जनमेजय बोले- हे महामते ! वसिष्ठजी द्वारा शापित वह राजकुमार त्रिशंकु उस शापसे किस प्रकार मुक्त हुआ, उसे मुझे बताइये ॥ 1 ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन्!] इस प्रकार शापग्रस्त सत्यव्रत पिशाचत्वको प्राप्त हो गये। वे देवीभक्तिमें संलग्न होकर उसी आश्रममें रहने लगे ॥ 2 ॥
किसी समय राजा सत्यव्रत नवाक्षर मन्त्रका जप समाप्त करके हवन करानेके लिये ब्राह्मणोंके पास जाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उनसे बोले-हे भूदेवगण! आपलोग मुझ शरणागतकी प्रार्थना सुनिये। इस समय आप सभी लोग मेरे यज्ञमें ऋत्विक् होनेकी कृपा कीजिये आप सब कृपालु तथा वेदवेत्ता विप्रगण मेरे कार्यकी सिद्धिके लिये जपके दशांशसे हवन कर्म सम्पन्न करा दीजिये। हे ब्रह्मविदोंमें श्रेष्ठ विप्रगण ! मेरा नाम सत्यव्रत है; मैं एक राजकुमार हूँ। मेरे सर्वविध सुखके लिये आपलोग मेरा यह कार्य सम्पन्न कर दें ॥ 3-6 ॥यह सुनकर ब्राह्मणोंने उस राजकुमारसे कहा अपने गुरुसे शापग्रस्त होकर इस समय तुम पिशाच बन गये हो, इसलिये वेदोंपर अधिकार न रहनेके कारण तुम यज्ञ करनेके योग्य नहीं हो। तुम सभी लोकों में निन्द्य पैशाचिकतासे ग्रस्त हो चुके हो ॥ 7-8 ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] उनकी बात सुनकर राजा अत्यन्त दुःखित हुए। [ वे सोचने लगे-] मेरे जीवनको धिक्कार है, अब मैं वनमें रहकर क्या करूँ ? पिताने मेरा परित्याग कर दिया है, गुरुने मुझे घोर शाप दे दिया है, राज्यसे च्युत हो गया हूँ और पैशाचिकतासे ग्रस्त हो चुका हूँ, तो ऐसी स्थितिमें मैं क्या करूँ ? ।। 9-10 ॥
तत्पश्चात् उस राजकुमारने लकड़ियोंसे बहुत बड़ी चिता तैयार करके उसमें प्रवेश करनेका विचार करते हुए भगवती चण्डिकाका स्मरण किया ॥ 11 ॥ भगवती महामायाका स्मरण करके उसने चिता प्रज्वलित की और स्नान करके उसमें प्रविष्ट होनेके लिये दोनों हाथ जोड़कर चिताके सामने खड़ा हो गया ॥ 12 ॥
राजकुमार सत्यव्रत मरनेहेतु उद्यत हैं- ऐसा जानकर भगवती जगदम्बा उनके सामने आकाशमें प्रत्यक्ष स्थित हो गयीं। हे महाराज! सिंहपर आरूढ़ वे देवी राजकुमारको दर्शन प्रदान करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें उनसे कहने लगीं ॥। 13-14 ॥
देवी बोलीं- हे साधो! आप यह दुष्प्रयास क्यों कर रहे हैं ? इस तरह अग्निमें देहत्याग मत कीजिये। हे महाभाग ! आप स्वस्थचित्त हो जाइये। आपके वृद्ध पिता आपको राज्य सौंपकर तपस्याके लिये वनमें जानेवाले हैं। हे वीर! शोकका त्याग | कीजिये। हे राजन्! आपके पिताके मन्त्रीगण आपको ले जानेके लिये परसों आयेंगे। मेरी कृपाके प्रभावसे आपके पिताजी राजसिंहासनपर आपका अभिषेक करके कामनापर विजय प्राप्तकर ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करेंगे; यह सुनिश्चित है ॥ 15 - 173 ॥ व्यासजी बोले - राजकुमारसे ऐसा कहकर देवी
वहीँपर अन्तर्धान हो गयीं। तब राजकुमार सत्यव्रतने
चितामें जलकर मरनेका विचार छोड़ दिया ॥ 183॥तत्पश्चात् महात्मा नारदजीने अयोध्यामें आकर आरम्भसे लेकर सत्यव्रतका सारा वृत्तान्त राजा अरुणसे कह दिया ॥ 193॥ अपने पुत्रकी उस प्रकारकी जलकर मरनेकी
चेष्टा सुनकर राजा अत्यन्त दुःखीचित्त होकर तरह तरहकी बात सोचने लगे ॥ 203 ॥ पुत्रके शोकमें निमग्न धर्मात्मा राजा अरुणने मन्त्रियोंसे कहा- आपलोग मेरे पुत्रके द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण चेष्टाके विषयमें जान गये हैं। मैंने अपने बुद्धिमान् पुत्र सत्यव्रतका वनमें त्याग कर दिया था। परमार्थका ज्ञान रखनेवाला वह पुत्र यद्यपि राज्यका अधिकारी था, फिर भी मेरी आज्ञासे वह तत्काल वन चला गया। मेरा वह क्षमाशील पुत्र धनहीन होकर अभी उसी वनमें [देवीकी] उपासनामें रत होकर रह रहा है। वसिष्ठजीने उसे शाप दे दिया है और पिशाचतुल्य बना दिया है । 21 - 233 ॥
दुःखसे सन्तप्त वह सत्यव्रत आज अग्निमें प्रवेश करनेको तत्पर हो गया था, किंतु भगवतीने उसे ऐसा करनेसे मना कर दिया। इस समय वह वहींपर स्थित है। अतः आपलोग शीघ्र जाइये और मेरे उस महाबली ज्येष्ठ पुत्रको अपने वचनोंसे आश्वासन देकर तुरंत यहाँ ले आइये। प्रजापालन करनेमें समर्थ अपने औरस पुत्रका राज्याभिषेक करके मैं शान्त | होकर वनमें चला जाऊँगा। अब मैंने तपस्याके लिये निश्चय कर लिया है ।। 24-263 ॥
ऐसा कहकर पुत्रप्रेममें प्रवृत्त मनवाले राजा अरुणने सत्यव्रतको लानेके लिये अपने सभी मन्त्रियोंको वहाँ भेज दिया ॥ 273 ॥ वनमें जाकर वे मन्त्री महात्मा राजकुमार सत्य व्रतको आश्वासन देकर उन्हें सम्मानपूर्वक अयोध्या ले आये ॥ 283 ॥
सत्यव्रतको अत्यन्त दुर्बल, मलिन वस्त्र धारण किये, बड़े-बड़े जटाजूटवाला, भयंकर तथा चिन्तासे व्यग्र देखकर राजा [अरुण] सोचने लगे कि मैंने यह कैसा निष्ठुर कर्म कर डाला था, जो कि धर्मका वास्तविक स्वरूप जानते हुए भी मैंने राजपदके योग्य तथा अत्यन्त | मेधावी पुत्रको निर्वासित कर दिया था ॥ 29-303 ॥[हे राजन्!] इस प्रकार मन-ही-मन सोचकर महाराज [अरुण ] -ने राजकुमार सत्यव्रतको वक्षःस्थलसे लगा लिया और उसे सम्यक् आश्वासन देकर अपने पासमें ही स्थित आसनपर बैठा लिया। तत्पश्चात् नीतिशास्त्रके पारगामी विद्वान् राजा अरुण पासमें बैठे हुए अपने उस पुत्रसे प्रेमयुक्त गद्गद वाणीमें कहने लगे ॥ 31-323 ॥
राजा बोले- हे पुत्र ! तुम सदा धर्ममें ही अपनी बुद्धि लगाना, विप्रोंका सम्मान करना, न्यायपूर्वक प्राप्त धन ही ग्रहण करना, प्रजाओंकी सर्वदा रक्षा करना, कभी असत्य भाषण मत करना, निन्दित मार्गका अनुसरण मत करना, शिष्टजनोंके आज्ञानुसार कार्य करना, तपस्वियोंकी पूजा करना, क्रूर लुटेरोंका दमन करना और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखना। हे पुत्र ! कार्यसिद्धिके लिये राजाको अपने मन्त्रियोंके साथ सदा गुप्त मन्त्रणा करते रहना चाहिये। हे सुत! सबके आत्मास्वरूप राजाको चाहिये कि छोटे-से छोटे शत्रुकी भी उपेक्षा न करे। शत्रुसे मिले हुए अपने अत्यन्त विनम्र मन्त्रीपर भी राजाको विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ 33-37॥
सर्वत्र शत्रु तथा मित्रकी गतिविधियोंको जाननेके लिये सर्वदा गुप्तचरोंकी नियुक्ति करनी चाहिये, धर्ममें सदा बुद्धि लगाये रखनी चाहिये और प्रतिदिन दान देते रहना चाहिये। नीरस सम्भाषण नहीं करना चाहिये, दुष्टोंकी संगतिका त्याग कर देना चाहिये, विविध यज्ञानुष्ठान करते रहना चाहिये और महर्षियोंकी सदा पूजा करनी चाहिये। स्त्री, नपुंसक तथा द्यूतपरायण | व्यक्तिपर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये और आखेटके प्रति अत्यन्त आदरबुद्धि कभी नहीं रखनी चाहिये ।। 38-40 ॥
द्यूत, मदिरा, अश्लील संगीत तथा वेश्याओंसे स्वयं बचना चाहिये और अपनी प्रजाओंको भी इनसे बचाना चाहिये। ब्राह्ममुहूर्तमें [ शयनसे] सदा निश्चय ही उठ जाना चाहिये। तत्पश्चात् दीक्षित मनुष्यको स्नान आदि सभी नित्य नियमोंसे निवृत्त होकर भलीभाँति भक्तिपूर्वक पराशक्ति जगदम्बाकी पूजा करनी चाहिये। हे पुत्र ! पराशक्ति जगदम्बाके चरणोंकी | पूजा हो इस जन्मकी सफलता है ॥ 41-43 ॥एक बार भी भगवती जगदम्बाकी महापूजा करके उनके चरणोदकका पान करनेवाला मनुष्य फिर कभी माताके गर्भ में नहीं जाता, यह सर्वथा निश्चित है ॥ 44 ॥ सारा जगत् दृश्य है और महादेवी द्रष्टा तथा साक्षी हैं - इस प्रकारकी भावनासे युक्त होकर सदा भयमुक्त चित्तसे रहना चाहिये ॥ 45 ॥
[[हे पुत्र!] तुम प्रतिदिन नित्य-नियमका पालन करके सभामें जाना और द्विजोंको बुलाकर उनसे धर्मशास्त्रसम्बन्धी निर्णय पूछना ॥ 46 ॥
वेद-वेदान्तके पारगामी आदरणीय विद्वानोंकी विधिवत् पूजा करके सुयोग्य पात्रोंको गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिका सदा दान करना ॥ 47 ॥
तुम कभी भी किसी मूर्ख ब्राह्मणकी पूजा मत करना और मूर्ख व्यक्तिको कभी भी भोजनसे अधिक कुछ भी मत देना। हे पुत्र ! तुम किसी भी परिस्थितिमें लोभवश धर्मका उल्लंघन मत करना। इसके अतिरिक्त तुम्हें कभी भी विप्रोंका अपमान नहीं करना चाहिये । | पृथ्वीके देवतास्वरूप ब्राह्मणोंका प्रयत्नपूर्वक सम्मान करना चाहिये। क्षत्रियोंके एकमात्र आधार ब्राह्मण ही हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 48-50 ॥
जलसे अग्निकी, ब्राह्मणसे क्षत्रियकी और पत्थरसे लोहेकी उत्पत्ति हुई है। उनका सर्वत्रगामी तेज अपनी ही योनिमें शान्त होता है। अतः ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको विशेषरूपसे विनम्रतापूर्वक दानके द्वारा ब्राह्मणोंका सत्कार करना चाहिये राजाको चाहिये कि वह धर्मशास्त्र के अनुसार दण्डनीतिका पालन करे और न्यायसे उपार्जित धनका निरन्तर संग्रह करे ॥ 51-53॥