश करनेवाला, उनके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला तथा उन्हें मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ 18 ॥
ब्रह्माके पुत्र तथा शतरूपाके पति स्वायम्भुव मनु आदि मनु हैं। उन प्रतापी तथा श्रीमान् मनुको समस्त मन्वन्तरोंका अधिपति कहा जाता है ॥ 19 ॥पूर्वकालमें एक बार वे स्वायम्भुव मनु अपने पुण्यात्मा पिता प्रजापति ब्रह्माके पास भक्तिपूर्वक सेवामें संलग्न थे तब ब्रह्माजीने उन पुत्र मनुसे कहा है पुत्र ! हे पुत्र! तुम्हें भगवतीकी उत्तम आराधना करनी चाहिये हे तात उन्होंके अनुग्रहसे प्रजासृष्टिका तुम्हारा कार्य सिद्ध हो सकेगा 20-21 ॥
प्रजाओंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर महान् ऐश्वर्यशाली स्वायम्भुव मनु अपनी तपस्या जगत्को योनिरूपा भगवतीको प्रसन्न करनेमें तत्पर हो गये। उन्होंने एकाग्रचित्त होकर मायास्वरूपिणी, सर्वशक्तिमयी, सभी कारणोंकी भी कारण, देवेश्वरी आद्या भगवतीका स्तवन आरम्भ किया ।। 22-23 ।।
मनु बोले- जगत्के कारणोंकी भी कारण, नारायणके हृदयमें विराजमान तथा हाथोंमें शंख चक्र-गदा धारण करनेवाली हे देवेश्वरि! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 24 ॥
वेदमूर्तिस्वरूपिणी जगजननी, कारणस्थान स्वरूपा, तीनों वेदोंके प्रमाण जाननेवाली, समस्त देवोंद्वारा नमस्कृत कल्याणमयी, परमेश्वरी, परमभाग्यशालिनी, अनन्त मायासे सम्पन्न महान् अभ्युदयवाली, महादेवकी प्रिय आवासरूपिणी, महादेवका प्रिय करनेवाली, गोपेन्द्रकी प्रिया ज्येष्ठा महान् आनन्दस्वरूपिणी, महोत्सवा महामारीके भयका नाश करनेवाली तथा देवता आदिके द्वारा पूजित हे भगवति! आपको नमस्कार है ।। 25-27 ॥
सभी मंगलोंका भी मंगल करनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, सभी पुरुषार्थीको सिद्ध करनेवाली शरणागतजनोंकी रक्षा करनेवाली तथा तीन नेत्रोंवाली हे गौरि! हे नारायणि! आपको नमस्कार है ॥ 28 ॥
यह जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है तथा जिनसे पूर्णतया ओतप्रोत है; उन भगवतीके चैतन्यमय, अद्वितीय आदि-अन्तसे रहित तथा तेजोंके निधानभूत रूपको नमस्कार है॥ 29 ॥
जिनकी कृपादृष्टिसे ब्रह्मा सम्पूर्ण सृष्टि करते हैं, विष्णु सदा पालन करते हैं और जिनके अनुग्रहसे विश्वेश्वर शिव संहार करते हैं, उन जगदम्बाको नमस्कार है ॥ 30 ॥मधु-कैटभके द्वारा उत्पन्न किये गये भयसे व्याकुल ब्रह्माने जिनकी स्तुति करके भयंकर दैत्यरूपी भव-सागरसे मुक्ति प्राप्त की थी, (उन भगवतीको नमस्कार है ।) ॥ 31 ॥
आप ही, कीर्ति, स्मृति, कान्ति, कमला, गिरिजा, सती, दाक्षायणी, वेदगर्भा, सिद्धिदात्री तथा अभया नामसे सर्वदा प्रसिद्ध हैं। हे देवि ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ, आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी पूजा करता हूँ, आपका जप करता हूँ, आपका ध्यान करता हूँ, आपकी भावना करता हूँ, आपका दर्शन करता हूँ तथा आपका चरित्र सुनता हूँ; आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये ।। 32-33 ।।
आपके ही अनुग्रहसे ब्रह्माजी वेदके निधि, श्रीहरि लक्ष्मीके स्वामी, इन्द्र त्रिलोकीके अधिपति, वरुण जलचर जन्तुओंके श्रेष्ठ नायक, कुबेर धनके स्वामी, यमराज प्रेतोंके अधिपति, नैर्ऋत राक्षसोंक नाथ और चन्द्रमा रसमय बन गये हैं ।। 34-35 ।। हे त्रिलोकवन्द्ये! हे लोकेश्वरि! हे महामांगल्यस्वरूपिणि! आपको नमस्कार है। हे जगन्मातः ! आपको बार-बार प्रणाम है ॥ 36 ॥ श्रीनारायण बोले- हे देवर्षे! इस प्रकार स्तुति करनेपर परारूपा नारायणी भगवती दुर्गा प्रसन्न होकर ब्रह्माके पुत्र मनुसे यह वचन कहने लगीं ॥ 37 ॥
देवी बोलीं- हे राजेन्द्र मैं आपके द्वारा भक्तिपूर्वक की गयी इस स्तुति तथा आराधनासे प्रसन्न हूँ। अतः हे ब्रह्मपुत्र! आप जो वर चाहते हैं, उसे माँग लें ॥ 38 ॥
मनु बोले - [भक्तोंपर ] महान् अनुकम्पा करनेवाली हे देवि ! यदि आप मेरी भक्तिसे प्रसन्न हैं तो मेरी यही याचना है कि आपकी आज्ञासे प्रजाकी सृष्टि निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो ॥ 39 ॥
देवी बोली- हे राजेन्द्र मेरे अनुग्रहसे जाट अवश्य सम्पन्न होगी और निर्विघ्नतापूर्वक निरन्तर उसकी वृद्धि भी होती रहेगी ॥ 40 ॥
जो कोई भी मनुष्य मेरी भक्तिसे युक्त होकर आपके द्वारा की गयी इस स्तुतिका पाठ करेगा; उसकी विद्या, सन्तान सुख तथा कीर्ति बढ़ेगी तथाकान्तिका उदय होगा और धन-धान्य निरन्तर बढ़ते रहेंगे। हे राजन् ! उन मनुष्योंकी शक्ति कभी निष्फल नहीं होगी, सर्वत्र उनकी विजय होगी, उनके शत्रुओंका नाश होगा और वे सदा सुखी रहेंगे ॥ 41-42 ॥ श्रीनारायण बोले- ब्रह्माजीके पुत्र स्वायम्भुव मनुको इस प्रकारके वर देकर उन बुद्धिमान् मनुके देखते-देखते भगवती अन्तर्धान हो गयीं ॥ 43 ॥
तत्पश्चात् वर प्राप्त करके महान् प्रतापी ब्रह्मापुत्र राजा स्वायम्भुव मनुने ब्रह्मासे कहा- हे तात! आप मुझे कोई ऐसा एकान्त स्थान दीजिये, जहाँ रहकर प्रचुर प्रजाओंकी सृष्टि और यज्ञोंके द्वारा देवेश्वरकी उपासना कर सकूँ । अतः अविलम्ब आदेश दीजिये ॥ 44-45 ।।
अपने पुत्रकी यह बात सुनकर प्रजापतियोंके भी स्वामी ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा देरतक सोचने लगे कि यह कार्य कैसे सम्पन्न हो प्रजाकी सृष्टि करते हुए मेरा अनन्तकालका बहुत समय बीत गया। सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय प्रदान करनेवाली यह पृथ्वी जलके द्वारा आप्लावित हो गयी और जलमय होकर डूब गयी। अतः अब वे भगवान् आदिपुरुष मेरे सहायक बनकर मेरा यह सुचिन्तित कार्य सम्पन्न करेंगे, जिनके आदेशपर मैं आश्रित हूँ ॥ 46-48 ॥