व्यासजी बोले- [राजा जनमेजय!] राजा हरिश्चन्द्रके घरमें पुत्रका जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय सुन्दर ब्राह्मणका वेष धारण करके वरुणदेव वहाँ आ पहुँचे ॥ 1 ॥
'आपका कल्याण हो'- ऐसा कहकर उन्होंने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा- हे राजन्! मैं वरुणदेव हूँ, मेरी बात सुनिये। हे नृप आपको पुत्र हो गया है, इसलिये अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ कीजिये। हे राजन्! मेरे वरदानसे अब आपकी सन्तानहीनताका दोष समाप्त हो चुका है, अतः आपने जो बात पहले कही है, उसे सत्य कीजिये ॥ 2-3 ॥वरुणदेवकी बात सुनकर राजा चिन्तित हो उठे। कि कमलके समान मुखवाले इस नवजात पुत्रका वध कैसे करूँ अर्थात् इसे बलिपशु बनाकर यज्ञ कैसे करूँ ? किंतु स्वयं लोकपाल तथा पराक्रमी वरुणदेव विप्रवेषमें आये हुए हैं। अपने कल्याणकी इच्छा | रखनेवाले व्यक्तिको देवताओंका अनादर कभी नहीं करना चाहिये। साथ ही, पुत्रस्नेहको दूर करना भी तो प्राणियोंके लिये सर्वदा अत्यन्त दुष्कर कार्य है। अतः अब मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मुझे सन्तानजनित सुख प्राप्त हो ॥ 4-6 ॥
तब धैर्य धारण करके राजा हरिश्चन्द्रने वरुणदेवको प्रणामकर उनकी पूजा की और वे विनम्रतापूर्वक मधुर तथा युक्तियुक्त वचन कहने लगे ॥ 7 ॥
राजा बोले- हे देवदेव! मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा । हे करुणानिधान! मैं वेदोक्त विधि विधानसे प्रचुर दक्षिणावाला यज्ञ करूँगा, किंतु अभी यज्ञ न करनेका कारण यह है कि पुत्र उत्पन्न होनेके दस दिन बाद पिता शुद्ध होकर कर्मानुष्ठानके योग्य होता है और एक महीनेमें माता शुद्ध होती है। अतः जबतक पति-पत्नी दोनों शुद्ध नहीं हो जाते, तबतक यज्ञ कैसे होगा ? वरुणदेव! आप तो सर्वज्ञ हैं और सनातन धर्मको भलीभाँति जानते हैं। हे वारीश! आप मुझपर दया कीजिये, हे परमेश्वर ! मुझे क्षमा कीजिये ॥ 8-10 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रके यह कहनेपर वरुणदेवने उनसे कहा- हे पृथ्वीपते ! आपका कल्याण हो; अब मैं जा रहा हूँ और आप अपने कार्य सम्पन्न करें। नृपश्रेष्ठ! अब मैं एक मासके अन्तमें आऊँगा, तब आप अपने पुत्रका जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार करनेके पश्चात् भलीभाँति मेरा यज्ञ कीजियेगा ॥ 11-12 ॥
जलाधिपति वरुणदेव मधुर वाणीमें राजा . हरिश्चन्द्रसे ऐसा कहकर जब चले गये तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वरुणदेवके चले जानेपर राजाने वेदज्ञ ब्राह्मणोंको घट-जैसे बड़े-बड़े थनवाली तथा स्वर्णाभूषणोंसे अलंकृत करोड़ों गायों और तिलके पर्वतोंका दान किया ॥ 13-14 ॥अपने पुत्रका मुख देखकर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए और उन्होंने विधिपूर्वक उसका नाम 'रोहित' रखा ॥ 15 ॥
तत्पश्चात् एक मास बीतनेपर वरुणदेव ब्राह्मणका वेष धारणकर 'शीघ्र यज्ञ करो'- ऐसा बार-बार कहते हुए पुनः राजाके घर आये ॥ 16 ॥
वरुणदेवको देखकर राजा हरिश्चन्द्र शोकसागरमें गये। उन्हें प्रणाम तथा उनका अतिथिसत्कार डूब करके राजाने दोनों हाथ जोड़कर कहा- हे देव! मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि आप मेरे यहाँ पधारे हुए हैं। हे प्रभो! आपने आज मेरे भवनको पवित्र कर दिया है। है बारीश में विधिपूर्वक आपका अभिलषित यज्ञ अवश्य करूंगा। वेदवेत्ताओंने कहा है कि दन्तविहीन पशु यज्ञके लिये श्रेष्ठ नहीं होता, अतः इस पुत्रके दाँत निकल आनेके बाद मैं आपका महायज्ञ करूँगा ॥ 17- 19 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् राजा हरिश्चन्द्रके ऐसा कहनेपर वरुणदेव 'वैसा ही हो'- यह कहकर वहाँसे लौट गये। इधर, राजा हरिश्चन्द्र आनन्दित होकर गृहस्थाश्रममें रहने लगे ॥ 20 ॥
उसके बाद बालकको दाँत निकल आनेकी बात जानकर वरुणदेव ब्राह्मणका रूप धारणकर 'अब मेरा कार्य कर दो'- ऐसा बोलते हुए राजाके महलमें पुनः पहुँचे ।। 21 ।।
ब्राह्मणके वेषमें जलाधिनाथ वरुणको आया देखकर राजाने उन्हें प्रणाम किया और आसन, अर्घ्य, पाद्य आदिके द्वारा आदरपूर्वक उनकी पूजा की। तदनन्तर राजाने उनकी स्तुति करके विनम्रतापूर्वक सिर झुकाकर कहा-'मैं प्रचुर दान-दक्षिणाके साथ विधिपूर्वक आपका यह करूँगा; किंतु अभी तो इस बालकका चूडाकर्म संस्कार भी नहीं हुआ है। मैंने वृद्धजनोंके मुखसे सुना है कि गर्भकालीन केशवाला बालक यज्ञके लिये पशु बनानेके योग्य नहीं माना गया है। हे जलेश्वर! आप सनातन विधि तो जानते ही हैं, अतः चूडाकरणतककी अवधिके लिये मुझे क्षमा कीजिये। मैं इस बालकके मुण्डन संस्कारके | पश्चात् आपका यज्ञ अवश्य करूँगा ॥ 22-25 ॥तब राजाका यह वचन सुनकर वरुणदेवने उनसे कहा—हे राजन्! आप बार-बार यही कहते हुए मुझे धोखा दे रहे हैं ॥ 26 ॥
सम्पूर्ण हे राजन् ! इस समय आपके पास यज्ञकी: सामग्री तो विद्यमान है, किंतु पुत्रस्नेहमें बँधे होनेके कारण आप मुझे इस बार भी धोखा दे रहे हैं ॥ 27 ॥
अब इसका मुण्डन संस्कार हो जानेके बाद भी यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे, तो मैं कोपाविष्ट होकर | आपको भीषण शाप दे दूँगा। हे राजेन्द्र ! हे मानद। आज तो मैं आपकी बात मानकर चला जा रहा हूँ, किंतु हे इक्ष्वाकुवंशज ! आप अपनी बात असत्य मत कीजियेगा ।। 28-29 ॥
ऐसा कहकर वरुणदेव राजाके भवनसे तुरंत चले गये। तब राजा हरिश्चन्द्र भी अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने राजमहलमें आनन्द करने लगे ॥ 30 ॥
इसके बाद जब चूडाकरणके समय महान् उत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय वरुणदेव | शीघ्रतापूर्वक राजाके महलमें पुनः आ पहुँचे। महारानी शैव्या पुत्रको अपनी गोदमें लेकर राजाके पासमें बैठी थीं और ज्यों ही मुण्डनका कार्य आरम्भ हुआ, उसी समय साक्षात् अग्निके समान तेजवाले विप्ररूपधारी श्रीमान् वरुणदेव 'यज्ञकर्म करो' - ऐसा स्पष्ट वचन बोलते हुए राजाके समीप पहुँच गये ॥ 31-33 ॥ उन्हें देखकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत व्याकुल हो
गये। राजाने डरते हुए उन्हें नमस्कार किया और वे दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़े हो गये ॥ 34 ॥ तत्पश्चात् वरुणदेवकी विधिपूर्वक पूजा करके
विनयशील राजा हरिश्चन्द्रने उनसे कहा- हे स्वामिन्! मैं आज ही विधिपूर्वक आपका यज्ञकार्य करूँगा, किंतु हे विभो ! इस सम्बन्धमें मुझे आपसे कुछ कहना है, आप एकाग्रचित्त होकर उसे सुनें। हे स्वामिन्! मैं आपके समक्ष उसे अब कह रहा हूँ, यदि आप उचित समझें तो स्वीकार कर लें ॥ 35-36 ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – ये तीनों वर्ण संस्कार-सम्पन्न हो जानेके बाद ही द्विजाति कहलाते हैं, अन्यथा ये शूद्र रहते हैं—ऐसा वेदवेत्ताओंने कहा | है; इसलिये मेरा यह पुत्र अभी शूद्रके समान है। कोईबालक उपनयन संस्कारसे सम्पन्न हो जानेके पश्चात् ही यह क्रियाके योग्य होता है-ऐसा निर्णय वेदोंमें उल्लिखित है। क्षत्रियोंका उपनयन संस्कार ग्यारहवें वर्ष, ब्राह्मणोंका आठवें वर्ष और वैश्योंका बारहवें वर्षमें हो जाना बताया गया है ।। 37-39 ॥
हे देवेश ! यदि आप मुझ दीन सेवकपर दया करें तो मैं इसका उपनयनसंस्कार करनेके पश्चात् इसे यज्ञ-पशु बनाकर आपका श्रेष्ठ यज्ञ करूँ ॥ 40 ॥
सभी शास्त्रोंके विद्वान तथा धर्मके ज्ञाता है विभो ! आप लोकपाल हैं, यदि आप मेरी बात सत्य मानते हो, तो अपने भवनको लौट जाइये 41 ।।
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर दयालु वरुणदेव 'ठीक है'-ऐसा कहकर वहाँसे तुरंत चले गये और राजा प्रसन्न मुखमण्डलवाले हो गये ॥ 42 ॥
'वरुणदेवके चले जानेपर राजा हरिश्चन्द्र परम आनन्दित हुए। इस प्रकार पुत्र सुख प्राप्त करके राजाको अपार हर्ष प्राप्त हुआ ॥ 43 ॥
तदनन्तर राजा हरिश्चन्द्र अपने राज-कार्यमें तत्पर हो गये। इस प्रकार समय बीतनेके साथ उनका पुत्र दस वर्षका हो गया ॥ 44 ॥
तब राजाने श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सचिवोंकी सम्मतिके अनुसार अपने विभवके अनुरूप राजकुमारके उपनयन संस्कारकी सामग्री एकत्र की ।। 45 ।।
पुत्रका ग्यारहवाँ वर्ष लगते ही राजाने व्रतबन्धके विधान के अनुसार विधिवत् कार्य आरम्भ किया, किंतु उनके मनमें चिन्ताके कारण बड़ी उद्विग्नता थी। जब राजकुमारका यज्ञोपवीत हो गया तथा इससे सम्बन्धित अन्य कार्य हो रहे थे, उसी समय वरुणदेव ब्राह्मणका वेष धारण करके वहाँ आ पहुँचे ।। 46-47 ॥
उन्हें देखते ही राजा हरिश्चन्द्र तुरंत प्रणामकर उनके सामने खड़े हो गये और दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक सुरश्रेष्ठ वरुणदेवसे बोले-हे देव! अब यज्ञोपवीत हो जानेके बाद मेरा पुत्र यज्ञपशुके योग्य हो गया है और अब आपकी कृपासे मेरा निःसन्तान रहनेसे होनेवाली लोकनिन्दासे उत्पन्न शोक भी दूर हो चुका है ॥ 48-49 ॥अब मैं चाहता हूँ कि प्रचुर दक्षिणावाला आपका श्रेष्ठ यज्ञ उपयुक्त अवसरपर कर डालें। हे धर्मज्ञ ! आज मैं आपसे सत्य बात कह रहा | उसे सुन लीजिये। इस बालकके समावर्तन-संस्कारके पश्चात् मैं आपका अभिलषित यज्ञ करूंगा, मेरे | ऊपर दया करके आप तबतकके लिये मुझे क्षमा करें ।। 50-51 ॥
वरुण बोले- हे राजन्। हे महामते। अत्यधिक पुत्र-प्रेममें बँधे होनेके कारण आप बार-बार कोई-न-कोई युक्तिसंगत बुद्धिका प्रयोग करके मुझे धोखा देते चले आ रहे हैं। हे महाराज ! आपकी बात मानकर आज तो मैं बिना कुछ कहे चला जा रहा हूँ, किंतु समावर्तन-कर्मके समय पुनः आऊँगा ॥ 52-53 ॥
हे राजा जनमेजय ! राजा हरिश्चन्द्रसे यह कहकर तथा उनसे विदा लेकर वरुणदेव चले गये और राजा हर्षित होकर आगेका काम करने लगे 54 परम प्रतिभासम्पन्न राजकुमार (रोहित) बार बार वरुणदेवको आते देखकर और यज्ञ सम्बन्धी प्रतिज्ञा जानकर चिन्तित हो उठे ॥ 55 ॥
उन्होंने राजाके शोकका कारण इधर-उधर लोगों से पूछा हे आयुष्मान् जनमेजय। वरुणदेवके यज्ञमें होनेवाले अपने वधकी बात जानकर राजकुमारने भाग जानेका निश्चय किया। तदनन्तर मन्त्रिकुमारोंसे परामर्श करनेके बाद दृढ़ निश्चय करके उस नगरसे निकलकर वे वनकी ओर चल पड़े ॥ 56-57 ॥
पुत्रके चले जानेपर राजा बहुत दुःखी हुए और उन्होंने राजकुमारको खोजने के उद्देश्यसे अपने दूतको भेजा ॥ 58 ॥
इस प्रकार कुछ समय बीतनेके पश्चात् वे वरुणदेव शोक संतप्त राजासे 'मेरा यज्ञ करो'- ऐसा बोलते हुए उनके घर पहुँचे ॥ 59 ॥
राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा- हे देवदेव! अब मैं क्या करूँ? भयसे व्याकुल होकर मेरा पुत्र न जाने कहाँ चला गया है ? ॥ 60 ॥हे वरुणदेव! मैंने अपने दूतोंसे पर्वतकी कन्दराओं तथा मुनियोंके आश्रमोंमें उसे सर्वत्र खोजवाया, किंतु वह कहीं नहीं मिला । हे महाराज! पुत्रके चले जानेपर अब आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ? हे सर्वज्ञ ! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, इसमें हर प्रकारसे भाग्यका ही दोष है ॥ 61-62 ॥
व्यासजी बोले- हे जनमेजय ! राजाकी यह बात सुनकर वरुणदेव अत्यन्त कुपित हुए। राजाके द्वारा बार-बार धोखा दिये जानेके कारण उन्होंने क्रोधपूर्वक शाप दे दिया- 'हे राजन्! आपने तरह-तरहकी बातोंसे मुझे सदा धोखा दिया है, इसलिये अत्यन्त भयंकर जलोदर रोग आपको पीड़ित करे' ।। 63-64 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब वरुणदेवके कुपित होकर इस प्रकारका शाप देनेसे राजा हरिश्चन्द्र कष्टदायक जलोदर रोगसे ग्रस्त हो गये ॥ 65 ॥
इस प्रकार राजाको शाप देकर पाश धारण करनेवाले वरुणदेव अपने लोकको चले गये और राजा हरिश्चन्द्र उस महाव्याधिसे ग्रस्त होकर महान् कष्टमें पड़ गये ॥ 66 ॥