व्यासजी बोले- [हे राजन्!] इस प्रकार तीर्थके कृत्य सम्पन्न करते हुए हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लादको अपने समक्ष एक विशाल छायासम्पन्न वटवृक्ष दिखायी पड़ा ॥ 1 ॥
वहाँपर प्रह्लादने गीधोंके पंखोंसे सुसज्जित, नुकीले तथा शिलापर घर्षित करके अत्यन्त दीप्त एवं उज्ज्वल बनाये गये अनेक प्रकारके वाण देखे ॥ 2 ॥
उन्हें देखकर प्रह्लादने मनमें सोचा कि इस परम पवित्र तीर्थमें ऋषियोंके पुण्यमय आश्रममें ये बाण किसके हैं ? ॥ 3 ॥
इस प्रकार चिन्तन करते हुए प्रह्लादने कृष्ण मृगचर्म धारण किये हुए तथा सिरपर विशाल जटाओंसे सुशोभित धर्मपुत्र नर-नारायण मुनियोंको देखा ॥ 4 ॥
उनके आगे धनुर्वेदोक लक्षणोंसे सम्पन्न चमकीले शार्ङ्ग तथा आजगव नामक दो धनुष तथा दो अक्षय तरकस रखे हुए थे ॥ 5 ॥उन महाभाग धर्मपुत्र नर-नारायण ऋषियोंको | उस समय ध्यानावस्थित देखकर क्रोधसे लाल आँखें किये हुए दैत्याधिपति असुररक्षक प्रह्लादने उनसे कहा- आप दोनोंने धर्मको नष्ट करनेवाला यह कैसा पाखण्ड कर रखा है ? ।। 6-7 ।।
इस प्रकारकी घोर तपस्या तथा धनुष धारण करना - ऐसा तो इस संसारमें न कभी सुना गया और न देखा ही गया ॥ 8 ॥
ये तो परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं। कलियुगके लिये प्रिय यह विरोधभाव भला सत्ययुगमें किस प्रकार उचित है ? ब्राह्मणके लिये तो तपश्चरण ही उचित है, उन्हें धनुष धारण करनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ 9 ॥
कहाँ तो मस्तक पर जटा धारण करना और कहाँ यह तरकस रखना - ये दोनों बातें आडम्बरमात्र हैं। दिव्य भावनावाले आप दोनोंके लिये धर्मका आचरण ही उचित है ॥ 10 ॥
व्यासजी बोले- हे भारत! प्रह्लादका यह वचन सुनकर मुनिवर नरने कहा- हे दैत्येन्द्र हम दोनोंकी तपस्याके विषयमें आप यह व्यर्थ चिन्ता क्यों कर रहे हैं? ॥11॥
सामर्थ्यसम्पन्न हो जानेपर व्यक्ति जो कुछ करता है, उसका वह सब कुछ पूर्ण हो जाता है। है मन्दबुद्धि ! हम इन दोनों प्रकारके कार्योंको [एक साथ] करनेमें समर्थ हैं; इसके लिये हम लोकमें प्रसिद्ध हैं ॥ 12 ॥
युद्ध तथा तपस्या दोनोंमें हम समान रूपसे समर्थ हैं। फिर इस विषयमें आप पूछकर क्या करेंगे ? आप इच्छानुसार अपने रास्ते चले जाइये, यहाँ व्यर्थकी बात क्यों कर रहे हैं ? ॥ 13 ॥
मोहग्रस्त होनेके कारण आप अत्यन्त कठिनतासे प्राप्त किये जानेवाले ब्रह्मतेजको नहीं जानते। सुखकी कामना करनेवाले प्राणियोंको ब्राह्मणोंसे बहस नहीं करनी चाहिये ll 14 ll
प्रह्लाद बोले- आप दोनों तपस्वी मन्द बुद्धिवाले हैं और व्यर्थ ही अहंकारके वशवर्ती हो गये हैं। धर्मसेतुका प्रवर्तन करनेवाले मुझ दैत्येन्द्र प्रह्लादके रहतेइस पवित्र तीर्थमें इस प्रकारका अधर्मपूर्ण आचरण उचित नहीं है। हे तपोधन! आपमें कितनी शक्ति है, इसे युद्धमें अभी प्रदर्शित कीजिये ॥ 15-16 ॥
व्यासजी बोले- तब प्रह्लादका वचन सुनकर ऋषि नरने उनसे कहा- यदि आपकी ऐसी ही धारणा है तो मेरे साथ इसी समय युद्ध कर लीजिये। हे असुराधम! आज मैं तुम्हारा सिर विदीर्ण कर डालूँगा (इसके बाद युद्ध करनेकी तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होगी ) ॥ 173 ॥
व्यासजी बोले- तब ऋषि नरका वचन सुनकर दैत्यपति प्रह्लाद कुपित हो उठे। बलशाली उन प्रह्लादने प्रतिज्ञा की कि जिस किसी भी उपायसे मैं इन दोनों जितेन्द्रिय तथा परम तपस्वी नर-नारायण ऋषियोंको जीतकर रहूँगा ।। 18-193 ॥
व्यासजी बोले- ऐसा वचन बोलकर दैत्य प्रह्लादने धनुष उठाकर और शीघ्रतापूर्वक उसे खींचकर प्रत्यंचाकी टंकार की हे राजन् मुनि नरने भी धनुष लेकर शिलापर घिसकर तेज किये हुए अनेक तीक्ष्ण बाण प्रह्लादके ऊपर क्रोधपूर्वक छोड़े । 20-22 ॥ दैत्यराज प्रह्लादने अपने सुनहले पंखोंवाले बाणोंसे शीघ्र ही उन बाणोंको आते ही काट डाला। तब नर अपने द्वारा छोड़े गये बाणोंको प्रहादद्वारा छिन्न किया गया देखकर अत्यन्त कोपाविष्ट हो शीघ्रतासे उनपर अन्य बाणोंसे प्रहार करने लगे ॥ 23 ॥
दैत्यपति प्रह्लादने उन बाणोंको भी अपने द्रुतगामी बाणोंसे काटकर उन मुनिराज नरके वक्षःस्थलपर प्रहार किया। नरने भी क्रुद्ध होकर अपने तीव्रगामी पाँच बाणोंसे दैत्येन्द्र प्रह्लादके बाहुदेशपर प्रहार किया ॥ 24 ॥
इन्द्रसहित सभी देवगण उन दोनोंका बुद्ध देखनेके लिये विमानोंमें बैठकर आकाशमण्डलमें स्थित हो गये। वे कभी समरांगणमें विराजमान नरके पराक्रमकी प्रशंसा करते थे और फिर कभी दैत्यपति प्रह्लादके पराक्रमकी प्रशंसा करने लगते थे।॥ 25 ॥
धनुष धारण किये हुए दैत्यराज प्रह्लाद इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे थे, मानो मेघ जल बरसा रहे हों। [ ऋषि नर भी अपना ] अप्रतिम शार्ङ्ग धनुष लेकर तीक्ष्ण तथा सुनहले पंखवाले बाण छोड़ रहे थे ॥ 26 ॥हे राजन् इस प्रकार एक-दूसरेको जीतने के इच्छुक उन ऋषि नर तथा दैत्यराज प्रह्लादके बीच भीषण युद्ध होने लगा। आकाशमार्ग में स्थित वे [देवतागण] प्रसन्नचित्त होकर उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ 27 ॥
अचानक प्रह्लाद कुपित हो उठे और उन्होंने अति तीव्रगामी बाण ऋषि नारायणपर छोड़े। धर्मपुत्र नारायणने शीघ्र ही उन बाणोंको अपने धनुषसे छोड़े गये अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंसे खण्ड-खण्ड कर डाला ll 28 ll दैत्यराज प्रह्लाद समरांगणमें डटकर खड़े अतीव पराक्रमी तथा सनातन धर्मपुत्र नारायणपर अपने अति तोक्ष्ण बाण बरसाने लगे। नारायणने भी सानपर चढ़ाकर तेज किये गये अपने वेगपूर्वक छोड़े गये | बाणोंके द्वारा सम्मुख खड़े दैत्यपति प्रह्लादको अत्यन्त भीषण चोट पहुँचायी। उस युद्धका अवलोकन करनेके इच्छुक देवताओं तथा दैत्योंका एक विशाल समूह अपने-अपने पक्षका जयघोष करते हुए आकाशमें एकत्र हो गया ।। 29-30ई ॥
दोनों पक्षोंकी बाणवर्षासे आकाशके आच्छादित हो जानेपर उस समय इतना घना अन्धकार हो गया कि दिन भी रातके समान प्रतीत होने लगा। इससे अति आश्चर्यचकित होकर देवता तथा दैत्य परस्पर कहने लगे कि यह अत्यन्त भयावह संग्राम हो रहा है। ऐसा भीषण युद्ध तो पहले कभी नहीं देखा गया। बड़े-बड़े देवर्षि, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, विद्याधर तथा चारणगण इस युद्धको देखकर अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये ।। 31-333 ॥
उस युद्धका अवलोकन करनेके लिये मुनि नारद तथा पर्वत भी आये हुए थे। नारदमुनिने पर्वतसे कहा- ऐसा घोर संग्राम पहले नहीं हुआ था; तारकासुरयुद्ध, वृत्रासुरका युद्ध यहाँतक कि मधु कैटभका युद्ध भी वैसा नहीं हुआ था, जैसा कि इस समय नारायणके द्वारा किया गया। प्रह्लाद अत्यन्त वीर हैं जो कि वे अद्भुत कर्माले सिद्धिसम्पन्न नारायण के साथ यह बराबरीका युद्ध कर रहे हैं ।। 34-363 ।। व्यासजी बोले- इस प्रकार प्रतिदिन तथा प्रतिरात्रि बार-बार युद्ध करते हुए वे दोनों दैत्य तथातपस्वी घोर संग्राममें तत्पर रहे नारायणने एक बाणसे प्रह्लादका धनुष काट दिया। तब प्रह्लादने तत्काल दूसरा धनुष ले लिया। नारायणने हस्तकौशल दिखाते हुए पुनः बड़ी शीघ्रतासे दूसरा बाण चलाकर उस धनुषको भी बीचोबीचसे काट डाला। इस प्रकार नारायण बार-बार धनुष काटते जाते थे और प्रह्लाद दूसरा धनुष लेते जाते थे। अन्तमें नारायणने कुपित होकर अपने बाणोंसे उसके धनुषको शीघ्रतासे पुनः काट दिया। उस धनुषके भी कट जानेपर दैत्यराज प्रह्लादने अपना परिध उठा लिया और अत्यन्त क्रोधित होकर बड़ी फुर्तीसे धर्मपुत्र नारायणकी भुजाओंपर प्रहार किया ।। 37-413 ॥
प्रतापी नारायणने अपनी ओर आते हुए उस परिषको नौ बाणोंसे काट दिया और दस बाणोंसे प्रह्लादपर चोट की॥ 423॥
तत्पश्चात् दैत्येन्द्र प्रह्लादने पूर्णतः लोहमयी सुदृढ़ गदा उठाकर क्रोधपूर्वक नारायणमुनिकी जोधपर शीघ्रतापूर्वक प्रहार किया ॥ 433 ॥
उस गदा - प्रहारसे भी धर्मपुत्र नारायण पर्वतकी भाँति अविचल भावसे स्थिरचित्त होकर खड़े रहे। तदनन्तर परम पराक्रमी भगवान् नारायणने बड़ी तेजीसे अनेक बाण छोड़े और दैत्यपति प्रह्लादको सुदृढ़ गदाको खण्ड-खण्ड कर दिया। आकाशमें स्थित होकर युद्ध देखनेवाले बड़े आश्चर्यमें पड़ गये ।। 44-45 3 ।।
तत्पश्चात् शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रह्लादने शक्ति उठाकर कुपित हो बलपूर्वक बड़ी तेजीसे नारायणके वक्षःस्थलपर प्रहार किया। तब सामने आती हुई उस शक्तिको देखकर नारायणने एक ही वाणसे बड़ी आसानीसे उसके सात खण्ड कर दिये और साथ ही सात बाणोंसे प्रह्लादपर प्रहार किया ॥ 46-473 ॥
हे राजन्! इस प्रकार सबको विस्मित कर | देनेवाला वह युद्ध एक सौ दिव्य वर्षतक चलता रहा। तदनन्तर चार भुजाओंसे शोभा पानेवाले पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु शीघ्रतापूर्वक उस आश्रममें आ गये। तत्पश्चात् हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले वे चतुर्भुज लक्ष्मीपति विष्णु प्रह्लादके आश्रमपर पहुँचे ।। 48-50 ॥वहाँ उन्हें आये हुए देखकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लाद बड़ी श्रद्धाके साथ उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ 51 ॥
प्रह्लाद बोले- हे देवदेव ! हे जगन्नाथ! हे भक्तवत्सल ! हे माधव! मैं इन दोनों तपस्वियोंको युद्धमें क्यों नहीं जीत सका? हे देव! मैंने देवताओंके पूरे सौ वर्षतक इनके साथ युद्ध किया, फिर भी ये जीते न जा सके- मुझे यह महान् आश्चर्य है ! ॥ 523 ॥
विष्णु बोले- हे आर्य! ये दोनों सिद्ध पुरुष हैं और मेरे अंशसे आविर्भूत हैं; अतः [इन्हें न जीत पानेमें] आश्चर्य क्या! नर-नारायण नामसे प्रसिद्ध इन जितात्मा तपस्वियोंको तुम नहीं जीत सकते। अतः हे राजन् ! तुम अपने वितललोकको चले जाओ और वहाँ मेरी अविचल भक्ति करो। हे महामते ! तुम इन दोनों तपस्वियोंसे मत करो ॥ 53-543 ॥
व्यासजी बोले- भगवान् विष्णुसे ऐसी आज्ञा पाकर दैत्यपति प्रह्लाद असुरोंके साथ वहाँसे प्रस्थित हो गये। तदनन्तर नर-नारायण पुनः तपस्यामें संलग्न हो गये ।। 55-56 ॥