व्यासजी बोले- हे महाबाहो ! हे कुरुश्रेष्ठ ! आपने मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उन्हीं प्रश्नोंको मेरेद्वारा मुनिराज नारदजीसे पूछे जानेपर उन्होंने इस विषयमें ऐसा कहा था ॥ 1 ॥
नारदजी बोले - हे व्यासजी! मैं आपसे इस समय क्या कहूँ ? प्राचीन कालमें यही शंका मेरे भी मनमें उत्पन्न हुई थी और सन्देहकी बहुलतासे मेरा मन उद्वेलित हो गया था ॥ 2 ॥
हे व्यासजी ! तदनन्तर मैंने ब्रह्मलोकमें अपने अमित तेजस्वी पिता ब्रह्माजीके पास पहुँचकर यही प्रश्न पूछा था, जो उत्तम प्रश्न आपने आज मुझसे पूछा है ॥ 3 ॥[ मैंने पूछा- ] हे पिताजी! इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका आविर्भाव कैसे हुआ? हे विभो ! इसका निर्माण आपने किया है अथवा विष्णुने अथवा शिवने इसकी रचना की है? हे विश्वात्मन्! मुझे सही-सही बताइये। हे जगत्पते! सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन है और किसकी आराधना की जानी चाहिये ? ll 4-5 ll
हे ब्रह्मन् ! वह सब कुछ बताइए और मेरे सन्देहोंको दूर कीजिये। हे निष्पाप ! मैं असत्य तथा दुःखरूप संसारमें डूबा हुआ हूँ ॥ 6 ॥
सन्देहोंसे दोलायमान मेरा मन तीर्थोंमें, देवताओंमें तथा अन्य साधनोंमें-कहीं भी शान्त नहीं हो पा रहा है ॥ 7 ॥
हे परन्तप ! परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त किये बिना शान्ति मिल भी कैसे सकती है? अनेक प्रकारसे उलझा हुआ मेरा मन एक जगह स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ 8 ॥
मैं किसका स्मरण करूँ, किसका यजन करूँ, कहाँ जाऊँ, किसकी अर्चना करूँ और किसकी स्तुति करूँ? हे देव! मैं तो उस सर्वेश्वर परमात्माको जानता भी नहीं हूँ ॥ 9 ॥
हे सत्यवतीतनय व्यासजी मेरे द्वारा किये गये दुरूह प्रश्नोंको सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने तब मुझसे ऐसा कहा- ॥ 10 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र तुमने आज एक दुरूह तथा उत्तम प्रश्न किया है, उसके विषयमें मैं क्या कहूँ? हे महाभाग साक्षात् विष्णुद्वारा भी इन प्रश्नोंका निश्चित उत्तर दिया जाना सम्भव नहीं है ॥ 11 ॥
हे महामते ! इस संसारके क्रियाकलापोंमें आसक्त कोई भी ऐसा नहीं है, जो इस तत्त्वका ज्ञान रखता हो कोई विरक्त, निःस्पृह तथा विद्वेषरहित हो इसे जान सकता है ॥ 12 ॥
प्राचीन कालमें जल प्रलयके होनेपर स्थावर जंगमादिक प्राणियोंके नष्ट हो जाने तथा मात्र पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होनेपर में कमलसे आविर्भूत हुआ ॥ 13 ॥
उस समय मैंने सूर्य, चन्द्र, वृक्षों तथा पर्वतों को नहीं देखा और कमलकर्णिकापर बैठा हुआ मैं विचार करने लगा- ॥ 14 ॥इस महासागरके जलमें मेरा प्रादुर्भाव किससे हुआ? मेरा निर्माण करनेवाला, रक्षा करनेवाला तथा युगान्तके समय संहार करनेवाला प्रभु कौन है ? ।। 15 ।।
कहीं भूमि भी स्पष्ट दिखायी नहीं दे रही है, जिसके आधारपर यह जल टिका है तो फिर यह | कमल कैसे उत्पन्न हुआ, जिसकी उत्पत्ति जल और पृथ्वीके संयोगसे ही प्रसिद्ध है ? ।। 16 ।।
आज मैं इस कमलका मूल आधार पंक अवश्य देखूंगा; और फिर उस पंककी आधारस्वरूपा भूमि भी | अवश्य मिल जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 17 ॥
तदनन्तर मैं जलमें नीचे उतरकर हजार वर्षोंतक पृथ्वीको खोजता रहा, किंतु जब उसे नहीं पाया तब आकाशवाणी हुई कि 'तपस्या करो'। तत्पश्चात् मैं उसी कमलपर आसीन होकर हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करता रहा ।। 18-19 ।।
इसके बाद पुनः एक अन्य वाणी उत्पन्न हुई 'सृष्टि करो' इसे मैंने साफ-साफ सुना उसे सुनकर व्याकुल चित्तवाला मैं सोचने लगा, किसका सृजन करूँ और किस प्रकार करूँ ? ॥ 20 ॥
उसी समय मधु-कैटभ नामवाले दो भयानक दैत्य मेरे सम्मुख आ गये। उस महासागरमें युद्धके लिये तत्पर उन दोनों दैत्योंसे मैं अत्यधिक भयभीत हो गया ॥ 21 ॥
तत्पश्चात् मैं उसी कमलकी नालका आश्रय लेकर जलके भीतर उतरा और वहाँ एक अत्यन्त अद्भुत पुरुषको मैंने देखा 22
उनका शरीर मेघके समान श्याम वर्णवाला था। वे पीत वस्त्र धारण किये हुए थे और उनकी चार भुजाएँ थीं। वे जगत्पति वनमालासे अलंकृत थे तथा शेषशय्यापर सो रहे थे ।। 23 ।।
वे शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुध धारण किये हुए थे। इस प्रकार मैंने शेषनागकी शय्यापर शयन करते हुए उन महाविष्णुको देखा ॥ 24 ॥
हे नारदजी। योगनिद्राके वशीभूत होनेके कारण निष्पन्द पड़े उन भगवान् अच्युतको शेषनागके ऊपर सोया हुआ देखकर मुझे अद्भुत चिन्ता हुई और मैं सोचने लगा कि अब क्या करूँ? तब मैंने निद्रास्वरूपा भगवतीका स्मरण किया और मैं उनकी स्तुति करने लगा ll 25-26ll [मेरी स्तुतिसे] वे कल्याणी भगवती विष्णु भगवान्के शरीरसे निकलकर आकाशमें विराजमान हुई। उस समय दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत के भगवती कल्पनाओंसे परे विग्रहवाली प्रतीत हो रही थीं ॥ 27 ॥
इस प्रकार विष्णुका शरीर तत्काल छोड़कर जब वे आकाशमें विराजित हो गयीं, तब उनके द्वारा मुक्त किये गये अनन्तात्मा वे जनार्दन उठ गये ॥ 28 ॥
तत्पश्चात् उन्होंने पाँच हजार वर्षोंतक उन दैत्योंके साथ घोर युद्ध किया। पुनः उन महामाया भगवतीके दृष्टिपातसे मोहित किये गये उन दोनों | दैत्योंको भगवान् विष्णुने मार दिया। अपनी जाँचको विस्तृत करके भगवान् विष्णुने उसीपर उन दोनोंका वध किया। उसी समय जहाँ हम दोनों थे, वहीं पर शंकरजी भी आ गये ।। 29-30
तब हम तीनोंने गगन मण्डलमें विराजमान उन मनोहर देवीको देखा। हमलोगोंके द्वारा उन परम शक्तिकी स्तुति किये जानेपर अपनी पवित्र कृपादृष्टिसे हमलोगोंको प्रसन्न करके उन्होंने वहाँ स्थित | हमलोगों से कहा- ॥ 31 ॥
देवी बोली हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश अब आपलोग सृष्टि, पालन एवं संहारके अपने-अपने कार्य प्रमादरहित होकर कीजिये। अब आपलोग अपना-अपना निवास बनाकर निर्भीकतापूर्वक रहिये; क्योंकि उन दोनों महादैत्योंका संहार हो गया है। अतः आपलोग अपनी विभूतियोंसे अण्डज, पिण्डन, उभिन और स्वेदन चारों प्रकारको सभी प्रजाओंका | सृजन कीजिये ।। 32-333 ।।
ब्रह्माजी बोले- उन भगवतीका वह मनोहर, सुखकर तथा मधुर वचन सुनकर हमलोगोंने उनसे कहा- हे माता! हमलोग शक्तिहीन हैं, अतः इन प्रजाओंका सृजन कैसे करें? अभी विस्तृत पृथ्वी ही नहीं है और सभी और जल ही जल फैला हुआ है। सृष्टिकार्यके लिये आवश्यक पंचतत्त्व, गुण, तन्मात्राएँ और इन्द्रियाँ - ये कुछ भी नहीं हैं। हमलोगों के ये वचन सुनकर भगवतीका मुखमण्डल मुसकानसे भर उठा ।। 34-36 ॥उसी समय वहाँ आकाशसे एक रमणीक विमान - हे आ पहुँचा। तत्पश्चात् उन भगवतीने कहा देवताओ! आप लोग निर्भीक होकर इस विमानमें इच्छानुसार बैठ जायँ ॥ 37 ॥
हे ब्रह्मा, विष्णु और शिव ! मैं आपलोगोंको आज इस विमानमें एक अद्भुत दृश्य दिखाऊँगी। उनका यह वचन सुनकर हम तीनों उनकी बात स्वीकार करके रत्नजटित, मोतियोंकी झालरोंसे शोभायमान, घंटियोंकी ध्वनिसे गुंजित तथा देव-भवनके तुल्य उस रमणीक विमानपर संशयरहित भावसे चढ़कर बैठ गये। तब भगवतीने हम जितेन्द्रिय देवताओंको बैठा हुआ | देखकर उस विमानको अपनी शक्तिसे आकाशमण्डलमें उड़ाया ।। 38-41 ॥