श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ 1 ॥ प्राचीनकालमें गोलोकमें भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी। वह विविध कलाओंमें निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थलसे सुशोभित होती हुई वट वृक्षोंसे घिरी रहती थी। उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वह रत्नमय अलंकारोंसे सुशोभित थी, उसके शरीरकी कान्ति श्वेत चम्पाके समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफलके समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्रमें निपुण थी। भगवान् श्रीकृष्णकी प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी तथा उनके भावोंसे सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञानसे परिपूर्ण, रासक्रीडाकी रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंकमें बैठ गयी ॥ 2-7॥
तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओंमें परम श्रेष्ठ राधाकी ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय कामिनी राधाका मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमलके समान हो गये। क्रोधसे उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधाको बड़े वेगसे जाती देखकर उनके विरोधसे अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्णको अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं। श्रीकृष्णको अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो। हे नारद! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमलकी शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥
परमेश्वरी राधाने अपने कान्त श्रीकृष्णको अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16
ऐसा कहकर देवदेवेश्वरी रासेश्वरी राधा रोषपूर्वक रासमण्डलके मध्य रामेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको पुकारने लगीं ॥ 17 ॥
श्रीकृष्णको समक्ष न देखकर राधिकाजी विरहसे व्याकुल हो गयीं। उन परम साध्वीको एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की- हे कृष्ण ! हे प्राणनाथ ! हे ईश! आ जाइये। हे प्राणोंसे अधिक प्रिय तथा प्राणके अधिष्ठाता देवेश्वर आपके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं ।। 18-19 ॥
पतिके सौभाग्यसे स्त्रियोंका स्वाभिमान दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है और उन्हें महान् सुख प्राप्त होता है। अतः स्त्रीको सदा धर्मपूर्वक पतिकी सेवा करनी चाहिये ॥ 20 ॥
कुलीन स्त्रियोंके लिये पति ही बन्धु, अधिदेवता, आश्रय, परम सम्पत्तिस्वरूप तथा भोग प्रदान करनेवाला साक्षात् विग्रह है ॥ 21 ॥
वही स्त्रीके लिये धर्म, सुख, निरन्तर प्रीति, सदा | शान्ति तथा सम्मान प्रदान करनेवाला; आदरसे देदीप्यमान होनेवाला और मानभंग भी करनेवाला है। पति हो स्वीके लिये परम सार है और बन्धुओंमें बन्धुभावको बढ़ानेवाला है। समस्त बन्धु बान्धवोंमें पतिके समान | कोई बन्धु दिखायी नहीं देता ॥ 22-23 ॥वह स्त्रीका भरण करनेके कारण 'भर्ता', पालन करनेके कारण 'पति', उसके शरीरका शासक होनेके कारण 'स्वामी' तथा उसकी कामनाएँ पूर्ण करनेके कारण 'कान्त' कहा जाता है। वह सुखकी वृद्धि करनेसे 'बन्धु', प्रीति प्रदान करनेसे 'प्रिय', ऐश्वर्य प्रदान करनेसे 'ईश', प्राणका स्वामी होनेसे 'प्राणनायक' और रतिसुख प्रदान करनेसे 'रमण' कहा गया है। स्त्रियोंके लिये पतिसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। पतिके शुक्रसे पुत्र उत्पन्न होता है, इसलिये वह प्रिय होता है ।। 24-26 ll
उत्तम कुलमें उत्पन्न स्त्रियोंके लिये उनका पति सदा सौ पुत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है। जो असत् कुलमें उत्पन्न स्त्री है, वह पतिके महत्त्वको समझने में सर्वथा असमर्थ रहती है ॥ 27 ॥
सभी तीर्थोंमें स्नान, सम्पूर्ण यज्ञोंमें दक्षिणादान, पृथ्वीकी प्रदक्षिणा, सम्पूर्ण तप, सभी प्रकारके व्रत और जो महादान आदि हैं, जो-जो पुण्यप्रद उपवास आदि प्रसिद्ध हैं और गुरुसेवा, विप्रसेवा तथा देव पूजन आदि जो भी शुभ कृत्य हैं, वे सब पतिके चरणकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ 28-30 ॥
गुरु, ब्राह्मण और देवता-इन सभीकी अपेक्षा स्त्रीके लिये पति ही श्रेष्ठ है। जिस प्रकार पुरुषोंके लिये विद्याका दान करनेवाला गुरु श्रेष्ठ है; उसी प्रकार कुलीन स्त्रियोंके लिये पति श्रेष्ठ है ॥ 31 ॥ जिनके अनुग्रहसे मैं लाखों-करोड़ गोपियों, गोपों, असंख्य ब्रह्माण्डों, वहाँके निवासियों तथा अखिल ब्रह्माण्ड- गोलककी ईश्वरी बनी हूँ, अपने उन कान्त श्रीकृष्णका रहस्य मैं नहीं जानती। स्त्रियोंका स्वभाव अत्यन्त दुर्लघ्य है ।। 32-33 ॥
ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ! हे रमण! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 343 ॥हे मुने! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोकसे च्युत सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नामसे प्रसिद्ध हुई। दीर्घकालतक तपस्या करके उसने भगवती लक्ष्मीके विग्रहमें स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करनेपर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥ 35-36 ॥
देवताओंकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। अन्तमें उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ। भगवान नारायणने महालक्ष्मी के विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया। ब्रह्माजीने भी यज्ञकार्योंकी सम्पन्नताके लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुषको | समर्पित कर दिया। तब यज्ञपुरुषने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणाकी विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।। 37-393 ॥
उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हुए सोनेके समान था; उनके विग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमलके समान उनके विशाल नेत्र थे कमलके आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमलाके शरीरसे प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वीके ओष्ठ बिम्बाफलके समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाशमें मालतीके पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डलपर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियोंके भी मनको मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दनसे बिन्दीके रूपमें अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाटपर | सुशोभित हो रहा था; केशोंके नीचेका भाग (सीमन्त) सिन्दूरकी छोटी-छोटी बिन्दियोंसे अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थलसे | वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेवकाआधारस्वरूप था और वे कामदेवके बाणसे अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणाको देखकर यज्ञपुरुष मूच्छित हो गये। पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणाको पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया ॥ 40-463 ॥
तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रामेशने रमारूपिणी भगवती दक्षिणाको निर्जन स्थानमें ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षोंतक आनन्दपूर्वक रमण किया। वे देवी दक्षिणा दिव्य बारह वर्षोंतक गर्भ धारण किये रहीं। तत्पश्चात् उन्होंने सभी कर्मोंके फलरूप पुत्रको जन्म दिया। कर्मके परिपूर्ण होनेपर वही पुत्र फल प्रदान करनेवाला होता है। भगवान् यज्ञ भगवती दक्षिणा तथा अपने पुत्र फलसे युक्त होनेपर ही कर्म करनेवालोंको फल प्रदान करते हैं-ऐसा वेदवेत्ता पुरुषोंने कहा है ।। 47-50 ॥
हे नारद! इस प्रकार देवी दक्षिणा तथा फलदायक पुत्रको प्राप्तकर यज्ञपुरुष सभी प्राणियोंको उनके कर्मोंका फल प्रदान करने लगे। तदनन्तर परिपूर्ण मनोरथवाले वे सभी देवगण प्रसन्न होकर अपने अपने स्थानको चले गये-ऐसा मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है ।। 51-52 ॥
हे मुने! कर्ताको चाहिये कि कर्म करके तुरंत दक्षिणा दे दे। ऐसा करनेसे कर्ताको उसी क्षण फल प्राप्त हो जाता है-ऐसा वेदोंने कहा है॥ 53 ॥
कर्मके सम्पन्न हो जानेपर यदि कर्ता दैववश या अज्ञानसे उसी क्षण ब्राह्मणोंको दक्षिणा नहीं दे देता, तो एक मुहूर्त बीतनेपर वह दक्षिणा निश्चय ही दो गुनी हो जाती है और एक रात बीतने पर वह सौ गुनी हो जाती है। वह दक्षिणा तीन रात बीतने के बाद उसकी सौ गुनी और एक सप्ताह बीतने पर उसकी दो सौ गुनी हो जाती है। एक माहके बाद वह लाख गुनी बतायी गयी है। इस प्रकार ब्राह्मणोंकी दक्षिणा बढ़ती जाती है और एक वर्ष बीत जानेपर वह तीन करोड़ गुनी हो जाती है, जिससे यजमानोंका सारा कर्म भी व्यर्थ हो जाता है ll 54-57॥ब्राह्मणका धन हरनेवाला वह मनुष्य अपवित्र हो जाता है तथा किसी भी कर्मानुष्ठानके योग्य नहीं रह जाता। उस पापके कारण वह पापी मनुष्य रोगी तथा दरिद्र रहता है। भगवती लक्ष्मी उसे दारुण शाप देकर उसके घरसे चली जाती हैं। उसके द्वारा प्रदत्त श्राद्ध तथा तर्पणको पितर ग्रहण नहीं करते। उसी प्रकार देवतागण उसकी पूजा तथा उसके द्वारा अग्निमें प्रदत्त आहुतिको स्वीकार नहीं करते ।। 58-593 ॥
यदि यज्ञके समय कतकि द्वारा संकल्पित दान नहीं दिया गया और प्रतिग्रह लेनेवालेने उसे माँगा भी नहीं, तो वे दोनों ही (यजमान और ब्राह्मण) नरकमें उसी प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जानेपर घड़ा ॥ 60 ॥
ब्राह्मणके याचना करनेपर भी यदि यजमान उसे दक्षिणा नहीं देता, तो वह ब्राह्मणका धन हरण करनेवाला कहा जाता है और वह निश्चितरूपसे कुम्भीपाक नरकमें पड़ता है। वहाँ यमदूतोंके द्वारा पीटा जाता हुआ वह एक लाख वर्षतक रहता है। उसके बाद वह चाण्डाल होकर सदा दरिद्र तथा रोगी बना रहता है। वह अपनी सात पीढ़ी पूर्वके तथा सात | पीढ़ी बादके पुरुषोंको नरकमें गिरा देता है। हे विप्र ! मैंने यह सब कह दिया। अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ।। 61-633 ॥
नारदजी बोले – हे मुने! जो कर्म बिना दक्षिणाके किया जाता है, उसका फल कौन भोगता है? साथ ही, यज्ञपुरुषके द्वारा पूर्वकालमें की गयी भगवती दक्षिणाकी पूजाविधिको भी मुझे बतलाइये ॥64॥
श्रीनारायण बोले- हे मुने! दक्षिणाविहीन कर्मका फल हो ही कहाँ सकता है? दक्षिणायुक्त कर्ममें ही फल प्रदानका सामर्थ्य होता है। हे मुने! जो कर्म बिना दक्षिणाके सम्पन्न होता है, उसके | फलका भोग राजा बलि करते हैं। हे मुने। पूर्वकाल भगवान् वामन राजा बलिके लिये वैसा कर्म अर्पण कर चुके हैं ।। 65-663 ॥अश्रोत्रिय व्यक्तिके द्वारा श्रद्धाहीन होकर दिया गया श्राद्धद्रव्य तथा दान आदि शुद्रापति ब्राह्मणोंका पूजा द्रव्य आदि, सदाचारहीन विप्रोंद्वारा किया गया यज्ञ, अपवित्र व्यक्तिका पूजन और गुरुभक्तिसे हीन मनुष्यके कर्मफलको राजा बलि आहारके रूपमें ग्रहण करते हैं, इसमें संशय नहीं है ।। 67-683 ।।
[हे नारद।] भगवती दक्षिणाका जो भी ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधिका क्रम आदि है, वह सब कण्वशाखामें वर्णित है, अब मैं उसे बताऊँगा, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 693 ॥
पूर्वसमयमें कर्मका फल प्रदान करनेमें दक्ष उन भगवती दक्षिणाको प्राप्त करके वे यज्ञपुरुष कामपीड़ित होकर उनके स्वरूपपर मोहित हो गये और उनकी स्तुति करने लगे ॥ 70 ॥
यज्ञ बोले- [ हे महाभागे !] तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियोंमें परम श्रेष्ठ थी। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी थी । ll 793 ॥
एक बार कार्तिक पूर्णिमाको राधामहोत्सवके अवसरपर रासलीलामें तुम भगवती लक्ष्मीके दक्षिणांशसे प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शीलके कारण तुम सुशीला नामसे प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिकाके शापसे गोलोकसे च्युत होकर और पुनः देवी लक्ष्मीके दक्षिणांशसे आविर्भूत हो अब देवी दक्षिणाके रूपमें मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥ 72–743 ॥
तुम्हीं यज्ञ करनेवालोंको उनके कर्मोंका सदा फल प्रदान करनेवाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियोंका सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओंका कर्म शोभा नहीं पाता है । ll75-76 ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ 77 ॥ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं, महेश्वर फलरूप हैं और मैं
विष्णु यज्ञरूप हूँ, इन सबमें तुम ही साररूपा हो ॥ 78 ॥
"फल प्रदान करनेवाले परब्रह्म, गुणरहित पराप्रकृति तथा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे ही सहयोग से शक्तिमान् हैं ।॥ 79 ॥
हे कान्ते! जन्म-जन्मान्तरमें तुम्हीं सदा मेरी | शक्ति रही हो। हे वरानने। तुम्हारे साथ रहकर ही मैं सारा कर्म करनेमें समर्थ हूँ ॥ 80 ॥
ऐसा कहकर यहके अधिष्ठातृदेवता भगवान् यहपुरुष दक्षिणाके समक्ष स्थित हो गये। तब भगवती | कमलाको कलास्वरूपिणी देवी दक्षिणा प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने यज्ञपुरुषका वरण कर लिया ।। 81 ।।
जो मनुष्य यज्ञके अवसरपर भगवती दक्षिणाके इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 82 ॥
राजसूय, वाजपेय, गोमेध, नरमेध अश्वमेध, लांगलयज्ञ, यश बढ़ानेवाला विष्णुयज्ञ, धनदायक और भूमि देनेवाला पूर्तयज्ञ, फल प्रदान करनेवाला गजमेध, लोहयज्ञ, स्वर्णयज्ञ, रत्नयज्ञ, ताम्रयज्ञ, शिवयज्ञ, रुद्रयज्ञ, इन्द्रयज्ञ, बन्धुकयज्ञ, वृष्टिकारक वरुणयज्ञ, वैरिमर्दन कण्डकयज्ञ, शुचियज्ञ, धर्मयज्ञ, पापमोचनयज्ञ, ब्रह्माणीकर्मयज्ञ और कल्याणकारी अम्बायज्ञ - इन सभीके आरम्भमें जो व्यक्ति इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसका सारा यज्ञकर्म निर्विघ्नरूपसे अवश्य ही सम्पन्न हो जाता है । ll 83-87 ॥
यह स्तोत्र मैंने कह दिया, अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो। शालग्राममें अथवा कलशपर भगवती दक्षिणाका आवाहन करके विद्वान्को उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ 88 ॥
[उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये-] भगवती लक्ष्मी के दाहिने स्कन्धसे आविर्भूत होनेके कारण दक्षिणा नामसे विख्यात ये देवी साक्षात् कमलाकी कला हैं, सभी कर्मोंमें अत्यन्त प्रवीण हैं, | सम्पूर्ण कर्मो का फल प्रदान करनेवाली हैं, भगवान् विष्णुकी शक्तिस्वरूपा है, सबको बन्दनीय पूजनीय, मंगलमयी, शुद्धिदायिनी, शुद्धिस्वरूपिणी, शोभनशीलवाली और शुभदायिनी हैं- ऐसी देवीकी मैं आराधना करता हूँ ॥ 89-90 ।।हे नारद! इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रसे इन वरदायिनी देवीकी पूजा करनी चाहिये। वेदोक्त मन्त्रके द्वारा देवी दक्षिणाको पाद्य आदि अर्पण करके 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं दक्षिणायै स्वाहा' - इस मूल मन्त्रसे बुद्धिमान् व्यक्तिको सभी प्राणियोंद्वारा पूजित भगवती दक्षिणाकी भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥ 91-92 ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने भगवती दक्षिणाका यह आख्यान आपसे कह दिया; यह सुख, प्रीति तथा सम्पूर्ण कर्मोंका फल प्रदान करनेवाला है ॥ 93 ॥
पृथ्वीतलपर भारतवर्षमें जो मनुष्य सावधान होकर देवी दक्षिणाके इस आख्यानका श्रवण करता है, उसका कोई भी कार्य अपूर्ण नहीं रहता। पुत्रहीन व्यक्ति गुणी पुत्र तथा भार्याहीन पुरुष परम सुन्दर तथा सुशील पत्नी प्राप्त कर लेता है; साथ ही वह सुन्दर, पुत्रवती, विनम्र, प्रियभाषिणी, पतिव्रता, पवित्र तथा कुलीन श्रेष्ठ पुत्रवधू भी प्राप्त कर लेता है और विद्याहीन विद्या प्राप्त कर लेता है तथा धनहीन धन पा जाता है। भूमिहीन व्यक्तिको भूमि उपलब्ध हो जाती है और सन्तानहीन व्यक्ति सन्तान प्राप्त कर लेता है। संकट, बन्धुविच्छेद, विपत्ति तथा बन्धनकी स्थितिमें एक महीनेतक इस आख्यानका श्रवण करके मनुष्य इनसे मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ।। 94-98 ॥