ब्रह्माजी बोले—हे महाभाग ! [नारद!] मैंने, विष्णु तथा शंकरने इस प्रकारके प्रभाववाली उन देवीको तथा अन्य सभी देवियोंको पृथक्-पृथक देखा ॥ 1 ॥
व्यासजी बोले- पिताका यह वचन सुनकर मुनिवर नारदने परम प्रसन्न होकर प्रजापति ब्रह्माजीसे यह बात पूछी ॥ 2 ॥
नारदजी बोले - हे पितामह! आपने जिन आदि, अविनाशी, निर्गुण, अच्युत तथा अव्यय परमपुरुषका दर्शन तथा अनुभव किया, उनके विषयमें बताइये ॥ 3 ॥
हे पिताजी! आपने त्रिगुणसम्पन्ना देवीका दर्शन तो कर लिया है निर्गुणा शक्ति कैसी होती हैं? हे कमलोद्भव ! अब आप मुझे उन शक्तिका तथा परमपुरुषका स्वरूप बताइये 4 ॥
जिनके लिये मैंने श्वेतद्वीपमें महान् तपश्चर्या की और क्रोधशून्य सिद्धपुरुषों, महात्माओं तथा तपस्वियोंके दर्शन किये; वे परमात्मा मुझे दृष्टि गोचर नहीं हुए। हे प्रजापते। इसके बाद भी [उनके दर्शनार्थ] मैंने वहाँ बार-बार घोर तपस्या की ।। 5-6 ।।
हे तात! आपने मनोरमा सगुणा शक्तिका दर्शन किया है। आप मुझे बताइये कि निर्गुणा शक्ति और | निर्गुण परमात्मा कैसे हैं ? ॥ 7 ॥
व्यासजी बोले- नारदजीने अपने पिता प्रजापति ब्रासे ऐसा पूछा, तब उन पितामहने मुसकराते हुए रहस्यपूर्ण वचन कहा ॥ 8 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने। निर्गुणतत्त्वका रूप दृष्टिगोचर नहीं हो सकता क्योंकि जो दिखायी पड़ता है, वह तो नाशवान होता है। जो रूपरहित है, वह दृष्टिगोचर कैसे हो सकता है ? ।। 9 ।।निर्गुणा शक्तिको जान पाना अत्यन्त दुरूह है। और उसी प्रकार निर्गुण परमपुरुषका साक्षात्कार भी अति दुष्कर है। ये दोनों केवल मुनिजनोंके द्वारा ज्ञानसे प्राप्त तथा अनुभूत किये जा सकते हैं 10 ॥ आप प्रकृति तथा पुरुष दोनोंको आदि-अन्तसे सर्वदा रहित जानिये ये दोनों विश्वाससे जाने जा सकते हैं; अविश्वाससे कभी नहीं ॥ 11 ॥
हे नारद! सभी प्राणियोंमें जो चैतन्य विद्यमान है, उसे ही परमात्मस्वरूप जानो। तेजःस्वरूप वे परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं तथा सदा विराजमान हैं ॥ 12 ॥
हे महाभाग ! उन परमपुरुष तथा प्रकृतिको सर्वव्यापी तथा सर्वगामी समझिये इस संसारमें कोई भी पदार्थ उन दोनोंसे रहित नहीं है ॥ 13 ॥
सर्वदा अव्यय, एकरूप, चिदात्मा, निर्गुण तथा निर्मल- उन दोनों (प्रकृति-पुरुष) को एक ही शरीरमें सम्मिश्रित मानकर सदा इनका चिन्तन करना चाहिये ॥ 14 ॥
हे नारद! जो शक्ति हैं, वे ही परमात्मा हैं और जो परमात्मा हैं, वे ही परमशक्ति मानी गयी हैं। इन दोनोंमें विद्यमान सूक्ष्म अन्तरको कोई भी नहीं जान सकता ॥ 15 ॥
हे नारद! कोई भी व्यक्ति समस्त शास्त्रों तथा अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन करके भी विरक्तिके बिना उन दोनोंके सूक्ष्म अन्तरको नहीं जान पाता है ॥ 16 ॥ हे पुत्र ! जड़-चेतनरूप यह सारा जगत् अहंकारसे निर्मित है; ऐसी स्थितिमें सैकड़ों कल्पोंमें भी यह अहंकारसे रहित कैसे हो सकता है ? ॥ 17 ॥
हे पुत्र! सगुण मनुष्य निर्गुणको नेत्रसे कैसे देखvसकता है? अतः हे महाबुद्धे! उन परमात्माके सगुण रूपका मनसे सम्यक् ध्यान करते रहो ॥ 18 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ। पित्तसे आच्छादित जिह्वा जिस प्रकार यथार्थ रसका अनुभव न करके केवल कटुरसका अनुभव करती है तथा पित्ताच्छादित नेत्र यथार्थ रूप न देखकर केवल पीले रंगको ही देखता है, उसी प्रकार गुणोंसे आच्छादित मन उस निर्गुण परमात्माको कैसे जान पायेगा ? क्योंकि मन भी तो अहंकारसे उत्पन्न हुआ है, तब वह मन अहंकारसे रहित कैसेहो सकता है? जबतक अन्तःकरण गुणांस रहित नहीं होता तबतक परमात्माका दर्शन कैसे सम्भव है? जब | मनुष्य अहंकारविहीन हो जाता है, तब वह अपने हृदयमें उनका साक्षात्कार कर लेता है ।। 19 - 21 ॥
नारदजी बोले – हे देवदेवेश! तीनों गुणोंका जो स्वरूप है, उसका विस्तारपूर्वक विवेचन कीजिये और त्रिगुणात्मक अहंकार के स्वरूपका भी वर्णन कीजिये। हे पुरुषोत्तम! सात्त्विक, राजस तथा तीसरे तामस अहंकार के स्वरूप-भेदको बताइये। इस प्रकार गुणोंके विस्तृत लक्षणोंको विभागपूर्वक मुझको बताइये। हे प्रभो! मुझे ऐसा ज्ञान दीजिये जिसे जानकर मैं पूर्णरूपेण मुक्त हो जाऊँ ॥ 22-24 ॥
बयाजी बोले- हे निष्पाप ! इस त्रिविध अहंकारकी तीन शक्तियाँ हैं, मैं उन्हें बताता हूँ। वे हैं-ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा तीसरी अर्थशक्ति ॥ 25 ॥
उनमें सात्त्विक अहंकारकी ज्ञानशक्ति, राजसकी क्रियाशक्ति और तामसकी द्रव्यशक्ति- ये तीन शक्तियाँ आपको बता दीं ॥ 26 ॥
हे नारद! अब मैं उनके कार्योंको सम्यक् रूपसे बताऊँगा, सुनिये। तामसी द्रव्यशक्ति (अर्थशक्ति) - से उत्पन्न शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-ये तन्मात्राएँ कही गयी हैं। आकाशका एकमात्र गुण शब्द, वायुका गुण स्पर्श, अग्निका गुण रूप, जलका गुण रस तथा पृथ्वीका गुण गन्ध है - ऐसा जानना चाहिये। हे नारद! ये तन्मात्राएँ अत्यन्त सूक्ष्म हैं ॥ 27–29 ॥
द्रव्यशक्तिसे युक्त इन दसों (पाँच तन्मात्राओं तथा उनके पाँच गुणों) से मिलकर तामस अहंकारकी अनुवृत्तिसे सृष्टिकी रचना होती है ॥ 30 ॥
अब राजसी क्रियाशक्ति उत्पन्न होनेवाली इन्द्रियोंके विषयमें मुझसे सुनिये। श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और गुह्यांग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उससे उत्पन्न हैं। प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान ये पाँच वायु होती हैं। इन पन्द्रह (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच वायु) से मिलकर होनेवाली सृष्टि राजसी सृष्टि कही जाती है। ये सभी साधन क्रियाशक्तिसे सदा बुक्क रहते हैं और इनके उपादानकारणको चित् अनुवृत्ति कहा जाता है ॥ 31-34 ॥दिशाएँ, वायु, सूर्य, वरुण और दोनों अश्विनीकुमार ज्ञानशक्तिसे युक्त हैं और ये सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंके ये ही पाँच अधिष्ठातृदेवता हैं। इसी प्रकार बुद्धि आदि अन्तःकरणचतुष्टयके चन्द्रमा, ब्रह्मा, रुद्र तथा क्षेत्रज्ञ- ये अधिदेव हैं। ये चारों अधिष्ठातृदेवता कहे गये हैं। मनसहित ये सब पन्द्रह होते हैं। यह सात्त्विक अहंकारकी सृष्टि है और 'सात्त्विकी सृष्टि' कही गयी है ।। 35-38 ॥ स्थूल और सूक्ष्मभेदसे परमात्माके दो रूप होते हैं, उनमें ज्ञानरूप निराकारस्वरूप सबका कारण कहा गया है ।। 39 ।।
साधकके ध्यान आदि कार्योंके लिये परमात्माके स्थूल रूपकी उपासना कही गयी है। यह उस परमपुरुषका सूक्ष्म शरीर ही बताया गया है॥ 40 मेरा यह शरीर सूत्रसंज्ञक है। अब मैं उस परब्रह्म परमात्माके स्थूल विराट् स्वरूपका वर्णन करूँगा । हे नारद! आप उसे सुनें, जिसे सावधानीसे सुनकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। इसके पहले मैंने गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द- इन पंच तन्मात्राओं तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - इन सूक्ष्म पंच महाभूतोंका वर्णन विस्तारसे कर दिया है ।। 41-42 ।।
उन्हीं पाँचोंको मिलाकर पंचीकरणकी क्रियासे परमात्माने पंचभूतमय देहकी सृष्टि की है। अब मैं पंचीकरणका भेद बता रहा हूँ ध्यान देकर सुनिये - ॥ 43 ॥
सबसे पहले रसरूप तन्मात्राका मनमें निश्चय करके जिस स्थूल रूपमें जल होता है, वैसी ही उसकी दो अंशोंमें भावना करे ll 44 ll
उसी प्रकार अवशिष्ट चार भूतोंके भी दो-दो भाग करके, उसमेंसे आधे भागको पृथक् कर ले। शेष आधे अंशको चार प्रकारसे अलग करके आधे भागसे रहित उन अंशोंमें मिला दे। रस तन्मात्राको आधे भाग जलमें मिलाकर अवशिष्टभूत तन्मात्राके आधेको चारों भागोंमें मिश्रित कर दे। ऐसा करनेसे जब रसमय स्थूल जल हो जाय तब अन्य चार भूतोंके पंचीकरणका विभाग करे। उनपंचीकृत पंचभूतोंमें अधिष्ठानताके कारण उनके प्रतिबिम्बरूपसे जब चैतन्य प्रविष्ट हो जाता है, तब उस पंचभूतात्मक शरीरमें 'अहम्' भावरूप संशय उत्पन्न हो जाता है। वह संशय स्पष्टरूपसे जब भासित होने लगता है, तब उस स्थूल शरीरमें देहाभिमानके साथ चैतन्य जाग्रत् होने लगता है, वही दिव्य चैतन्य आदिनारायण भगवान्, परमात्मा आदि नामोंसे पुकारा जाता है ॥ 45-47 ॥
इस प्रकार पंचीकरणसे सभी भूतोंका विभाग स्पष्ट हो जाने पर आकाश आदि सभी पंचभूत पूर्वोक्त तन्मात्राओंके कारण अपने-अपने विशेष गुणोंसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं और एक-एक गुणकी वृद्धिसे एक-एक भूत उत्पन्न हो जाता है ll 48 ll
आकाशका केवल एकमात्र गुण शब्द है, दूसरा नहीं। वायुके शब्द और स्पर्श- ये दो गुण कहे गये हैं। शब्द, स्पर्श और रूप-ये तीन गुण अग्निके हैं। शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार गुण जलके हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच गुण पृथ्वीके हैं। इस प्रकार इन पंचीकृत महाभूतोंके योगसे ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति कही जाती है। ब्रह्माण्डके अंशसे उत्पन्न सभी जीवोंको मिलाकर चौरासी लाख जीव योनियाँ कही गयी हैं ।। 49-52 ॥