View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 2 - Skand 8, Adhyay 2

Previous Page 200 of 326 Next

ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना

श्रीनारायण बोले- हे परन्तप। मनु एवं मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा चारों ओरसे घिरे हुए उन पद्मयोनि ब्रह्माजीके मनमें अनेक प्रकारके विचार उत्पन्न हो रहे थे। हे अनघ! इस प्रकार ध्यान करते हुए उन ब्रह्माजीकी नासिकाके अग्रभागसे अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला एक वराह-शिशु सहसा प्रकट हो गया ।। 1-2॥हे नारद! उन ब्रह्माजीके देखते-देखते वह वराह-शिशु आकाशमें स्थित होकर क्षणभरमें बढ़कर एक विशालकाय हाथीके आकारका हो गया। वह एक महान् आश्चर्यजनक घटना थी ॥ 3 ॥

हे नारद! उस समय मरीचि आदि प्रधान विप्रवरों तथा सनक आदि ऋषियोंके साथ बैठे ब्रह्माजी वह वराहरूप देखकर मन-ही-मन विचार करने लगे कि सूकरके व्याजसे यह कौन-सा दिव्य प्राणी मेरी नासिकासे निकलकर मेरे सम्मुख उपस्थित हो गया। यह तो महान् आश्चर्य है। अभी-अभी अँगूठेके पोरके बराबर दिखायी पड़नेवाला यह क्षणभरमें ही पर्वतराजके सदृश हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वयं यज्ञरूप भगवान् विष्णु ही मेरे मनको खिन्न करते हुए इस रूपमें प्रकट हुए हों ॥ 4-6 ॥

परमात्मा ब्रह्माजी ऐसा सोच ही रहे थे कि उसी समय पर्वतके समान आकृतिवाले वाराहरूपधारी उन भगवान्ने गर्जना की ॥ 7 ॥

उन्होंने अपने गर्जनमात्रसे समस्त दिशाओंको निनादित करते हुए ब्रह्माजी तथा वहाँ उपस्थित उत्तम ब्राह्मणोंके समुदायको हर्षित कर दिया ॥ 8 ॥

अपने खेदको नष्ट करनेवाली घुरघुराहटकी ध्वनि सुनकर जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोकमें निवास करनेवाले उन श्रेष्ठ देवताओं और विप्रवरोंने छन्दोबद्ध उत्तम स्तोत्रों तथा ऋक्, साम और अथर्ववेदसे सम्भूत पवित्र सूक्तोंसे आदिपुरुषकी स्तुति प्रारम्भ कर दी ।। 9-10 ॥

उनकी स्तुति सुनकर ऐश्वर्यसम्पन्न वाराहरूप भगवान् श्रीहरि अपनी कृपादृष्टिमात्रसे उन्हें अनुगृहीत करके जलमें प्रविष्ट हो गये ॥ 11 ॥

जलमें प्रविष्ट होते हुए उन भगवान्‌की सटाके आघातसे अत्यन्त पीड़ित समुद्रने उनसे कहा शरणागतोंके दुःख दूर करनेवाले हे देव! मेरी रक्षा कीजिये ॥ 12 ॥

समुद्रके द्वारा कथित यह वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि जलचर जीवोंको इधर-उधर हटाते हुए अथाह जलमें चले गये ॥ 13 ॥इधर-उधर भ्रमण करते हुए, पृथ्वीको खोजते हुए उन सर्वेश्वरने धीरे-धीरे सूँघ-सूँघकर अन्तमें सबको धारण करनेवाली उस पृथ्वीको पा लिया ॥ 14 ॥ उस समय अगाध जलके भीतर प्रविष्ट तथा सभी प्राणियोंको आश्रय देनेवाली उस पृथ्वीको | देवदेवेश्वर श्रीहरिने अपने दाढ़ोंपर उठा लिया ॥ 15 ॥

उस पृथ्वीको अपने दाढ़पर रखे हुए यज्ञेश्वर तथा यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कोई दिग्गज कमलिनीको [अपने दाँतपर] उठाये हो ॥ 16 ॥

अपने दाढ़पर पृथ्वीको उठाये हुए उन देवेश्वरको देखकर स्वराट् मनुसहित देवाधिदेव ब्रह्मा उनकी स्तुति करने लगे ॥ 17 ॥

ब्रह्माजी बोले- भक्तोंके कष्ट दूर करनेवाले, देवताओंके आवास स्वर्गको तिरस्कृत करनेवाले तथा समस्त मनोभिलषित फल प्रदान करनेवाले हे कमलनयन ! आपकी जय हो ॥ 18 ॥ हे देव! आपके दाढ़पर स्थित यह पृथ्वी उसी भाँति सुशोभित हो रही है, जैसे सुन्दर पत्रोंसे युक्त कमलिनी किसी मतवाले हाथीकी सूँड़पर विराजमान हो ॥ 19 ॥

पृथ्वीके साथ आपका यह शरीर कमलको उखाड़कर उसे अपनी सूँड़के अग्रभागपर धारण किये गजराजके शरीरकी भाँति शोभायमान हो रहा है ॥ 20 ॥

सृष्टि तथा संहार करनेवाले और दानवोंके विनाशके लिये अनेकविध रूप धारण करनेवाले हे देवेश्वर! हे प्रभो! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 21 ॥ सभी देवताओंके आधारभूत! आपको आगेसे नमस्कार है, आपको पीछेसे बार-बार नमस्कार है। हे बृहद्धाम! आपको नमस्कार है ॥ 22 ॥

मैं आपके द्वारा शक्तिशाली बनाकर प्रजा सृष्टिके कार्यमें नियुक्त किया गया हूँ। आपकी आज्ञाके वशमें होकर ही मैं सृष्टि करता हूँ और उसे बिगाड़ता हूँ ॥ 23 ॥

हे हरे ! आपकी सहायतासे ही पूर्व कालमें देवेश्वर तथा देवता बल तथा कालके अनुसार अमृतके विभाजनमें सफल हुए थे ॥ 24 ॥आपके ही निर्देशसे इन्द्र त्रिलोकीका साम्राज्य प्राप्त कर सके हैं, देवसमुदायसे भलीभाँति पूजित होकर विपुल वैभवका उपभोग करते हैं और अग्निदेव दाहकताका गुण पाकर जठराग्नि आदिके भेदसे देवताओं, असुरों और मनुष्योंकी तृप्ति करते हैं ।। 25-26 ॥

आपके ही नियोगसे धर्मराज पितरोंके अधिपति, समस्त कर्मोंके साक्षी, कर्मोंका फल देनेवाले तथा अधीश्वर बने हुए हैं ॥ 27 ॥

विघ्नोंको दूर करनेवाले, सभी प्राणियोंके कर्मक साक्षी और राक्षसोंके ईश्वर यक्षरूप नैर्ऋत भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ॥ 28 ॥

आपकी ही आज्ञाका आश्रय लेकर लोकपाल वरुणने जलचर जीवोंके स्वामी, जलाधिपति और लोकपालका पद प्राप्त किया है ।। 29 ।।

गन्ध प्रवाहित करनेवाले तथा सभी प्राणियों में प्राण-संचार करनेवाले वायु आपकी ही आज्ञासे लोकपाल और जगद्गुरु हो सके हैं॥ 30 ॥

किन्नरों और यक्षोंके जीवनके आधारस्वरूप कुबेर आपकी आज्ञाके वशवर्ती रहकर ही समस्त लोकपालोंमें सम्मान प्राप्त करते हैं ॥ 31 ॥

सभी देवताओंका अन्त करनेवाले, सभी देवोंके अधिपालक तथा तीनों लोकोंके ईश्वरके भी वन्दनीय भगवान् ईशान आपकी ही आज्ञासे सभी रुद्रोंमें प्रधान हो गये हैं ॥ 32 ॥

आप जगदीश्वर परमात्माको हम नमस्कार करते हैं, जिनके अंशमात्रसे हजारों देवता उत्पन्न हुए हैं ॥ 33 ॥

नारदजी बोले- इस प्रकार विश्वकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत होनेपर आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि अपनी लीला प्रदर्शित करते हुए उनपर अनुग्रह करनेके लिये तत्पर हो गये॥ 34 ॥

भगवान् श्रीहरिने उस समय वहाँ आये हुए महान् असुर तथा भयंकर दैत्य हिरण्याक्षको, जिसने उनका मार्ग रोक रखा था, अपनी गदासे मार डाला ॥ 35 ॥तत्पश्चात् उसके रक्तपंकसे लिप्त अंगोंवाले आदिपुरुष भगवान् श्रीहरिने पृथ्वीको अपने दाढ़से उठाकर लीलापूर्वक उसे जलके ऊपर स्थापित कर दिया। इसके बाद वे लोकनाथेश्वर भगवान् अपने धामको चले गये। जो मनुष्य पृथ्वीके उद्धारसे सम्बन्धित इस परम विचित्र तथा उत्तम भगवच्चरितको सुनेगा और पढ़ेगा, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर वैष्णवपद प्राप्त करेगा ॥ 36-38 ॥

Previous Page 200 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन