श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! भगवान् श्रीहरिका ध्यान करके देवराज इन्द्र बृहस्पतिको आगे करके सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माकी सभायें गये ॥ 1 ॥
इन्द्रसमेत सभी देवताओंने गुरु बृहस्पति के साथ शीघ्र ही ब्रह्मलोक जाकर पद्मयोनि ब्रह्माजीका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया ॥ 2 ॥
तत्पश्चात् देवगुरु बृहस्पतिने ब्रह्माजीसे सारा वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर ब्रह्माजी हँस करके देवराज इन्द्रसे कहने लगे ॥ 3 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे वत्स! तुम मेरे वंशमें उत्पन्न हुए हो और मेरे बुद्धिमान् प्रपौत्र हो, इसके अतिरिक्त बृहस्पतिके शिष्य हो और स्वयं देवताओंके स्वामी हो। परम प्रतापी तथा विष्णुभक्त दक्षप्रजापति तुम्हारे नाना हैं। जिसके तीनों कुल पवित्र हों, वह पुरुष | अहंकारी कैसे हो सकता है ? जिसकी माता पतिव्रता, | पिता शुद्धस्वरूप और नाना तथा मामा जितेन्द्रिय हों,| वह अहंकारयुक्त कैसे हो सकता है? पिताके दोष, नानाके दोष और गुरुके दोष इन्हीं तीन दोषोंसे ही मनुष्य भगवान् श्रीहरिका द्रोही हो जाता है ॥ 4-7॥ सभीकी अन्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सभी प्राणियोंकि शरीरमें विराजमान रहते हैं। वे भगवान् जिसके शरीरसे निकल जाते हैं, वह प्राणी उसी क्षण शव हो जाता है ॥ 8 ॥
मैं प्राणियोंके शरीरमें इन्द्रियोंका स्वामी मन बनकर रहता हूँ, शंकर ज्ञानका रूप धारण करके रहते हैं और विष्णुकी प्राणस्वरूपा भगवती श्रीराधा मूलप्रकृतिके रूपमें और साध्वी भगवती दुर्गा बुद्धिरूपमें विराजमान हैं। निद्रा आदि सभी शक्तियाँ भगवती प्रकृतिकी कलाएँ हैं। आत्माका प्रतिबिम्ब भोगशरीर धारण करके जीवरूपमें प्रतिष्ठित है। शरीर के स्वरूप आत्माके देहसे निकल जानेपर ये सब उसीके साथ तुरंत उसी प्रकार चले जाते
हैं, जैसे मार्गमें चलते हुए राजाके पीछे-पीछे उसके अनुचर आदि चलते हैं ॥ 9-11 ॥
मैं, शिव, शेषनाग, विष्णु, धर्म, महाविराट् तथा तुम सब लोग जिनके अंश तथा भक्त हैं; उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके पवित्र पुष्पका तुमने अपमान कर दिया है ॥ 12 ॥
शंकरजीने जिस पुष्पसे भगवान् श्रीहरिके चरणकमलकी पूजा की थी, वहीं पुष्य मुनि दुर्वासाके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया था किंतु तुमने दैववश उसका तिरस्कार कर दिया ॥ 13 ॥
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलसे च्युत वह पुष्प जिसके मस्तकपर स्थान पाता है, उसकी पूजा सभी देवताओंमें सबसे पहले होती है ।। 14॥
तुम तो दैवके द्वारा ठग लिये गये हो। प्रारब्ध सबसे अधिक बलशाली होता है भाग्यहीन तथा मूर्ख व्यक्तिकी रक्षा करनेमें कौन समर्थ है ? ॥ 15 ॥
भगवान् श्रीकृष्णको अर्पित किये जानेवाले पुष्पका तुम्हारे द्वारा त्याग किये जानेके कारण वे भगवती श्रीदेवी कोप करके इस समय तुम्हारे पाससे चली गयी हैं। अतः तुम इसी समय मेरे तथा गुरु बृहस्पतिके साथ वैकुण्ठ चलो मेरे वरके प्रभावसे वहाँपर लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरिकी सेवा करके तुम लक्ष्मीको पुनः प्राप्त कर लोगे ॥ 163 ॥[हे नारद!] ऐसा कहकर ब्रह्माजीने सभी देवताओंके साथ वैकुण्ठलोक पहुँचकर परब्रह्म सनातन भगवान् श्रीहरिको देखा। वे तेजस्वरूप प्रभु अपने ही तेजसे देदीप्यमान हो रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतुके मध्याह्नकालीन सौ करोड़ सूर्योकी प्रभासे युक्त प्रभु थे, आदि-अन्त-मध्यसे रहित अनन्तरूप लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरि शान्तभावसे विराजमान थे, वे | चार भुजाओंवाले पार्षदों तथा भगवती सरस्वतीके साथ सुशोभित हो रहे थे और चारों वेदोंसहित | देवी गंगा भक्तिभावसे युक्त होकर उनके पास विराजमान थीं। उन प्रभुको देखकर ब्रह्माके अनुगामी सभी देवताओंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। भक्ति तथा विनयसे युक्त होकर | देवताओंने नेत्रोंमें आँसू भरकर उन परमेश्वरकी स्तुति की ॥ 17 - 21 ॥ तत्पश्चात् स्वयं ब्रह्माजीने हाथ जोड़कर भगवान् श्रीहरिसे सारा वृत्तान्त कहा। अपने अधिकारसे वंचित सभी देवता उस समय रो रहे थे ॥ 22 ॥
उन भगवान् श्रीहरिने देखा कि सभी देवगण विपत्तिसे ग्रस्त, भयसे व्याकुल, रत्न तथा आभूषणसे | विहीन, वाहन आदिसे रहित, शोभाशून्य, श्रीहीन, निस्तेज तथा अत्यन्त भयग्रस्त हैं। उन्हें इस प्रकार | कष्टसे व्याकुल देखकर संसारका भय दूर करनेवाले प्रभु कहने लगे ॥ 23-24॥
श्रीभगवान् बोले - हे ब्रह्मन्! हे देवगण ! आप लोग मत डरिये। मेरे रहते आपलोगोंको किस | बातका भय है। मैं आपलोगोंको परम ऐश्वर्यकी वृद्धि | करनेवाली स्थिर लक्ष्मी प्रदान करूँगा। किंतु मेरी कुछ समयोचित बात सुनिये; जो हितकर, सत्य, सारभूत तथा परिणाममें सुखकारी है ॥ 25-26 ॥
जैसे अनन्त ब्रह्माण्डोंमें रहनेवाले सभी प्राणी | निरन्तर मेरे अधीन रहते हैं, वैसे ही मैं भी अपने भक्तोंके अधीन रहता हूँ, स्वतन्त्र नहीं हैं। मेरे प्रति समर्पित मेरा निरंकुश भक्त जिस-जिसके ऊपर रुष्ट होता है, उसके घर मैं लक्ष्मीके साथ कभी नहीं ठहरता यह निश्चित है । ll 27-28 ॥भगवान् शंकरके अंशसे उत्पन्न ऋषि दुर्वासा
महान् वैष्णव हैं तथा मेरे प्रति अनन्य भक्ति रखते हैं।
उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया है, अतः मैं आपलोगोंके
घरसे लक्ष्मीसहित चला आया हूँ ll 29 ll
जहाँ शंखध्वनि नहीं होती, तुलसी नहीं रहतीं, शिवकी पूजा नहीं होती तथा ब्राह्मणोंको भोजन नहीं कराया जाता, वहाँ लक्ष्मी नहीं रहतीं ॥ 30 ॥
हे ब्रह्मन् ! हे देवगण! जहाँ मेरी तथा मेरे भक्तोंकी निन्दा होती है, वहाँसे महालक्ष्मी अत्यन्त रुष्ट होकर चली जाती हैं और उसका पराभव हो जाता है ॥ 31 ll
जो मूर्ख मनुष्य मेरी भक्तिसे रहित है तथा एकादशी और मेरे जन्मके दिन (जन्माष्टमी आदि) को भोजन करता है, उसके भी घरसे लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 32 ॥
जो व्यक्ति मेरे नामका तथा अपनी कन्याका विक्रय करता है और जिसके यहाँ अतिथि भोजन नहीं करता, उसके घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 33 ॥
जो ब्राह्मण वेश्याका पुत्र है अथवा उसका पति है, वह महापापी है। जो विप्र ऐसे पापीके घर जाता है तथा शूद्रका श्राद्धान्न खाता है, उसके घरसे कमलासना महालक्ष्मी अत्यन्त रुष्ट होकर चली जाती हैं ॥ 343 ॥
हे देवगण! जो द्विजाधम शूद्रोंका शव जलाता है, वह भाग्यहीन हो जाता है। उससे रुष्ट होकर कमलवासिनी लक्ष्मी उसके घरसे चली जाती हैं॥ 353 ॥ जो ब्राह्मण शूद्रोंके यहाँ भोजन पकानेका काम करता है तथा जो बैल हाँकता है, उसका जल पीनेसे लक्ष्मी हरती हैं और उसके घरसे चली जाती हैं ।। 363 ।।
जो ब्राह्मण अशुद्ध हृदयवाला, क्रूर, हिंसक, दूसरोंकी निन्दा करनेवाला तथा शूद्रोंका यज्ञ कराने वाला होता है, उसके घरसे भगवती लक्ष्मी चली जाती हैं। जो ब्राह्मण पति-पुत्रहीन स्त्रीका अन्न खाता है, उसके घरसे भी जगज्जननी लक्ष्मी चली जाती हैं ।। 37-38 ll जो नखोंसे निष्प्रयोजन तृण तोड़ता है अथवा नखोंसे भूमिको कुरेदता रहता है तथा जिसके यहाँसे ब्राह्मण निराश होकर चला जाता है, उसके घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 39 ॥
जो ब्राह्मण सूर्योदयके समय भोजन करता है, दिनमें शयन करता है तथा दिनमें मैथुन करता है, उसके यहाँसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 40 ॥ जो ब्राह्मण आचारहीन, शूद्रोंसे दान ग्रहण करनेवाला, दीक्षासे विहीन तथा मूर्ख है; उसके भी घरसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 41 ॥
जो अल्पज्ञ भींगे पैर अथवा नग्न होकर सोता है तथा वाचालकी भाँति निरन्तर बोलता रहता है, उसके घरसे वे साध्वी लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 42 ॥
जो व्यक्ति अपने सिरपर तेल लगाकर उसी हाथसे दूसरेके अंगका स्पर्श करता है और अपने किसी अंगको बाजेकी तरह बजाता है, उससे रुष्ट होकर वे लक्ष्मी उसके घरसे चली जाती हैं ॥ 43 ॥
जो ब्राह्मण व्रत-उपवास नहीं करता, सन्ध्या वन्दन नहीं करता, सदा अपवित्र रहता है तथा भगवान् विष्णुकी भक्तिसे रहित है, उसके यहाँसे मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ 44 ॥
जो व्यक्ति ब्राह्मणकी निन्दा करता है और उससे सदा द्वेषभाव रखता है, जीवोंकी हिंसा करता है तथा प्राणियोंके प्रति दयाभाव नहीं रखता है; सबकी जननी लक्ष्मी उस व्यक्तिसे दूर चली जाती हैं ll 45 ॥
जिस-जिस जगह भगवान् विष्णुकी पूजा होती है तथा उनका गुणगान होता है, वहाँ सम्पूर्ण मंगलोंको भी मंगल प्रदान करनेवाली वे भगवती लक्ष्मी निवास करती हैं ॥ 46 ll
हे पितामह। जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके भक्तोंका यशोगान किया जाता है, वहाँ उन श्रीकृष्णकी | प्रिया भगवती लक्ष्मी निरन्तर निवास करती हैं ॥ 47 ॥
जहाँ शंखध्वनि होती है और शंख, शालग्रामशिला तथा तुलसीदल रहते हैं एवं उनकी सेवा कन्दना तथा ध्यान किया जाता है; वहाँ वे लक्ष्मी सर्वदा | निवास करती हैं ॥ 48 ॥जहाँ शिवलिंगकी पूजा तथा उनके गुणोंका शुभ कीर्तन और भगवती दुर्गाका पूजन तथा उनका गुणगान किया जाता है, वहाँ पद्मनिवासिनी देवी लक्ष्मी वास करती हैं।। 49 ।।
जहाँ ब्राह्मणोंकी सेवा होती है, उन्हें उत्तम भोजन कराया जाता है और सभी देवताओंकी पूजा होती है, वहाँ कमलके समान मुखवाली साध्वी लक्ष्मी विराजमान रहती हैं॥ 50 ॥
[हे नारद!] समस्त देवताओंसे ऐसा कहकर लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीजी से कहा क्षीरसागरके यहाँ तुम अपनी एक कलासे जन्म ग्रहण करो ॥ 51 ॥
लक्ष्मीजीसे ऐसा कहकर जगत्प्रभु श्रीहरिने ब्रह्माजीसे पुनः कहा- हे कमलोद्भव! आप समुद्रमन्थन करके उससे प्रकट होनेवाली लक्ष्मी देवताओंको सौंप दीजिये ॥ 52 ॥
हे मुने! ऐसा कहकर लक्ष्मीपति भगवान् श्रीहरि अन्तः पुरमें चले गये और देवताओंने भी कुछ कालके अनन्तर क्षीरसागरकी ओर प्रस्थान किया ॥ 53 ॥
समस्त देवताओं तथा राक्षसोंने मन्दराचल पर्वतको मथानी, कच्छपको आधार और शेषनागको मथानीकी रस्सी बनाकर समुद्रमन्थन किया। उसके परिणामस्वरूप उन्हें धन्वन्तरि अमृत इच्छित उच्चैः वा नामक अश्व, अनेकविध रत्न, हाथियोंमें रत्नस्वरूप ऐरावत, लक्ष्मी, सुदर्शन चक्र और वनमाला आदि प्राप्त हुए। हे मुने! तब विष्णुपरायणा साध्वी लक्ष्मीने वह वनमाला क्षीरसागरमें शयन करनेवाले मनोहर सर्वेश्वर श्रीविष्णुको समर्पित कर दी ।। 54-56 ॥
तत्पश्चात् ब्रह्मा, शिव तथा देवताओंके द्वारा पूजा तथा स्तुति किये जानेपर भगवती लक्ष्मीने देवताओंक भवनपर अपनी कृपादृष्टि डाली, फलस्वरूप वे देवगण मुनि दुर्वासाके शापसे मुक्त हो गये। हे नारद । इस प्रकार महालक्ष्मीके अनुग्रह तथा वरदानसे उन देवताओंने दैत्योंके द्वारा अधिकृत किये गये तथा भयंकर बना दिये गये अपने राज्यको पुनः प्राप्त कर | लिया ।। 57-58 ॥इस प्रकार मैंने लक्ष्मीका अत्यन्त उत्तम, सुखप्रद तथा सारभूत सम्पूर्ण उपाख्यान आपसे कह दिया, | अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 59 ॥