श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] यह जम्बूद्वीप जैसा और जितने परिमाणवाला बताया गया है, वह उतने ही परिमाणवाले क्षारसमुद्रसे चारों ओरसे उसी प्रकार घिरा है, जैसे मेरुपर्वत जम्बुद्वीपसे घिरा हुआ है। क्षारसमुद्र भी अपनेसे दूने परिमाणवाले प्लक्षद्वीपसे उसी प्रकार घिरा हुआ है, जिस प्रकार कोई परिखा (खाई) बाहरके उपवनसे घिरी रहती है। जम्बूद्वीपमें | जितना बड़ा जामुनका वृक्ष है, उतने ही विस्तारवाला प्लक्ष (पाकड़) का वृक्ष उस प्लक्षद्वीपमें है, इसीसे वह प्लक्षद्वीप नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ 13॥
सुवर्णमय अग्निदेव वहीं पर निश्चितरूपसे प्रतिष्ठित हैं सात जिल्ह्याओंवाले ये अग्निदेव प्रियव्रतके पुत्र कहे गये हैं। 'इध्मजिह्न' नामवाले ये अग्निदेव उस द्वीपके अधिपति थे, जिन्होंने अपने द्वीपको सात वर्षोंमें विभक्तकर अपने पुत्रोंको सौंप दिया। तदनन्तर वे ऐश्वर्यशाली इमजिद्द आत्मज्ञानियोंके द्वारा मान्य योगसाधनमें तत्पर हो गये। उसी आत्मयोगके साधनसे उन्होंने भगवान्का सांनिध्य प्राप्त किया ॥ 4-6॥
शिव, यवस, भद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय-प्लक्षद्वीपके ये सात वर्ष उन पुत्रोंके नामोंसे विख्यात हैं। उन वर्षोंमें सात नदियाँ तथा सात पर्वत कहे गये हैं अरुणा, नृम्णा, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभातिका, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा-इन नामोंसे नदियाँ तथा मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल-इन नामोंसे प्लक्षद्वीपके पर्वत प्रसिद्ध हैं ॥ 7-10 ॥
प्लक्षद्वीपकी नदियोंके जलके केवल दर्शन, स्पर्श आदिसे वहाँकी प्रजाका सम्पूर्ण पाप समाप्त हो जाता है और उनका अज्ञानान्धकार मिट जाता है ॥ 11 ॥उस प्लक्षद्वीपमें हंस, पतंग, ऊर्ध्वायन और सत्यांग नामवाले चार वर्णके लोग निवास करते. हैं ॥ 12 ॥
उनकी आयु एक हजार वर्षकी होती है और वे देखनेमें विलक्षण प्रतीत होते हैं। वे तीनों वेदोंमें बताये गये विधानसे स्वर्गके द्वारस्वरूप भगवान् | सूर्यकी इस प्रकार उपासना करते हैं- जो सत्य, ऋत, वेद तथा सत्कर्मके अधिष्ठाता हैं; अमृत और मृत्यु जिनके विग्रह हैं, हम उन शाश्वत विष्णुरूप भगवान् सूर्यकी शरण लेते हैं ।। 13-14 ।।
हे नारद! प्लक्ष आदि सभी पाँचों द्वीपोंमें वहाँके सभी प्राणियोंमें आयु इन्द्रिय, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिकबल, बुद्धि और पराक्रम- ये सब स्वाभाविक रूपसे सिद्ध रहते हैं॥ 153 ॥
सभी सरिताओंका पति इक्षुरसका समुद्र प्लक्षद्वीपसे भी बड़ा है। वह सम्पूर्ण प्लक्षद्वीपको सभी ओरसे घेरकर स्थित है। 163 ।।
इस प्लक्षद्वीप के बाद इससे भी दूने विस्तारवाला शाल्मल नामक द्वीप है, जो अपने ही विस्तारवाले सुरोद नामक समुद्रसे घिरा हुआ है। वहाँपर एक शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है, जो [प्लक्षद्वीपमें स्थित] 'पाकर' के वृक्षके विस्तारवाला कहा गया है ।। 17-18 ।।
वह शाल्मलीद्वीप पक्षियोंके स्वामी महात्मा गरुडका निवासस्थान है। महाराज प्रियव्रतके ही पुत्र | यज्ञबाहु उस द्वीपके शासक हुए। उन्होंने अपने सात पुत्रोंमें पृथ्वीको [विभक्त करके ] प्रदान कर दिया है। अब उन वर्षोंके जो नाम बताये गये हैं; उन्हें सुनिये - सुरोचन, सौमनस्य, रमण, देववर्षक, पारिभद्र, आप्यायन और विज्ञात ॥। 19-21 ॥
उन वर्षोंमें सात पर्वत और सात ही नदियाँ कही गयी हैं। सरस, शतश्रृंग, वामदेव, कन्दक, कुमुद, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति-ये सात पर्वत हैं और अब नदियोंके नाम बताये जाते हैं; अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका—ये नदियाँ बतायी गयी हैं । 22-24 ॥उन वर्षोंमें निवास करनेवाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषुन्धर नामक चार वर्णोंके सभी पुरुष साक्षात् वेदस्वरूप ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् चन्द्रमाकी इस प्रकार उपासना करते हैं-अपनी किरणोंसे पितरोंके लिये कृष्ण तथा देवताओंके लिये शुक्लमार्गका विभाजन करनेवाले और सम्पूर्ण प्रजाओंके राजा भगवान् सोम प्रसन्न हों ॥। 25-263 ll
इसी प्रकार सुरोदकी अपेक्षा दूने विस्तारवाला कुशद्वीप बताया गया है। यह भी अपने ही समान विस्तारवाले घृतोद नामक समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें कुशोंका एक महान् पुंज प्रकाशित होता रहता है, इसीसे इस द्वीपको कुशद्वीप कहा गया है। प्रज्वलित होता हुआ यह अपनी कोमल शिखाओंकी कान्तिसे सभी दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वहाँ प्रतिष्ठित है ।। 27-283 ॥
उस कुशद्वीपके अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज हिरण्यरेताने उस द्वीपको अपने सात पुत्रोंमें सात भागों में विभाजित कर दिया। वसु, वसुदान, दृढरुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और नामदेव-ये उनके नाम थे ।। 29-303 ॥
उनके वर्षोंमें उनकी सीमा निर्धारित करनेवाले सात ही श्रेष्ठ पर्वत कहे गये हैं और सात ही नदियाँ भी हैं। उनके नाम सुनिये - चक्र, चतुःश्रृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविड ये सात पर्वत हैं और रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता तथा मन्दमालिका ये नदियाँ हैं, जिनके जलमें कुशद्वीपके निवासी स्नान करते हैं। वे सब कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक-इन नामोंसे चार वर्णोंवाले कहे हैं। श्रेष्ठ देवताओंके सदृश तेजस्वी तथा सर्वज्ञ वहाँके सभी लोग अपने यज्ञ आदि कुशलकमद्वारा अग्निस्वरूप उन भगवान् श्रीहरिकी उपासना करते हैं ।। 31-36 ॥उस द्वीपमें निवास करनेवाले सभी पुरुष अग्निदेवकी इस प्रकार स्तुति करते हैं- 'हे जातवेद ! आप परब्रह्मको साक्षात् हवि पहुँचानेवाले हैं। अतः भगवान्के अंगभूत देवताओंके यजनद्वारा आप उन परम पुरुषका ही यजन करें' ॥ 37 ॥