व्यासजी बोले- उस देवीने चिक्षुराख्य तथा ताम्रका वध कर दिया - यह सुनकर महिषासुरको बड़ा विस्मय हुआ। अब उसने विशाल सेनासे युक्त, शस्त्रास्त्र लिये हुए तथा कवच धारण किये हुए असिलोमा, विडालाख्य आदि प्रमुख युद्धोन्मत्त तथा महाबली दैत्योंको भगवतीका वध करनेके लिये भेजा ॥ 1-2 ॥
वहाँपर उन्होंने सिंहके ऊपर विराजमान, अठारह भुजाओंसे सुशोभित, खड्ग तथा ढाल धारण की हुई दिव्यस्वरूपवाली भगवतीको देखा ॥ 3 ॥
तब असिलोमा दैत्योंके वधके लिये उद्यत देवीके पास जाकर विनयावनत होकर शान्तिपूर्वक उनसे हँसते हुए कहने लगा- ll 4 ॥
असिलोमा बोला- हे देवि! सच्ची बात बताइये, आप यहाँ किस प्रयोजनसे आयी हैं? हे सुन्दरि ! इन निरपराध दैत्योंको आप क्यों मार रही हैं ? इसका कारण बताइये। मैं अभी आपके साथ सन्धि करनेको तैयार हूँ। हे वरारोहे! सुवर्ण, मणि, रत्न और अच्छे-अच्छे पात्र जो भी आप चाहती हैं, उन्हें लेकर यहाँसे शीघ्र चली जाइये। आप युद्धकी इच्छुक क्यों हैं? महात्मा पुरुष कहते हैं। कि युद्ध दुःख तथा सन्तापको बढ़ानेवाला और सम्पूर्ण सुखोंका विघातक होता है ॥ 5-73 ॥
मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है कि पुष्पका भी आघात न सह सकनेवाले अपने अत्यन्त सुकोमल शरीरमें आप शस्त्रोंके आघात सहनेके लिये क्यों तैयार हैं? चातुर्यका फल तो शान्ति और निरन्तर सुख भोगना है। अतः एकमात्र दुःखके कारणस्वरूप इस संग्रामको आप क्यों करना चाहती हैं? इस संसारमें सुख ग्रहण करना चाहिये और दुःखका परित्याग करना चाहिये यही सर्वमान्य नियम है ।। 8-10 ॥वह सुख भी नित्य और अनित्यके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। आत्मज्ञानसम्बन्धी सुखको 'नित्य' और भोगजनित सुखको 'अनित्य' माना गया है। वेद और शास्त्रके तत्त्वका चिन्तन करनेवाले लोगोंको चाहिये कि उस विनाशशील अनित्य सुखको त्याग दें। हे वरानने! यदि आप नास्तिकका स्वीकार करती हों तो भी इस यौवनको पाकर उत्तमसे उत्तम सुखोंका भोग करें। हे कृशोदरि ! हे भामिनि ! यदि परलोकके विषयमें आपको सन्देह हो तो इस पृथ्वीपर ही सदाचारपूर्वक रहती हुई स्वर्गीय सुख प्राप्त करनेमें सदा तत्पर रहें, नहीं तो शरीरमें यह यौवन अनित्य है-ऐसा समझकर आपको सदा सत्कर्म करते रहना चाहिये ॥ 11-14 ॥
बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि वे दूसरोंको पीड़ित करनेके कार्यका त्याग कर दें। अतः बिना विरोधके धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये। इसलिये हे कल्याणि ! आप अपनी बुद्धि धर्मकृत्यमें लगाइये। हे अम्बिके! आप हम दैत्योंको बिना अपराधके क्यों मार रही हैं? दयाभाव पुरुषमात्रका शरीर है और सत्यमें ही उसका प्राण प्रतिष्ठित कहा गया है। अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि दया और सत्यकी सदा रक्षा करें। हे देवि! आप दानवोंके संहारमें अपना प्रयोजन बतायें ? ॥ 15 - 173 ॥
देवी बोलीं- हे महाबाहो ! तुमने जो यह पूछा है कि मैं यहाँ क्यों आयी हूँ—उसे बताती हूँ और दानववधका प्रयोजन भी बताती हूँ। हे दैत्य ! मैं सदा साक्षी बनकर सभी प्राणियोंके न्याय तथा अन्यायको देखती हुई सब लोकोंमें निरन्तर विचरती रहती हूँ। मुझे न तो कभी भोगविलासकी इच्छा है, न लोभ है और न किसीके प्रति द्वेषभाव ही है । ll 18 - 20 ॥
धर्मकी मर्यादा रखनेके लिये मैं इस संसारमें विचरण करती रहती हूँ। साधुपुरुषोंकी रक्षा करना अपने इस व्रतका मैं सदा पालन करती हूँ। अनेक अवतार धारण करके मैं सज्जनोंकी रक्षा करती हूँ, जो असाधु हैं उनका संहार करती हूँ और वेदोंका संरक्षण करती हूँ। मैं प्रत्येक युगमें उन अवतारोंको धारण करती रहती हूँ ।। 21-223 ॥दुराचारी महिषासुर देवताओंको मार डालनेके लिये उद्यत है—यह जानकर मैं उसके वधके लिये इस समय यहाँ उपस्थित हुई हूँ। हे दानव! मैं उस दुराचारी तथा सुरद्रोही महाबली महिषको मार डालूँगी ll 23-24 ll
अब तुम इच्छानुसार जाओ या रुके रहो, मैंने तुमसे यह सब सच-सच बतला दिया। अतः जाकर अपने उस दुराचारी राजा महिषसे कह दो - 'आप अन्य दैत्योंको क्यों भेजते हैं ? स्वयं युद्ध कीजिये ।' यदि तुम्हारे राजाकी इच्छा मेरे साथ सन्धि करनेकी हो, तो सभी दैत्य शत्रुता छोड़कर सुखपूर्वक पाताल चले जायँ । देवताओंको जीतकर जो भी देवद्रव्य असुरोंने छीन लिया है, वह सब वापस करके वे उस पातालपुरीमें चले जायँ, जहाँ इस समय प्रह्लाद विराजमान हैं । ll 25-27 ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] इस प्रकार देवीका वचन सुनकर असिलोमा भगवतीके सामने ही महान् शूरवीर बिडालाख्यसे प्रीतिपूर्वक पूछने लगा- ॥ 28 ॥ असिलोमा बोला- बिडालाख्य ! देवीने अभी अभी जो कहा है, वह तो तुमने सुन लिया, इस स्थितिमें हमें सन्धि या विग्रह - क्या करना चाहिये ? ॥ 29 ॥
बिडालाख्य बोला- युद्धमें मृत्युको निश्चित हुए भी हमारे अभिमानी महाराज सन्धि नहीं जानते करना चाहते। समरमें बहुत-से योद्धा मारे जा चुके हैं - यह देखकर भी वे हमें भेज रहे हैं। दैवको टाल सकनेमें भला कौन समर्थ है ! ॥ 30 ॥
(सम्मानकी भावनासे रहित, स्वामीकी आज्ञाका पालन करनेवाले तथा सदा उनके अधीन रहनेवाले सेवकोंका सेवाधर्म अत्यन्त कठिन है। सूतके संकेतपर | नर्तन करनेवाली कठपुतलीकी भाँति वे सदा परतन्त्र रहते हैं।)
अतः उन महिषासुरके सामने जाकर मेरे अथवा तुम्हारे द्वारा ऐसा अप्रिय वचन कैसे कहा जा सकता है कि देवताओंके धन एवं रत्न वापस करके सभी दानव यहाँसे पातालको लौट चलें ? ॥ 31 ॥(सदा प्रिय वचन बोलना चाहिये, किंतु वह असत्य न हो वचन हितकारक तथा प्रिय होता चाहिये। यदि वचन सत्य होनेपर भी प्रिय न हो तो ऐसी दशामें बुद्धिमान् मनुष्योंके लिये मौन ही श्रेष्ठ होता है।)
नीतिशास्त्रका कथन है कि वीर पुरुषोंको चाहिये कि वे मिध्या वचनोंद्वारा राजाको धोखेमें न डालें ॥ 32 ॥
[ सत्य बात तो यह है कि] आदरके साथ हितकी बात कहने अथवा पूछनेके लिये हमलोगोंको वहाँ नहीं चलना चाहिये। वहाँ जानेपर राजा महिषासुर कोपाविष्ट हो जायँगे। यह विचारकर अब हमलोगोंको यहाँ युद्ध ही करना चाहिये। जहाँ प्राणका संशय हो वहाँ स्वामीके कार्यको मुख्य मानकर मृत्युको तृणसदृश समझना चाहिये ।। 33-34 ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार विचार करके वे दोनों वीर युद्धके लिये तत्पर हो गये और कवच धारण करके हाथों में धनुष-बाण लेकर रथपर आरूढ हो देवीके सामने आ डटे ।। 35 ।।
सर्वप्रथम बिडालाख्यने देवीके ऊपर सात बाण चलाये अस्त्र चलानेमें अत्यन्त निपुण असिलोमा दूर जाकर दर्शकके रूपमें खड़ा हो गया ॥ 36 ॥
भगवती जगदम्बाने अपने बाणोंसे विडालाख्यके द्वारा चलाये गये उन बाणोंको काट डाला और पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये तीन बाणोंसे बिडालाख्यपर आघात किया ॥ 37 ॥
उन बाणोंकी असह्य वेदनासे पीड़ित होकर वह दैत्य समरभूमिमें गिर पड़ा, उसे मूर्च्छा आ गयी और कालयोगसे वह मर गया ॥ 38 ॥
इस प्रकार भगवतीके बाणसमूहोंसे रणमें विद्यालयको मारा गया देखकर असिलोमा भी हाथमें धनुष लेकरके युद्ध करनेके लिये तैयार होकर सामने आ गया और दाहिना हाथ ऊपर उठाकर अभिमानपूर्वक बोला- हे देवि मैं जानता हूँ कि सभी दुराचारी दानव मारे जायेंगे, फिर भी पराधीन होने के कारण मुझे बुद्ध करना ही होगा। वह मन्दबुद्धि महिषासुर अपने प्रिय | तथा अप्रियके विषयमें नहीं जानता ।। 39-41 ॥उसके सामने हितकर वचन भी यदि अप्रिय है तो मुझे नहीं बोलना चाहिये। अब वीरधर्मके अनुसार मर जाना ही मेरे लिये उचित है-वह चाहे शुभ हो अथवा अशुभ। मैं तो दैवको ही बलवान् मानता हूँ, अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है, तभी तो आपके बाणोंसे हत होकर दानव पृथ्वीपर गिरते जा रहे हैं ।। 42-43 ।।
ऐसा कहकर दानवश्रेष्ठ असिलोमा बाणवृष्टि करने लगा। देवीने अपने पासतक न पहुँचे हुए उन बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला और अपने अन्य शीघ्रगामी बाणोंसे असिलोमाको शीघ्रतापूर्वक बींध डाला। उस समय आकाशमें स्थित देवताओंने देखा कि भगवतीका मुखमण्डल क्रोधसे भर उठा है। देवीके बाणोंसे बिंधे शरीरवाला तथा बहती हुई रुधिरकी धारासे युक्त वह दैत्य ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पुष्पित हुआ पलाशका वृक्ष हो ll 44 - 46 ll
अब असिलोमा लोहेकी बनी एक विशाल गदा लेकर बड़ी तेजीसे चण्डिकाकी ओर दौड़ा और क्रोधपूर्वक सिंहके सिरपर उसने गदासे प्रहार कर दिया। परंतु देवीके सिंहने उस बलवान् दानवके द्वारा किये गये गदा प्रहारकी कुछ भी परवाह न करके अपने नखोंद्वारा उसके वक्षःस्थलको फाड़ डाला ।। 47-48 ॥
तब उस महाविकराल दैत्यने हाथमें गदा लिये ही बड़े वेगसे उछलकर सिंहके मस्तकपर सवार हो भगवतीके ऊपर गदासे प्रहार किया ॥ 49 ॥
हे राजन् उसके द्वारा किये गये प्रहारको रोककर देवीने तेज धारवाली तलवारसे उसका मस्तक गर्दनसे अलग कर दिया। इस प्रकार मस्तक कट जानेपर वह दानवराज तुरंत गिर पड़ा। अब उस दुरात्माकी सेनामें हाहाकार मच गया ॥ 50-51 ॥
हे राजन्! देवीकी जय हो ऐसा कहकर देवतागण भगवतीकी स्तुति करने लगे। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और किन्नरगण देवीका यशोगान करने लगे ॥ 52 ॥मारे गये उन दोनों दैत्योंको समरांगणमें गिरा हुआ देखकर शेष सम्पूर्ण सैनिकोंको सिंहने अपने पराक्रमद्वारा मार गिराया और कुछ दानवोंको खा डाला और इस प्रकार उस युद्धभूमिको दानवोंसे रहित कर दिया। कुछ अंग-भंग हुए मूर्ख दानव दुःखी होकर महिषासुरके पास पहुँचे और 'रक्षा कीजिये-रक्षा कीजिये'–ऐसा कहते हुए वे चीखने | चिल्लाने तथा रोने लगे-'हे नृपश्रेष्ठ ! असिलोमा और बिडालाख्य दोनों ही मारे गये। हे राजन् ! अन्य जो भी सैनिक थे, उन्हें सिंह खा गया' ऐसा कहते हुए उन्होंने राजाको दुःखमें डाल दिया ।। 53-56 ॥
उनकी बात सुनकर महिषासुर खिन्नमनस्क, चिन्तासे व्याकुल, उदास तथा दुःखी हो गया ॥ 57 ॥