व्यासजी बोले- त्रिकोणके मध्यभागमें भगवती जगदम्बाका वही चिन्तामणि नामक भवन विराजमान है। उसमें हजार स्तम्भोंवाले चार मण्डप विद्यमान हैं ॥ 1 ॥ उनमें पहला श्रृंगारमण्डप, दूसरा मुक्तिमण्डप, तीसरा ज्ञानमण्डप और चौथा एकान्तमण्डप कहा गया है॥ 23 ॥ अनेक प्रकारके वितानोंसे युक्त तथा नानाविध धूपोंसे सुवासित ये सुन्दर मण्डप कान्तिमें करोड़ों सूर्योंके समान दीप्तिमान् रहते हैं ॥ 33 ॥
हे राजन् ! उन मण्डपोंके चारों ओर केसर, मल्लिका और कुन्दकी वाटिकाएँ बतायी गयी हैं, जिनमें मृगमदोंसे परिपूर्ण तथा मदस्रावी असंख्य गन्धमृग स्थित हैं । उसी प्रकार मण्डपोंके चारों ओर रत्नसे निर्मित सोपानोंवाली महापद्माटवी है। वह अमृतरससे परिपूर्ण, गुंजार करते हुए मतवाले भौरोंसे युक्त, कारण्डवों तथा हंसोंसे सदा सुशोभित और चारों ओरसे सुगन्धसे परिपूर्ण तटवाली है। इस प्रकार वह मणिद्वीप इन वाटिकाओंकी सुगन्धोंसे सदा सुवासित रहता है ॥4-7॥शृंगारमण्डपके मध्यभागमें विराजमान जगदम्बिकाके चारों ओर सभासद्के रूपमें श्रेष्ठ देवगण विद्यमान रहते हैं और वहाँ देवियाँ नानाविध स्वरोंमें सदा गाती रहती हैं। मुक्तिमण्डपके मध्यमें विराजमान होकर कल्याणमयी भगवती जगदम्बा भक्तोंको सदा मुक्ति प्रदान करती रहती हैं और हे राजन् ! तीसरे ज्ञानमण्डपमें विराजमान होकर वे ज्ञानका उपदेश करती हैं। एकान्तमण्डप नामक चौथे मण्डपमें अपनी मन्त्रिणियोंके साथ भगवती जगत्की रक्षाके विषयमें नित्य विचार विमर्श किया करती हैं ॥ 8-10 ॥
हे राजन् ! चिन्तामणिगृहमें भगवतीके शक्ति तत्त्वरूपी दस श्रेष्ठ सोपानोंसे युक्त उनका मंच अत्यधिक सुशोभित होता है ॥ 11 ॥
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और सदाशिव ईश्वर-ये उस मंचके पाये कहे गये हैं। सदाशिव मंचके फलक हैं। उसके ऊपर भुवनेश्वर महादेव विराजमान हैं॥ 123 ॥
सृष्टिके आदिमें अपनी लीला करनेके लिये जो भगवती स्वयं दो रूपोंमें प्रकट हुई थीं, उन्हींके अर्धांगस्वरूप ये भगवान् महेश्वर हैं ॥ 133 ॥
वे कामदेवके अभिमानका नाश करनेमें परम कुशल, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर, पाँच मुख तथा तीन नेत्रोंसे युक्त और मणिके भूषणोंसे विभूषित हैं ॥ 143 ॥
सदा सोलह वर्षके प्रतीत होनेवाले वे सर्वेश्वर
महादेव अपनी भुजाओंमें हरिण, अभयमुद्रा, परशु तथा वरमुद्रा धारण किये हुए हैं ॥ 153 ॥ वे त्रिनेत्र महादेव करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान, करोड़ों चन्द्रमाके समान शीतल, शुद्ध स्फटिकमणिके समान आभावाले तथा शीतल कान्तिवाले हैं ॥ 163 ॥ इनके वाम अंकमें देवी श्रीभुवनेश्वरी विराजमान हैं, वे नौ प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णकी करधनीसे सुशोभित हैं और तप्त सुवर्ण तथा वैदूर्यमणिसे निर्मित बाजूबन्दसे भूषित हैं ॥ 17-18ll
कमलके समान मुखवाली भगवतीके कानों में श्रीचक्रकी आकृतिके समान सुवर्णका कर्णफूल सुशोभित हो रहा है। उनके ललाटकी कान्तिके वैभवने अर्धचन्द्रके सौन्दर्यको जीत लिया है ॥ 19 ॥वे बिम्बाफलकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाले होठोंसे सुशोभित हैं। कुमकुम कस्तूरीके तिलकसे अनुलिप्त उनका मुखमण्डल अति प्रकाशित है ॥ 20 ॥ कान्तियुक्त चन्द्रमा तथा सूर्यके समान दिव्य तथा उज्ज्वल रत्नमय चूडामणि उनके मस्तकपर विराजमान है। उदयकालीन शुक्रनक्षत्रके सदृश स्वच्छ नासिकाभूषणसे वे सुशोभित हैं ॥ 21 ॥
चिन्ताक नामक कण्ठभूषणमें लटकते हुए मोतीके गुच्छसे वे सुशोभित हो रही हैं। चन्दन, कपूर और कुमकुमके अनुलेपसे उनका वक्षःस्थल अलंकृत है ॥ 22 ॥
वे अनेक रूपोंसे सुसज्जित, शंखके समान ग्रीवावाली तथा अनारके दानोंके सदृश दन्तपंक्तिसे सुशोभित हो रही हैं ॥ 23 ॥
वे अपने मस्तकपर बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित मुकुट धारण किये रहती हैं। उनके मुखकमल पर मतवाले भ्रमरोंकी पंक्तिके सदृश अलकावली सुशोभित है ॥ 24 ॥
वे कलंककी कालिमासे रहित शारदीय चन्द्रमाके सदृश मुखमण्डलवाली हैं और गंगाके जलावर्त (भँवर)-तुल्य सुन्दर नाभिसे विभूषित हैं ॥ 25 ॥
वे माणिक्यके दानोंसे जटित मुद्रिकासे युक्त अँगुलियोंसे सुशोभित हैं और कमलदलकी आकृतिवाले तीन नेत्रोंसे वे अत्यन्त सौन्दर्यमयी प्रतीत होती हैं ॥ 26 ॥
वे शानपर चढ़ाकर अतीव स्वच्छ किये गये महाराग तथा पद्मरागमणिके सदृश उज्ज्वल कान्तिसे सम्पन्न हैं और रत्नमय घुँघरूवाली करधनी तथा रत्ननिर्मित कंकणसे सुशोभित हैं ॥ 27 ॥
उनके चरणकमल मणियों और मोतियोंकी मालाओंमें विराजमान रहनेवाली अपार शोभासे सम्पन्न हैं। वे रत्नोंसे युक्त अँगुलियोंसे फैलते हुए प्रभाजालसे सुशोभित हाथवाली हैं ॥ 28 ॥
उनकी कंचुकीमें गुथे हुए नानाविध रत्नोंकी पंक्तियोंसे अनुपम प्रकाश निर्गत हो रहा है। मल्लिकाकी सुगन्धिसे पूर्ण केशके जूड़ेपर स्थित मल्लिकाकी मालापर मँडरानेवाले भौंरोंके समूहसे देवी सुशोभित हो रही हैं ।। 29 ।।वृत्ताकार, सघन तथा उन्नत उरोजोंके भारसे कल्याणमयी भगवती अलसायी हुई प्रतीत होती हैं। उनकी चारों भुजाओंमें वर, पाश, अंकुश तथा अभयमुद्रा सुशोभित हो रही है ॥ 30 ॥
वे भगवती समस्त श्रृंगारवेषसे सम्पन्न, लताके समान अत्यन्त कोमल अंगोंवाली, समस्त सौन्दर्योकी आधारस्वरूपा तथा निष्कपट करुणासे ओतप्रोत हैं॥ 31 ॥ वे अपनी वाणीकी मधुरतासे वीणाके स्वरोंको भी तुच्छ कर देती हैं। वे परा भगवती करोड़ों-करोड़ों सूर्यों तथा चन्द्रमाओंकी कान्ति धारण करती हैं ॥ 32 ॥
वे बहुत-सी सखियों, दासियों, देवांगनाओं तथा समस्त देवताओंसे चारों ओरसे सदा घिरी रहती हैं 33 ॥
वे इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिसे सम्पन्न हैं। लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, कीर्ति, कान्ति, क्षमा, दया, बुद्धि, मेधा, स्मृति तथा लक्ष्मी-ये मूर्तिमती अंगनाएँ कही गयी हैं। जया, विजया, अजिता, अपराजिता, नित्या, विलासिनी, दोग्ध्री, अघोरा और मंगला - ये नौ पीठशक्तियाँ उन भगवती पराम्बाकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं ।। 34-36 ॥
शंख तथा पद्म नामक वे दोनों निधियाँ उन भगवतीके पार्श्वभागमें विराजमान रहती हैं। नवरत्नवहा (नौ प्रकारके रत्नोंका वहन करनेवाली), कांचनत्रवा (स्वर्णका स्राव करनेवाली) तथा सप्तधातुवहा (सातों धातुओंका वहन करनेवाली) नामक नदियाँ उन्हीं दोनों निधियोंसे निकली हुई हैं और हे राजेन्द्र ! वे सभी नदियाँ अन्तमें सुधा-सिन्धुमें जाकर समाहित होती हैं ।। 37-38 ॥
वे भगवती भुवनेश्वरी परमेश्वरके वाम अंकमें विराजमान रहती हैं। उन्हीं भगवतीके सांनिध्यसे महेश्वरको सर्वेश्वरत्व प्राप्त है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 39 ॥
हे भूपाल अब आप इस चिन्तामणिगृहके परिमाणके विषयमें सुनिये। यह विशाल भवन हजार योजन विस्तारवाला कहा जाता है ॥ 40 ॥
उसके उत्तर भागमें अनेक विशाल प्राकार हैं, जो परिमाणमें पूर्व प्राकारसे दुगुने कहे गये हैं। भगवतीका यह मणिद्वीप बिना किसी आधारके अन्तरिक्षमें विराजमान है । 41 ।।जैसे किसी कार्यवश पटका संकोच तथा विकास होता रहता है, वैसे ही प्रलयावस्थामें इस मणिद्वीपका संकोच तथा सृष्टिकालमें विकास हो जाता है। इसका सृष्टि विनाश नहीं होता ॥ 42 ॥
सभी परकोटों की सम्पूर्ण कान्तिकी परम सीमाको ही चिन्तामणिगृह कहा गया है, जहाँ तेजोमयी देवी विराजमान रहती हैं 43
हे भूपाल ! प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले तथा देवलोक, नागलोक, मनुष्यलोक एवं अन्य लोकोंमें निवास करनेवाले जो भी श्रीदेवी भुवनेश्वरीके उपासक हैं, वे सब इसी मणिद्वीपको प्राप्त होते हैं ॥ 443 ॥
जो लोग भगवतीकी आराधनामें संलग्न रहते हुए देवीक्षेत्रमें प्राणोत्सर्ग करते हैं वे सब वहीं जाते हैं, जहाँ महानन्दस्वरूपिणी भगवती विराजमान रहती हैं ॥ 456 ॥
घृतकुल्या, दुग्धकुल्या, दधिकुल्या तथा मधुस्रवा नदियाँ वहाँ सदा प्रवाहित रहती हैं। उसी प्रकार अमृतवहा,
द्राक्षारसवहा, जम्बूरसवहा, आम्ररसवाहिनी तथा इक्षुर
सवाहिनी हजारों अन्य नदियाँ भी वहाँ हैं ll 46-47 ॥ वहाँ मनोरथरूपी फलवाले अनेक वृक्ष तथा वैसे ही बावलियाँ और कूप भी विद्यमान हैं, जो प्राणियोंकी इच्छाके अनुरूप उन्हें यथेष्ट फल तथा जल प्रदान करते हैं। वहाँ किसी प्रकारका अभाव नहीं है ॥ 483 ॥ उस मणिद्वीपमें किसीको भी रोगोंसे जर्जरता, बुढ़ापा, चिन्ता, मात्सर्य, काम, क्रोध आदि कभी नहीं होते ॥ 493 ॥
वहाँ रहनेवाले सभी लोग युवावस्थासे सम्पन्न, स्त्रीयुक्त और हजारों सूर्योंके समान तेजस्वी रहते हैं और वे श्रीभुवनेश्वरीदेवीकी निरन्तर उपासना करते हैं ॥ 503 ॥ उपासना - परायण लोगों मेंसे कुछ लोग सालोक्य मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं, कुछ सामीप्य मुक्तिको प्राप्त हुए हैं, कुछ सारूप्य मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं तथा कुछ अन्य प्राणी साष्टि मुक्तिके अधिकारी हुए हैं ॥ 513 ॥
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रहनेवाले जो-जो देवता हैं, | उनके अनेक समूह वहाँ स्थित रहकर जगदीश्वरीकी उपासना करते हैं। मूर्तिमान् होकर सात करोड़ | महामन्त्र तथा समस्त महाविद्याएँ उन साम्यावस्थावाली, कारणब्रह्मस्वरूपिणी तथा मायाशबलविग्रह धारण करनेवाली कल्याणमयी भगवतीकी उपासनामें तत्पर रहते हैं ।। 52-54 ॥हे राजन् ! इस प्रकार मैंने अत्यन्त महान् मणिद्वीपका वर्णन कर दिया। करोड़ों सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत् और अग्नि-वे सब इस मणिद्वीपकी प्रभाके करोड़वें अंशके करोड़वें अंशके भी बराबर नहीं हैं। वहाँ कहीं पर मूँगेके समान प्रकाश फैल रहा है, कहीं मरकतमणिकी छवि छिटक रही है, कहीं विद्युत् तथा भानुसदृश तेज विद्यमान है, कहीं मध्याह्नकालीन सूर्यके समान प्रचण्ड तेज फैला हुआ है और कहीं करोड़ों बिजलियोंकी महान् धाराओंकी दिव्य कान्ति व्याप्त है। कहीं सिन्दूर, नीलेन्द्रमणि और माणिक्यके समान छवि विद्यमान है। कुछ दिशाओंका भाग | हीरा-मोतीकी रश्मियोंसे प्रकाशित हो रहा है, वह कान्तिमें दावानल तथा तपाये हुए सुवर्णके समान प्रतीत हो रहा है। कहीं-कहीं चन्द्रकान्तमणि और सूर्यकान्तमणिसे बने स्थान हैं ॥ 55-59 ॥
इस मणिद्वीपका शिखर रत्नमय तथा इसके प्राकार और गोपुर भी रत्ननिर्मित हैं। यह रत्नमय पत्रों, फलों तथा वृक्षोंसे पूर्णतः मण्डित है ॥ 60 ॥
यह पुरी मयूरसमूहोंके नृत्यों, कबूतरोंकी बोलियों और कोयलोंकी काकली तथा शुकोंकी मधुर ध्वनियोंसे सुशोभित रहती है ॥ 61 ॥
यह सुरम्य तथा रमणीय जलवाले लाखों सरोवरोंसे घिरा हुआ है। इस मणिद्वीपका मध्यभाग विकसित रत्नमय कमलोंसे सुशोभित है ॥ 62 ॥ उसके चारों ओर सौ योजनतकका क्षेत्र उत्तम गन्धोंसे सर्वदा सुवासित रहता है। मन्द गतिसे प्रवाहित वायुके द्वारा हिलाये गये वृक्षोंसे यह व्याप्त रहता है 63 ॥ चिन्तामणिके समूहोंकी ज्योतिसे वहाँका विस्तृत आकाश सदा प्रकाशित रहता है और रत्नोंकी प्रभासे सभी दिशाएँ प्रज्वलित रहती हैं ॥ 64 ॥
वृक्षसमूहोंकी मधुर सुगन्धोंसे सुपूरित वायु वहाँ सदा बहती रहती है। हे राजन्! दस हजार योजनतक प्रकाशमान वह मणिद्वीप सदा सुगन्धित धूपसे सुवासित रहता है ॥ 65 ॥
रत्नमयी जालियोंके छिद्रोंसे निकलनेवाली चपल किरणोंकी कान्ति तथा दर्पणसे युक्त यह मणिद्वीप दिशाभ्रम उत्पन्न कर देनेवाला है ॥ 66 ॥
हे राजन्! समग्र ऐश्वर्य, सम्पूर्ण श्रृंगार, समस्त सर्वज्ञता, समग्र तेज, अखिल पराक्रम, समस्त उत्तमगुण और समग्र दयाकी इस मणिद्वीपमें अन्तिम सीमा है ।। 67-68 ॥
एक राजाके आनन्दसे लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त जो-जो आनन्द हो सकते हैं, वे सब इस मणिद्वीपके आनन्दमें अन्तर्निहित हैं ॥ 69 ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे अति महनीय मणिद्वीपका वर्णन कर दिया। महादेवीका यह परम धाम सम्पूर्ण उत्तम लोकोंसे भी उत्तम है ॥ 70 ॥ इस मणिद्वीपके स्मरणमात्रसे सम्पूर्ण पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और मृत्युकालमें इसका स्मरण हो जानेपर प्राणी उसी पुरीको प्राप्त हो जाता है ॥ 71 ॥
इन पाँच अध्यायोंका (अध्याय आठसे लेकर बारहतक) जो प्राणी सावधान होकर नित्य पाठ करता है; उसे भूत, प्रेत, पिशाच आदि बाधाएँ नहीं होतीं ॥ 72 ॥
नये भवन निर्माण तथा वास्तुयज्ञके अवसरपर प्रयत्नपूर्वक इसका पाठ करना चाहिये; उससे कल्याण
होता है ॥ 73 ॥