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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 3 - Skand 3, Adhyay 3

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ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन

ब्रह्माजी बोले- मनके समान वेगसे उड़नेवाला वह विमान जिस स्थानपर पहुँचा, वहाँ जब हमने जल नहीं देखा तब हमलोगोंको महान् आश्चर्य हुआ ॥ 1 ॥ उस स्थानके वृक्ष सभी प्रकारके फलोंसे लदे हुए और कोकिलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजायमान थे। वहाँकी भूमि, पर्वत, वन और उपवन- ये सभी सुरम्य दृष्टिगोचर हो रहे थे ॥ 2 ॥

उस स्थानपर स्त्रियाँ, पुरुष, पशु, बड़ी नदियाँ, बावलियाँ, कुएँ तालाब, पोखरे तथा झरने इत्यादि विद्यमान थे ॥ 3 ॥

वहाँ भव्य चहारदीवारीसे घिरा हुआ एक मनोहर नगर था, जो यज्ञशालाओं तथा अनेक प्रकारके दिव्य महलोंसे सुशोभित था ॥ 4 ॥

तब उस नगरको देखकर हमलोगोंको ऐसी प्रतीति हुई मानो यही स्वर्ग है और फिर हम लोगोंकी यह जिज्ञासा हुई कि इस अद्भुत नगरका निर्माण किसने किया है, उस समय हमलोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ! ॥ 5 ॥हमलोगोंने आखेटके उद्देश्यसे वनमें जाते हुए एक देवतुल्य राजाको देखा। उसी समय हमलोगोंको जगदम्बा भगवती भी विमानपर स्थित दिखायी पड़ीं ॥ 6॥ थोड़ी ही देर बाद हमारा विमान वायुसे प्रेरित होकर आकाशमें पुन: उड़ने लगा और मुहूर्तभरमें वह पुनः एक अन्य सुरम्य देशमें पहुँच गया ॥ 7 ॥

वहाँपर हमलोगोंको अत्यन्त रमणीक नन्दनवन दृष्टिगत हुआ, जिसमें पारिजातवृक्षको छायाका आश्रय लिये हुए कामधेनु स्थित थी ॥ 8 ॥

कामधेनुके समीप ही चार दाँतोंवाला ऐरावत हाथी विद्यमान था और वहाँ मेनका आदि अप्सराओंके समूह अपने नृत्यों तथा गानोंमें विविध भाव-भंगिमाओंका | प्रदर्शन करते हुए अनेक प्रकारकी क्रीडाएँ कर रहे थे वहाँ मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंमें सैकड़ों गन्धर्व, यक्ष और विद्याधर गा रहे थे और रमण कर रहे थे। वहाँपर इन्द्रभगवान् भी इन्द्राणीके साथ दृष्टिगोचर हुए ॥ 9-11 ॥

स्वर्गमें निवास करनेवाले देवताओंको देखकर हमें परम विस्मय हुआ । वहाँपर वरुण, कुबेर, यम, सूर्य, अग्नि तथा अन्य देवताओंको स्थित देखकर हम आश्चर्यचकित हुए। उसी समय उस सुसज्जित नगरसे वह राजा निकला ॥ 12-13 ll

देवताओंके राजा इन्द्रकी भाँति पराक्रमी वह राजा धरातलपर पालकीमें बैठा था। वह विमान | हमलोगोंको लेकर द्रुत गतिसे आगे बढ़ा ॥ 14 ॥

तदनन्तर हमलोग अलौकिक ब्रह्मलोकमें पहुँच गये वहाँपर सभी देवताओंसे नमस्कृत ब्रह्माजीको विद्यमान देखकर भगवान् शंकर एवं विष्णु विस्मयमें पड़ गये ।। 15 ।।

वहाँ ब्रह्माजीकी सभामें सभी वेद अपने अपने अंगोंसहित मूर्तरूपमें विराजमान थे। साथ ही समुद्र, नदियाँ, पर्वत, सर्प एवं नाग भी उपस्थित थे ॥ 16 ॥

तत्पश्चात् भगवान् विष्णु और शंकरने मुझसे पूछा- हे चतुर्मुख! ये दूसरे सनातन ब्रह्मा कौन है? तब मैंने उनसे कहा कि मैं सबके स्वामी तथा सृष्टिकर्ता इन ब्रह्माको नहीं जानता ॥ 17 ॥हे ईश्वरो मैं कौन हूँ, ये कौन हैं और हम दोनोंका क्या प्रयोजन है? इसमें मैं भ्रमित हूँ। थोड़ी ही देरमें वह विमान पुनः मनके सदृश वेगसे आगेकी ओर बढ़ा ll 18 ll

तत्पश्चात् वह विमान यक्षगणोंसे सुशोभित, मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंके कारण अति सुरम्य, शुक और कोयलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजित, वीणा और मृदंग आदि वाद्य यन्त्रोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित, सुखदायक तथा मंगलकारी कैलास शिखरपर पहुँचा ll 193 ॥

उस शिखरपर जब वह विमान पहुँचा; उसी समय वृषभपर आरूढ, पंचमुख, दस भुजाओंवाले, मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये हुए भगवान् शंकर अपने दिव्य भवनसे बाहर निकले ॥ 20-21 ॥

उस समय वे व्याघ्रचर्म पहने हुए तथा गजचर्म ओढ़े हुए थे। महाबली गजानन (श्रीगणेश) तथा षडानन (कार्तिकेय) उनके अंगरक्षकके रूपमें विद्यमान थे ॥ 22 ॥

भगवान् शंकरके साथ चल रहे उनके दोनों पुत्र अतीव सुशोभित हो रहे थे। नन्दी आदि सभी प्रधान शिवगण जयघोष करते हुए भगवान् शिवके पीछे-पीछे चल रहे थे। हे नारद! वहाँ अन्य लोगों तथा शंकरको मातृकाओंसहित देखकर हमलोग विस्मयमें पड़ गये और हे मुने! मैं संशयग्रस्त हो गया। थोड़ी ही देरमें वह विमान उस कैलास शिखरसे वायुगतिसे लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुके वैकुण्ठलोकमें जा पहुँचा। हे पुत्र ! मैंने वहाँ अद्भुत विभूतियाँ देखी ll 23-26 ॥

"उस अति रमणीक नगरको देखकर भगवान् विष्णु विस्मयमें पड़ गये। उसी समय कमललोचन भगवान् विष्णु अपने भवनसे बाहर निकले ॥ 27 ॥

उनका वर्ण अलसीके पुष्यकी भाँति श्याम था, वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, उनकी चार भुजाएँ थीं, वे पक्षिराज गरुडपर आरूढ़ थे और दिव्य अलंकारोंसे विभूषित थे। भगवती लक्ष्मी उन्हें शुभ चैवर डुला रही थीं। उन सनातन भगवान् विष्णुजीको देखकर हम सभीको महान् आश्चर्य हुआ ।। 28-29 ।।तदनन्तर परस्पर एक-दूसरेको देखते हुए हमलोग अपने-अपने श्रेष्ठ आसनोंपर बैठे रहे। इसके बाद वह विमान वायुसदृश द्रुत गतिसे पुनः चल पड़ा। कुछ ही क्षणोंमें वह विमान मधुर जलवाले, ऊँची ऊँची लहरोंवाले, नानाविध जल-जन्तुओंसे युक्त तथा चंचल तरंगोंसे शोभायमान अमृत सागरके तटपर पहुँच गया ॥ 30-31 ॥

उस सागर के तटपर विभिन्न पंक्तियोंमें नाना प्रकारके विचित्र रंगोंवाले मन्दार एवं पारिजात आदि वृक्ष शोभायमान थे वहाँ मोतियोंकी झालरें तथा अनेक प्रकारके पुष्पहार शोभामें वृद्धि कर रहे थे। समुद्रके सभी ओर अशोक, मौलसिरी, कुरबक आदि वृक्ष विद्यमान थे उसके चारों ओर चित्ताकर्षक केतकी तथा चम्पक पुष्पोंकी वाटिकाएँ थीं, जो कोयलोंकी मधुर ध्वनियोंसे गुंजित तथा नाना प्रकारकी दिव्य सुगन्धिसे परिपूर्ण थीं ॥ 32-34 ॥

उस स्थलपर भरे गुंजार कर रहे थे। इस प्रकार वहाँका दृश्य परम अद्भुत था। उस द्वीपमें हमलोगोंने दूरसे ही विमानपर बैठे-बैठे शिवजीके आकारवाला एक मनोहर तथा अत्यन्त अद्भुत पलंग देखा, जो रत्नमालाओंसे जड़ा हुआ था और नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित था ॥ 35-36 ।।

उस पलंगपर अनेक प्रकारके रंगोंवाली आकर्षक चादरें मिली थीं, जिससे वह पलंग इन्द्रधनुष के समान सुशोभित हो रहा था। उस भव्य पलंगपर एक दिव्यांगना बैठी हुई थी ॥ 37 ॥

उस देवीने रक्तपुष्पोंकी माला तथा रक्ताम्बर धारण किया था। उसने अपने शरीरमें लाल चन्दनका | लेप कर रखा था। लालिमापूर्ण नेत्रोंवाली वह देवी | असंख्य विद्युत्की कान्तिसे सुशोभित हो रही थी। सुन्दर मुखवाली, रक्तिम अधरसे सुशोभित, लक्ष्मीसे करोड़ोंगुना अधिक सौन्दर्यशालिनी वह स्त्री अपनी कान्तिसे सूर्यमण्डलको दोप्तिको भी मानो तिरस्कृत कर रही थी ।। 38-39 ॥

वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्राको धारण करनेवाली तथा मधुर मुस्कानयुक्त वे भगवती भुवनेश्वरी हमें दृष्टिगोचर हुई जिन्हें पहले कभी नहीं देखा गया था ॥ 40 ॥ह्रींकार बीजमन्त्रका जप करनेवाले पक्षियोंका समुदाय उनकी सेवामें निरन्तर रत था। नवयौवनसे सम्पन्न तथा अरुण आभावाली वे कुमारी साक्षात् करुणाकी मूर्ति थीं 41 ॥

वे सभी प्रकारके शृंगार एवं परिधानोंसे सुसज्जित थीं और उनके मुखारविन्दपर मन्द मुसकान विराजमान थी। उनके उन्नत वक्षःस्थल कमलकी कलियोंसे भी बढ़कर शोभायमान हो रहे थे। नानाविध मणियोंसे जटित आभूषणोंसे वे अलंकृत थीं स्वर्णनिर्मित कंकण, केयूर और मुकुट आदिसे वे सुशोभित थीं। स्वर्णनिर्मित श्रीचक्राकार कर्णफूलसे सुशोभित उनका मुखारविन्द अतीव दीप्तिमान् था उनकी सखियोंका समुदाय 'इल्लेखा' तथा 'भुवनेशी' नामका सतत जप कर रहा था और अन्य सखियाँ उन भुवनेशी महेश्वरीकी अनवरत स्तुति कर रही थीं। 'हल्लेखा' आदि देवकन्याओं तथा ' अनंगकुसुमा' आदि देवियोंसे वे घिरी हुई थीं। वे षट्कोणके मध्यमें यन्त्रराजके ऊपर विराजमान थीं ॥ 42 - 46

उन भगवतीको देखकर वहाँ स्थित हम सभी आश्चर्यचकित हो गये और कुछ देरतक वहीं ठहरे रहे। हमलोग यह नहीं जान पाये कि वे सुन्दरी कौन हैं और उनका क्या नाम है ? ॥ 47 ॥

दूरसे देखनेपर वे भगवती हजार नेत्र, हजार मुख और हजार हाथोंसे युक्त अति सुन्दर लग रही थीं. इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ll 48 ll

हे नारद! हम सोचने लगे कि ये न तो अप्सरा, न गन्धव और न देवांगना ही दीखती हैं, तो फिर ये कौन हो सकती हैं? हम इसी संशयमें पड़कर वहाँ खड़े रहे ।। 49 ।।

तब उन सुन्दर हासवाली देवीको देखकर भगवान् विष्णुने अपने अनुभवसे मनमें निश्चित करके हमसे कहा-ये साक्षात् भगवती जगदम्बा हम सबकी कारणस्वरूपा हैं। ये ही महाविद्या, महामाया, पूर्णा तथा शाश्वत प्रकृतिरूपा हैं ll 50-51 ll

अल्प बुद्धिवाले गम्भीर आशयवाली इन भगवतीको सम्यक् रूपसे नहीं जान सकते, केवल योगमार्गसे ही ये ज्ञेय हैं। ये देवी परमात्माकी इच्छास्वरूपा तथा नित्यानित्य-स्वरूपिणी हैं ॥ 52 ॥ये विश्वेश्वरी कल्याणी भगवती अल्पभाग्यवाले प्राणियोंके लिये दुराराध्य हैं। ये वेदजननी विशालनयना जगदम्बा सबकी आदिस्वरूपा ईश्वरी हैं ॥ 53 ॥

ये भगवती प्रलयावस्थामें समग्र विश्वका संहार करके सभी प्राणियोंके लिंगरूप शरीरको अपने शरीरमें समाविष्ट करके विहार करती हैं ॥ 54 ॥

हे देवो! ये भगवती इस समय सर्वबीजमयी देवीके रूपमें विराजमान हैं। देखिये, इनके समीप करोड़ों विभूतियाँ क्रमसे स्थित हैं ॥ 55 ॥

हे ब्रह्मा एवं शंकरजी ! देखिये, दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत तथा दिव्य गन्धानुलेपसे युक्त ये सभी विभूतियाँ इन भगवतीकी सेवामें मनोयोगसे संलग्न हैं ॥ 56 ॥

हमलोग धन्य, सौभाग्यशाली तथा कृतकृत्य हैं, जो कि हमें इस समय यहाँ भगवतीका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ।। 57 ।।

पूर्वकालमें हमलोगोंने बड़े प्रयत्नसे जो तपस्या की थी, उसीका यह उत्तम परिणाम है; अन्यथा भगवती हमलोगोंको स्नेहपूर्वक दर्शन कैसे देतीं ? ॥ 58 ॥

जो उदार हृदयवाले पुण्यात्मा तथा तपस्वीलोग हैं, वे ही इनके दर्शन प्राप्त करते हैं, किंतु विषयासक्तलोग इन कल्याणमयी भगवतीके दर्शनसे सर्वथा वंचित रहते हैं ॥ 59 ॥

ये ही मूलप्रकृतिस्वरूपा भगवती परमपुरुषके सहयोगसे ब्रह्माण्डकी रचना करके परमात्माके समक्ष उसे उपस्थित करती हैं ॥ 60 ॥

हे देवो ! यह पुरुष द्रष्टामात्र है और समस्त ब्रह्माण्ड तथा देवतागण दृश्यस्वरूप हैं। महामाया, कल्याणमयी, सर्वव्यापिनी सर्वेश्वरी ये भगवती ही इन सबका मूल कारण हैं ॥ 61 ॥

कहाँ मैं, कहाँ सभी देवता और कहाँ रम्भा आदि देवांगनाएँ। हम सभी इन भगवतीकी तुलना में | उनके लक्षांशके बराबर भी नहीं हैं ॥ 62 ॥ ये वे ही महादेवी जगदम्बा हैं, जिन्हें हमलोगोंने प्रलयसागरमें देखा था और जो बाल्यावस्थामें मुझे प्रसन्नतापूर्वक पालने में झुला रही थीं ॥ 63 ॥उस समय मैं एक सुस्थिर तथा दृढ़ वटपत्ररूपी | पलंगपर सोया हुआ था और अपने पैरका अँगूठा अपने मुखारविन्दमें डालकर चूस रहा था। अत्यन्त कोमल अंगोंवाला में उस समय अनेक बालसुलभ चेष्टाएँ करता हुआ उसी वटपत्रके दोनेमें पड़े-पड़े खेल रहा था ॥ 64-65 ॥

उस समय गाती हुई ये भगवती बालभावमें स्थित मुझे झूला झुलाती थीं। इन्हें देखकर मुझे यह सुनिश्चित ज्ञान हो गया है कि वे ही यहाँ विराजमान हैं ॥ 66 ॥ निश्चितरूपसे ये भगवती मेरी जननी हैं। आप सुनें, मुझे पूर्व अनुभवकी स्मृति जग गयी है, जो मैं आपसे कहता हूँ ॥ 67 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना