व्यासजी बोले- हे विभो। एक समयकी बात हैं, प्राणियोंको कर्म-फलका भोग करानेके लिये इन्द्रने पन्द्रह वर्षोंतक वृष्टि नहीं की ॥ 1 llइस अनावृष्टिके कारण घोर विनाशकारी दुर्भिक्ष पड़ गया। घर-घरमें शवोंकी संख्याका आकलन नहीं किया जा सकता था ॥ 2 ॥
क्षुधासे पीड़ित कुछ लोग घोड़ों और सूअरोंका भक्षण कर जाते थे और कुछ लोग मनुष्योंके शवतक खा जाते थे। माता अपने बच्चेको और पुरुष पत्नीको खा जाते थे। इस प्रकार सभी लोग क्षुधासे पीड़ित होकर एक-दूसरेको खानेके लिये दौड़ पड़ते थे ॥ 3-4 ॥
तब बहुत-से ब्राह्मणोंने एकत्र होकर यह उत्तम विचार प्रस्तुत किया कि महर्षि गौतम तपस्याके महान् धनी हैं। वे हमारे कष्टका निवारण कर देंगे। अतएव इस समय हम सभी लोगोंको मिलकर गौतमके आश्रम में चलना चाहिये। सुना गया है कि गायत्रीजपमें निरन्तर संलग्न रहनेवाले गौतमके आश्रम में इस समय भी सुभिक्ष है और बहुत लोग वहाँ गये हुए हैं ।। 5-63 ll
इस प्रकार परस्पर विचार करके वे सभी ब्राह्मण अग्निहोत्रकी सामग्री, अपने परिवारजनों, गोधन तथा दासोंको साथमें लेकर गौतमऋषिके आश्रमपर गये। कुछ लोग पूर्व दिशासे, कुछ लोग दक्षिण दिशासे, कुछ लोग पश्चिम दिशासे और कुछ लोग उत्तर दिशासे - इस प्रकार अनेक स्थलोंसे लोग वहाँ पहुँच गये ।। 7-83 ॥
ब्राह्मणोंके उस समाजको देखकर उन गौतमऋषिने प्रणाम किया और आसन आदि उपचारोंसे विप्रोंकी पूजा की। तत्पश्चात् महर्षि गौतमने उनका कुशल क्षेम तथा उनके वहाँ आनेका कारण पूछा ॥ 9-10 ॥
उन सभी ब्राह्मणोंने उदास होकर अपना-अपना वृत्तान्त कहा। मुनि गौतमने उन विप्रोंको दुःखित देखकर उन्हें अभय प्रदान किया। [और कहा-] हे विप्रो यह आश्रम आपलोगोंका घर है और मैं हर तरहसे आपलोगोंका दास हूँ। मुझ दासके रहते आपलोगोंको चिन्ता किस बात की? आप सभी तपोधन ब्राह्मण यहाँ आये हैं, इसलिये मैं अपनेको धन्य मानता हूँ। जिनके दर्शनमात्रसे दुष्कृत भी सुकृतमें परिणत हो जाता है, वे सभी विप्रगण अपनेचरणरजसे मेरे आश्रमको पवित्र बना रहे हैं। आपलोगोंक अनुग्रहसे मुझसे बढ़कर धन्य दूसरा कौन है ? सन्ध्या और जपमें निरन्तर संलग्न रहनेवाले आप सभी लोग सुखपूर्वक यहाँ रहिये ॥ 11 – 143 ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन्!] इस प्रकार सभी ब्राह्मणोंको आश्वस्त करके मुनिराज गौतम भक्ति भावसे सिर झुकाकर गायत्रीकी प्रार्थना करने लगे हे देवि ! आपको नमस्कार है। आप महाविद्या, | वेदमाता और परात्परस्वरूपिणी हैं। व्याहृति आदि महामन्त्रों तथा प्रणवके स्वरूपवाली, साम्यावस्थामें विराजमान रहनेवाली तथा ह्रींकार स्वरूपवाली हे मातः! आपको नमस्कार है ॥ 15-17 ॥
स्वाहा और स्वधा - रूपसे शोभा पानेवाली हे देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली, भक्तोंके लिये कल्पलतासदृश, तीनों |अवस्थाओंकी साक्षिणी-स्वरूपा, तुरीयावस्थासे अतीत स्वरूपवाली, सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी, सभी वेदान्तोंकी वेद्यविषयरूपा, सूर्यमण्डलमें विराजमान रहनेवाली, प्रात: कालमें बाल्यावस्था तथा रक्तवर्णवाली, मध्याह्नकालमें श्रेष्ठ युवतीकी भाँति शोभा पानेवाली और सायंकालमें वृद्धास्वरूपिणी तथा कृष्णवर्णवाली उन भगवतीको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली हे परमेश्वरि! हे देवि आप क्षमा करें ॥ 18- 203 ॥
गौतमजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर जगज्जननी भगवतीने उन्हें अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उन्होंने उन गौतमऋषिको एक ऐसा पूर्णपात्र प्रदान किया, जिसके द्वारा सबका भरण-पोषण हो सके ॥ 213 ॥ उन जगदम्बाने मुनिसे कहा- आप जिस-जिस वस्तुकी कामना करेंगे, मेरे द्वारा प्रदत्त यह पूर्णपात्र उसकी पूर्ति करनेवाला सिद्ध होगा ॥ 223 ॥
ऐसा कहकर श्रेष्ठ कलास्वरूपिणी भगवती गायत्री अन्तर्धान हो गयीं। हे राजन् ! उस पात्रसे पर्वतके समान विशाल अन्नराशि, छः प्रकारके रस, भाँति-भाँतिके तृण, दिव्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, यज्ञोंकी सामग्रियाँ तथा अनेक प्रकारके पात्र निकले ।। 23-25 ॥हे राजन् उन महात्मा गौतमको जिस-जिस पदार्थकी अभिलाषा होती थी, वे सभी पदार्थं भगवती गायत्रीके द्वारा प्रदत्त उस पूर्णपात्रसे निकल आते थे ॥ 26 ॥
इसके बाद मुनिवर गौतमने सभी मुनियोंको बुलाकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक धन-धान्य, आभूषण तथा वस्त्र आदि प्रदान किये। उस पूर्णपात्रसे निर्गत गाय-भैंस आदि पशु तथा स्रुक् स्रुवा आदि यज्ञकी सामग्रियाँ सभी मुनियोंको दी गयीं ॥। 27-28 ll
तदनन्तर वे सभी मुनि एकत्र होकर गौतमऋषिकी आज्ञासे नानाविध यज्ञ करने लगे। इस प्रकार वह आश्रम स्वर्गके समान एक अत्यन्त दिव्य स्थान हो गया ।। 29 ।।
तीनों लोकोंमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तु दृष्टिगत होती, वह सब कुछ गायत्रीके द्वारा दिये गये पात्रसे प्राप्त हो जाती थी ॥ 30 ॥
मुनियोंको स्वियों भूषण आदिके द्वारा देवांगनाओंकी भाँति और मुनिगण वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे देवताओंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ 31 ॥
गौतमऋषिके आश्रममें चारों ओर नित्य उत्सव मनाया जाने लगा। किसीको भी रोग आदिका कोई भी भय नहीं था और दैत्योंका कहीं भी भय नहीं रहा ।। 32 ।।
गौतममुनिका वह आश्रम चारों ओरसे सौ योजनके विस्तारवाला हो गया; और भी अन्य जिन प्राणियोंको इसकी जानकारी हुई, वे भी वहाँ आ गये। तब आत्मज्ञानी गौतममुनिने उन्हें अभय प्रदान करके उन सभीके भरण-पोषणका समुचित प्रबन्ध कर दिया। अनेक प्रकारके महायज्ञोंके विधिपूर्वक सम्पन्न हो जानेसे देवतागण परम प्रसन्न हुए और मुनिका यशोगान करने लगे। वृत्रासुरका संहार करनेवाले महान् यशस्वी इन्द्रने भी अपनी सभामें बार-बार यह श्लोक कहा-अहो, इस समय ये गौतमऋषि हमारे लिये साक्षात् कल्पवृक्षके रूपमें प्रतिष्ठित होकर हमारे सभी मनोरथ पूर्ण कर रहे हैं, अन्यथा इस दुष्कालमें जहाँ जीवनकी आशा भी अत्यन्त दुर्लभ थी, फिर हमलोग हवि कैसे प्राप्त करते ? ।। 33-36 llइस प्रकार वे मुनिवर गौतम अभिमानकी गन्धतकसे रहित होकर बारह वर्षोंतक उन श्रेष्ठ मुनियोंका
पुत्रवत् पालन-पोषण करते रहे ॥ 37 ॥ उन मुनिश्रेष्ठ गौतमने गायत्रीकी उपासनाहेतु एक पवित्र स्थलका निर्माण कराया, जहाँ सभी श्रेष्ठ मुनिगण पुरश्चरण आदि कर्मोंके द्वारा परम भक्तिके साथ तीनों कालों-प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकालमें भगवती जगदम्बाकी पूजा करते थे। उस स्थानपर आज भी वे भगवती प्रातः काल बाला- रूपमें, मध्याह्न कालमें युवतीके रूपमें तथा सायंकालमें वृद्धाके रूपमें दृष्टिगोचर होती हैं ॥ 38-393 ।।
एक बार मुनिश्रेष्ठ नारदजी अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए और गायत्रीके उत्तम गुणोंका गान करते हुए वहाँ आये और पुण्यात्मा मुनियोंकी सभामें बैठ गये 40-41 ।।
तत्पश्चात् गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियोंसे विधिवत् पूजित होकर शान्त मनवाले नारदजी गौतमकी यश-सम्बन्धी विविध कथाओंका वर्णन करने लगे - हे ब्रह्मर्षे! देवराज इन्द्रने मुनियोंके भरण पोषणसे सम्बन्धित आपकी विमल कीर्तिका गान देवताओंकी सभामें अनेक प्रकारसे किया है। शचीपति इन्द्रकी वही वाणी सुनकर आपका दर्शन करनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ ! जगदम्बाकी कृपासे आप धन्य हैं ll 42-44 ll
उन मुनिवर गौतमसे ऐसा कहकर नारदजी गायत्री - सदनमें गये। प्रेमसे प्रफुल्लित नेत्रोंवाले नारदजीने वहाँ उन भगवती जगदम्बाका दर्शन किया और विधिवत् उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्गके लिये प्रस्थान किया। इसके बाद वहाँपर मुनि गौतमके द्वारा पालित-पोषित जो ब्राह्मण थे, वे मुनिका उत्कर्ष सुनकर ईर्ष्यासे दुःखी हो गये। कुछ समय बीतनेके बाद उन सभीने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रकारसे हमलोगोंको सर्वथा वही प्रयत्न करना चाहिये, | जिससे इस गौतमऋषिका यश न बढ़े ॥। 45 - 47 ॥
हे महाराज! कुछ कालके अनन्तर पृथ्वीतलपर वृष्टि भी होने लगी और सभी देशोंमें सुभिक्ष हो गया।सर्वत्र सुभिक्षकी बात सुनकर वे ब्राह्मण एकत्र हो गये और हे राजन् ! हाय हाय! वे गौतमको शाप देनेका प्रयत्न करने लगे। वे माता-पिता भी आज धन्य हो गये, जिनके यहाँ ऐसे [कृतघ्न ब्राह्मण-] पुत्रोंका जन्म हुआ है ॥ 48-50 ॥
हे राजन्! कालकी महिमा भला कौन जान सकता है? उस समय उन ब्राह्मणोंने मायाके द्वारा एक मरणासन्न वृद्ध गाय बनायी, जब मुनि हवन कर रहे थे, उसी समय वह गाय यज्ञशालामें पहुंची। मुनि गौतमने 'हुं हूं' शब्दोंसे उसे आनेसे रोका; उसी क्षण उसने अपने प्राण त्याग दिये ॥ 51-52 ॥
तब वे ब्राह्मण जोर-जोरसे कहने लगे कि इस दुष्ट गौतमने गौकी हत्या कर दी। तब मुनिराज गौतम हवन समाप्त करनेके पश्चात् इस घटनासे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे। वे अपने नेत्र बन्द करके समाधिमें स्थित होकर इसके कारणपर विचार करने लगे। यह सब कुछ ब्राह्मणोंने ही किया है-ऐसा जानकर उन्होंने प्रलयकालीन रुद्रके क्रोधके समान परम कोप किया। इस प्रकार कोपसे लाल नेत्रोंवाले उन गौतमने सभी ऋषियोंको यह शाप दे दिया 'अधम ब्राह्मणो! तुमलोग वेदमाता गायत्रीकी उपासना, ध्यान और उनके मन्त्र जपसे सर्वथा विमुख हो जाओ हे अथम ब्राह्मणो वेद, वेदोक्त यज्ञों तथा वेदसम्बन्धी वार्ताओंसे तुम सभी सदा वंचित रहो। हे अधम ब्राह्मणो! तुम सभी शिवोपासना, शिव-मन्त्रके जप तथा शिव-सम्बन्धी शास्त्रोंसे सर्वदा विमुख हो जाओ ॥ 53-58 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! मूलप्रकृति भगवती श्रीदेवीकी उपासना, उनके ध्यान तथा उनकी कथाओंसे तुमलोग सदा विमुख हो जाओ हे अधम ब्राह्मणो देवीके मन्त्र जप, उनकी प्रतिष्ठास्थली तथा उनके अनुष्ठान कर्मसे तुमलोग सदा पराङ्मुख हो जाओ ।। 59-60 ॥
हे अधम ब्राह्मणो देवीका उत्सव देखने तथा उनके नामोंके कीर्तनसे तुम सब सदा विमुख रहो। हे अधम ब्राह्मणो देवी भक्तके समीप रहने तथा देवी भक्तोंकी अर्चना करनेसे तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ।। 61-62 ।।हे अधम ब्राह्मणो ! भगवान् शिवका उत्सव देखने तथा शिवभक्तका पूजन करनेसे तुम सदा विमुख रहो। हे अधम ब्राह्मणो ! रुद्राक्ष, बिल्वपत्र तथा शुद्ध भस्मसे तुमलोग सर्वदा वंचित रहो ॥ 63-64 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! श्रौतस्मार्त सम्बन्धी सदाचार तथा ज्ञान-मार्गसे तुमलोग सदा वंचित रहो। हे अधम ब्राह्मणो! अद्वैत ज्ञाननिष्ठा और शम-दम आदि साधनोंसे तुमलोग सर्वदा विमुख रहो ॥ 65-66 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! नित्यकर्म आदिके अनुष्ठान तथा अग्निहोत्र आदि सम्पन्न करनेसे भी तुमलोग सदा वंचित हो जाओ ॥ 67 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! स्वाध्याय-अध्ययन तथा प्रवचन आदिसे भी तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ 68 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! गौ आदिके दान और पितरोंके श्राद्धकर्मसे तुम सभी लोग सदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ 69 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रतों तथा पाप आदिके प्रायश्चित्त कर्मोंसे तुम सभी लोग सर्वदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ 70 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग देवी भगवतीके अतिरिक्त अन्य देवताओंके प्रति श्रद्धा तथा भक्तिसे युक्त होकर और शंख-चक्र आदिका चिह्न धारण करनेवाले हो जाओ ॥ 71 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग कापालिक मतमें आसक्त, बौद्ध शास्त्रोंके परायण तथा पाखण्डपूर्ण आचारमें निरत रहो ॥ 72 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग पिता, माता, पुत्री, भाई, कन्या और पत्नीका विक्रय करनेवाले व्यक्तियोंके समान हो जाओ ॥ 73 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! वेदका विक्रय करनेवाले, तीर्थ बेचनेवाले और धर्म बेचनेवाले व्यक्तियोंके समान | तुमलोग हो जाओ ॥ 74 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग पांचरात्र, कामशास्त्र, कापालिक मत और बौद्ध मतके प्रति श्रद्धा रखनेवाले हो जाओ ॥ 75 ॥हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग माता, कन्या, भगिनी तथा परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार करनेवाले हो जाओ ।। 76 ।।
तुम्हारे वंशमें उत्पन्न स्त्रियाँ तथा पुरुष मेरे द्वारा दिये हुए इस शापसे दग्ध होकर तुमलोगोंके ही समान हो जायँगे ॥ 77 ॥ मेरे अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन! मूलप्रकृति परमेश्वरी भगवती गायत्रीका अवश्य ही तुमलोगों पर महान् कोप है। अतः तुमलोगोंका अन्धकूप आदि नरककुण्डोंमें सदा वास होगा ॥ 783 ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकारका वाग्दण्ड देकर गौतममुनिने आचमन किया और तत्पश्चात् भगवती गायत्रीके दर्शनार्थ अत्यन्त उत्सुक होकर वे देवी मन्दिर गये। वहाँ उन्होंने महादेवीको प्रणाम किया। वे परात्परा भगवती गायत्री भी ब्राह्मणोंकी कृतघ्नताको देखकर स्वयं अपने मनमें चकित हो रही थीं और आज भी उनका मुख है । 79-81 ॥ आश्चर्यसे युक्त दिखायी पड़ता आश्चर्ययुक्त मुखकमलवाली भगवती गायत्रीने उन मुनिवर गौतमसे कहा- 'हे महाभाग ! सर्पको दिया गया दुग्ध उसके विषको ही बढ़ानेवाला होता है। अब आप धैर्य धारण कीजिये; क्योंकि कर्मकी ऐसी ही गति होती है।' तत्पश्चात् भगवतीको प्रणामकर गौतमजी अपने आश्रमके लिये चल दिये ।। 82-83 ॥
तब शापदग्ध वे ब्राह्मण वेदोंको भूल गये। उन सभीको गायत्री मन्त्र भी विस्मृत हो गया। ऐसी आश्चर्यकारी घटना हुई ॥ 84 ॥ अब वे सभी ब्राह्मण एकत्र होकर पश्चात्ताप
करने लगे और दण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिरकर उन्होंने
मुनिवर गौतमको प्रणाम किया ।। 85 ।।
लज्जासे अपने मुख नीचेकी ओर किये हुए वे कुछ भी वाक्य नहीं बोल सके। वे चारों ओरसे मुनीश्वरको घेरकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगे-आप प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न | हो जाइये ॥ 86 ॥इसपर मुनिका हृदय करुणासे भर आया और वे उन ब्राह्मणोंसे बोले- 'कृष्णावतारपर्यन्त तुमलोगोंको कुम्भीपाक नरकमें वास करना पड़ेगा; क्योंकि मेरा वचन मिथ्या कदापि नहीं हो सकता—इसे तुमलोग भलीभाँति जान लो । तत्पश्चात् कलियुगमें भूमण्डलपर तुमलोगोंका जन्म होगा। मेरे द्वारा कही गयी ये सारी बातें अन्यथा नहीं हो सकतीं। यदि मेरे शापसे मुक्तिकी तुमलोगोंको इच्छा है, तो तुम सब भगवती गायत्रीके चरणकमलकी सदा उपासना करो' ॥ 87-90 ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतमने सभी ब्राह्मणोंको विदा कर दिया। तत्पश्चात् 'यह सब प्रारब्धका प्रभाव है'- ऐसा मानकर उन्होंने अपना चित्त शान्त कर लिया। हे राजन् ! यही कारण है कि बुद्धिसम्पन्न भगवान् श्रीकृष्णके महाप्रयाण करनेके पश्चात् कलियुग आनेपर वे सभी ब्राह्मण कुम्भीपाक नरककुण्डसे निकल आये ॥ 91-92 ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें शापसे दग्ध वे ब्राह्मण भूमण्डलपर उत्पन्न हुए; जो त्रिकाल सन्ध्यासे हीन, भगवती गायत्रीकी भक्तिसे विमुख, वेदोंके प्रति श्रद्धारहित, पाखण्डमतका अनुसरण करनेवाले, अग्निहोत्र आदि सत्कर्म न करनेवाले और स्वाहा स्वधासे रहित हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं, जो मूलप्रकृति तथा अव्यक्तस्वरूपिणी गायत्रीके विषयमें कुछ भी नहीं जानते। कोई-कोई तप्तमुद्रा धारण करके स्वेच्छाचार-परायण हो गये हैं। उनमें से कुछ कापालिक, कौलिक, बौद्ध तथा जैनमतको माननेवाले हैं, वे सभी पण्डित होते हुए भी दुराचारके प्रवर्तक हैं। परायी स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेवाले सभी लम्पट अपने कुत्सित कर्मोंके कारण पुनः उसी कुम्भीपाक नरककुण्डमें जायँगे ॥ 93-97 ॥
अतएव हे राजन्! हर प्रकारसे परमेश्वरीकी उपासना करनी चाहिये। न विष्णुकी उपासना नित्य है और न तो शिवकी ही उपासना नित्य है; केवल शक्तिकी उपासना नित्य है, जिसके न करनेसे मनुष्यका अधःपतन हो जाता है। हे निष्पाप ! आपने मुझसे जो पूछा था, वह सब मैंने संक्षेपमें बता दिया। अब आपमणिद्वीपका मनोरम वर्णन सुनिये, जो जगत्को उत्पन्न करनेवाली आदिशक्तिस्वरूपिणी भुवनेश्वरीका परमधाम है ॥ 98- 100 ॥