श्रीनारायण बोले [हे नारद!] नारद!] राजा धर्मध्वजकी पत्नी माधवी नामसे प्रसिद्ध थी। वह राजाके साथ गन्धमादनपर्वतपर एक सुरम्य उपवनमें विहार करती थी ॥ 1 ॥
पुष्प और चन्दनसे सुरभित सुखदायी शय्या पर अपने समस्त अंगोंको चन्दनसे सुसज्जितकर, रत्नाभरणोंसे विभूषित हो पुष्प- चन्दनादिसे सुगन्धित पवनका सुख लेते हुए वह स्त्रीरत्नस्वरूपिणी सर्वांगसुन्दरी अपने रसिक पतिके साथ कामोपभोगमें लगी रहती थी । 2-3 ॥
रतिक्रीड़ाके विज्ञ वे दोनों कभी भी भोगसे विरत नहीं होते थे। इस प्रकार उनके दिव्य सौ वर्ष व्यतीत हो गये, किंतु उन्हें दिन-रातका भी ज्ञान नहीं रहा ॥ 4 ॥
तदनन्तर राजाके हृदयमें कुछ ज्ञानका उदय होनेपर वे भोगसे विरत हो गये, किंतु वह कामासक सुन्दरी पूर्ण रूपसे तृप्त नहीं हुई। दैवयोगसे उसने शीघ्र ही गर्भ धारण कर लिया। श्रीस्वरूप गर्भवाली वह दिनों-दिन सौन्दर्यसम्पन्न होती गयी। उस साध्वीका गर्भ सौ वर्षोंतक रहा। ll 5-6 ॥
हे नारद उस माधवीने कार्तिक पूर्णिमा तिथिमें शुक्रवारको शुभ दिन, शुभ योग, शुभ क्षण, शुभ लग्न, शुभ अंश तथा शुभ स्वामिग्रहसे युक्त उत्तम मुहूर्तमें लक्ष्मीकी अंशस्वरूपिणी तथा पद्मिनीतुल्य एक मनोहर कन्याको जन्म दिया ॥ 7-8 ॥उस कन्याका मुख शरत्-पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान था, उसके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान थे, ओष्ठ पके हुए बिम्बाफलके सदृश थे, उस समय वह कन्या मुसकराती हुई अपने घरको देख रही थी, उसके हाथ-पैरके तलवे लाल थे, उसकी नाभि गम्भीर थी, उसका विग्रह मनको मुग्ध कर देनेवाला था, उसका कटिप्रदेश तीन वलियोंसे युक्त था। उसके दोनों नितम्ब गोल थे। शीतकालमें सुख देनेके लिये वह सम्पूर्ण उष्ण और ग्रीष्मकालमें शीतल अंगोंवाली थी। वह श्यामा सुन्दरी वटवृक्षको घेरकर शोभित होनेवाले वरोहोंकी भाँति बड़े सुन्दर केशपाशसे सुसज्जित थी, वह पीत चम्पकके वर्णके समान आभावाली थी, वह सुन्दरियोंकी भी सुन्दरी थी-ऐसे अनुपम सौन्दर्यवाली उस कन्याको देखकर सभी स्त्री और पुरुष किसीके साथ उसकी तुलना करनेमें असमर्थ थे, इसलिये विद्वान् पुरुष उसे तुलसी नामसे पुकारते हैं। पृथ्वीपर आते ही वह प्रकृतिदेवी-जैसी योग्य स्त्री हो गयी । ll 9 - 13 ॥
सभी लोगोंद्वारा मना किये जानेपर भी वह तपस्या करनेके उद्देश्यसे बदरीवन चली गयी और वहाँ उसने दिव्य एक लाख वर्षोंतक कठिन तप किया। स्वयं भगवान् नारायण मेरे स्वामी हों - ऐसा अपने मनमें निश्चय करके वह ग्रीष्मकालमें पंचाग्नि तापती थी, जाड़ेके समयमें गीले वस्त्र पहनती थी और वर्षाऋतुमें एक आसनपर बैठकर जलधाराओंको सहती हुई दिन-रात तप करती थी। वह तपस्विनी बीस हजार वर्षोंतक फल और जलके आहारपर, तीस हजार वर्षोंतक पत्तोंके आहारपर और चालीस हजार वर्षोंतक वायुके आहारपर रही। तत्पश्चात् वह कृशोदरी दस हजार वर्षोंतक निराहार रही । 14 - 173 ॥ इस प्रकार उसे निर्लक्ष्य होकर एक पैरपर स्थित
रहकर तपस्या करते हुए देखकर ब्रह्माजी उसे वर प्रदान लिये उत्तम बदरिकाश्रम आये ॥ 183 ॥ हंसपर विराजमान चतुर्मुख ब्रह्माको देखकर उस तुलसीने प्रणाम किया। तब जगत्की सृष्टि करनेवाले तथा सम्पूर्ण लोकोंका विधान करनेवाले ब्रह्मा उससे | कहने लगे- ॥ 196 ॥ब्रह्माजी बोले- हे तुलसि हरिकी भक्ति हरिकी दासता और अजरता - अमरता- इनमेंसे जो भी तुम्हारे मनमें अभीष्ट हो, उसे माँग लो ॥ 203 ॥
तुलसी बोली- हे तात । सुनिये, मेरे मनमें जो अभिलाषा है, उसे बता रही है क्योंकि सब कुछ जाननेवाले आप ब्रह्माके समक्ष अपनी बात कहने में मुझे अब लाज ही क्या है? मैं पूर्वजन्ममें तुलसी नामकी गोपी थी और गोलोकमें निवास करती थी। उस समय में भगवान् श्रीकृष्णकी प्रिया, उनकी अनुचरी, उनकी अंशस्वरूपा तथा उनकी प्रेयसी सखी के रूपमें प्रतिष्ठित श्री ।। 21-223 ॥
एक समय जब मैं भगवान् श्रीकृष्णके साथ विहारमें अचेत तथा अतृप्त अवस्थामें थी, तभी रासकी अधिष्ठात्री देवी भगवती राधाने रासमण्डलमें आकर मुझे देख लिया। उन्होंने श्रीकृष्णकी बहुत भर्त्सना की और कुपित होकर मुझे शाप दे दिया था—'तुम मनुष्ययोनि प्राप्त करो'- यह शाप उन्होंने मुझे दे दिया ।। 23-243 ॥
तब उन गोविन्दने मुझसे कहा- 'भारतवर्षमें जन्म लेकर घोर तपस्या करके तुम ब्रह्माजीके वरदानसे मेरे अंशस्वरूप चतुर्भुज विष्णुको पतिरूपमें प्राप्त करोगी'। इस प्रकार कहकर वे देवेश्वर श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। हे गुरो! देवी राधाके भयसे अपना वह शरीर त्यागकर मैंने अब भूमण्डलपर जन्म लिया है और सुन्दर विग्रहवाले तथा शान्तस्वभाव भगवान् नारायण जो उस समय मेरे पति थे, उन्हींको अब भी पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये वर माँग रही हूँ, आप मुझे यह वर दीजिये | ll 25-273 ll
ब्रह्मदेव बोले- भगवान् श्रीकृष्ण के अंगसे प्रादुर्भूत उन्होंके अंशस्वरूप तथा परम तेजस्वी सुदामा नामक गोपने भी इस समय भारतवर्षमें जन्म लिया है। वह राधाके शापसे दनुवंशमें उत्पन्न हुआ है और शंखचूड़ नामसे विख्यात है, उसके समान तीनों लोकोंमें कोई भी नहीं है ।। 28-293 ॥
पूर्वकालमें एक बार गोलोकमें तुम्हें देखकर उसके मनमें कामभावना उत्पन्न हो गयी, किंतु राधिकाके प्रभावके कारण वह तुम्हें नहीं पा सकाथा। वह सुदामा इस समय समुद्रमें उत्पन्न हुआ है। भगवान् श्रीकृष्णका अंश होनेसे उसे पूर्वजन्मकी सभी बातोंका स्मरण है। हे सुन्दरि ! तुम्हें भी पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण है, अतः तुम सब कुछ भलीभाँति जाननेवाली हो। हे शोभने! अब इस जन्ममें तुम उसी सुदामाकी पत्नी बनोगी और बादमें शान्तस्वरूप भगवान् नारायणका पतिरूपमें वरण करोगी ।। 30-323 ॥
दैवयोगसे उन्हीं भगवान् नारायणके शापसे तुम अपनी कलासे विश्वको पवित्र करनेवाली पावन वृक्षरूपमें प्रतिष्ठित होओगी। तुम समस्त पुष्पोंमें प्रधान मानी जाओगी और भगवान् विष्णुके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय रहोगी। तुम्हारे बिना की गयी सभी देवताओंकी पूजा व्यर्थ समझी जायगी। वृन्दावनमें वृक्षरूप तुम वृन्दावनी नामसे विख्यात रहोगी। समस्त गोप और गोपिकाएँ तुम्हारे पत्रोंसे ही भगवान् माधवकी पूजा करेंगे। तुम मेरे वरके प्रभावसे वृक्षोंकी अधिष्ठात्री देवी बनकर गोपस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके साथ स्वेच्छापूर्वक निरन्तर विहार करोगी ।। 33-363 ॥
[हे नारद!] ब्रह्माजीकी यह वाणी सुनकर तुलसी मुसकराने लगी और उसका चित्त प्रफुल्लित हो गया। उसने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और फिर वह उनसे कुछ कहने लगी ॥ 373 ॥
तुलसी बोली- हे तात! मैं यह सत्य कह रही हूँ कि दो भुजाओं वाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्णके प्रति जैसी मेरी रुचि है, वैसी चार भुजाओंवाले श्रीविष्णुके लिये नहीं है; क्योंकि मैं दैवयोगसे श्रृंगार-भंग होनेके कारण गोविन्दसे अभी भी अतृप्त ही हूँ। मैं तो उन गोविन्दकी आज्ञामात्रसे ही चतुर्भुज श्रीहरिके लिये प्रार्थना कर रही हूँ। अब तो मैं आपकी कृपासे उन अत्यन्त दुर्लभ गोविन्दको निश्चितरूपसे प्राप्त कर लूँगी। हे प्रभो! साथ ही आप मुझे राधाके भयसे भी मुक्त कर दीजिये ll38-40 6 ॥
ब्रह्मदेव बोले- हे सुभगे मैं तुम्हें भगवती राधिकाका सोलह अक्षरोंवाला मन्त्र प्रदान करता हूँ; | तुम इसे ग्रहण कर लो। तुम मेरे वरके प्रभावसे उनराधाके लिये प्राणतुल्य हो जाओगी। तुम दोनों (श्रीकृष्ण और तुलसी) के गुप्त प्रेमको राधिका नहीं जान पायेंगी। राधाके समान ही तुम गोविन्दकी प्रेयसी हो जाओगी ॥ 41-423 ॥
[हे मुने!] ऐसा कहकर जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माने देवी तुलसीको भगवती राधाके षोडशाक्षर मन्त्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, समस्त पूजाविधान और पुरश्चर्याविधिके क्रम बता करके उसे उत्तम शुभाशीर्वाद प्रदान किया। तत्पश्चात् तुलसीने [पूर्वोक्त विधिसे भगवती राधाका] पूजन किया और उनकी कृपासे वह देवी तुलसी भगवती लक्ष्मीके समान सिद्ध हो गयी ।। 43 - 45 ll
ब्रह्माजीने जैसा कहा था, उस मन्त्रके प्रभावसे ठीक वैसा ही वर तुलसीको प्राप्त हो गया। उसने विश्वमें दुर्लभ महान् सुखोंका भोग किया। मन प्रसन्न हो जानेके कारण उस देवीके तपस्याजनित सभी कष्ट दूर हो गये; क्योंकि फलकी प्राप्ति हो जानेके बाद मनुष्योंका दुःख उत्तम सुखमें परिणत हो जाता है ।। 46-47 ॥
तदनन्तर भोजन - पानादि करके तथा सन्तुष्ट होकर उस तुलसीने पुष्प - चन्दनसे चर्चित मनोहर शय्यापर शयन किया ॥ 48 ॥