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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 47 - Skand 9, Adhyay 47

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भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मपुत्र! आगमशास्त्रके अनुसार मैंने षष्ठीदेवीका आख्यान कह दिया, अब भगवती मंगलचण्डीका आख्यान और उनका पूजा विधान आदि सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेवके मुख से सुना था। यह उपाख्यान श्रुतिसम्मत है तथा सभी विद्वानोंको अभीष्ट है ॥ 1-2 ॥ कल्याण करनेमें सुदक्षा जो चण्डी अर्थात् प्रतापवती हैं तथा मंगलोंके मध्यमें जो प्रचण्ड मंगला हैं, वे देवी 'मंगलचण्डिका' नामसे विख्यात हैं। अथवा भूमिपुत्र मंगल भी जिन चण्डीकी पूजा करते हैं तथा जो भगवती उन मंगलकी अभीष्ट देवी हैं, वे 'मंगलचण्डिका' नामसे प्रसिद्ध हैं । ll 3-4 ॥

मनुवंशमें उत्पन्न मंगल नामक एक राजा सात द्वीपोंवाली सम्पूर्ण पृथ्वीके स्वामी थे। ये भगवती उनकी पूज्य अभीष्ट देवी थीं, इससे भी वे 'मंगलचण्डिका' नामसे विख्यात हैं ॥ 5 ॥

वे ही मूर्तिभेदसे मूलप्रकृति भगवती दुर्गा हैं। कृषरूपिणी होकर वे देवी साक्षात् प्रकट होनेवाली हैं और स्त्रियोंकी अभीष्ट देवता हैं ॥ 6 ॥

सर्वप्रथम भगवान् शंकरने विष्णुकी प्रेरणासे तथा ब्रह्माजीके उपदेशसे उन परात्परा भगवतीकी पूजा की थी। हे ब्रह्मन् ! त्रिपुरासुरके घोर वधके समय जब शिवजी संकटमें पड़ गये थे और उस दैत्यके द्वारा रोषपूर्वक उनका विमान आकाशसे नीचे गिरा दिया गया था, तब ब्रह्मा और विष्णुका उपदेश मानकर दुर्गतिको प्राप्त भगवान् शंकरने भगवती दुर्गाकी स्तुति की। वे मंगलचण्डी ही थीं जिन्होंने | केवल रूप बदल लिया था, वे शिवजीके सामने प्रकट होकर बोलीं- हे प्रभो! अब आपको कोई भय नहीं है, सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरि वृषरूपमें आपका वाहन बनेंगे और मैं युद्धमें शक्तिस्वरूपा होकर आपकी सहायता करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है। हे वृषध्वज। तब मायास्वरूप भगवान् श्रीहरिकी सहायतासे आप देवताओंको पदच्युत कर देनेवाले अपने शत्रु उस त्रिपुरदैत्यका वध कर डालेंगे ।। 7-113 ॥हे मुनिवर ! ऐसा कहकर वे भगवती अन्तर्धान हो गयीं और उसी क्षण वे भगवान् शिवकी शक्ति बन गयीं। तत्पश्चात् उमापति शंकरने विष्णुजीके द्वारा दिये गये शस्त्रसे उस दैत्यको मार डाला। उस दैत्यके धराशायी हो जानेपर सभी देवता तथा महर्षिगण भक्तिपूर्वक अपना सिर झुकाकर भगवान् शिवकी स्तुति करने लगे ॥ 12-133 ।।

उसी क्षण भगवान् शिवके सिरपर पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। ब्रह्मा तथा विष्णुने परम प्रसन्न होकर उन्हें शुभाशीर्वाद दिया ॥ 143 ॥

तत्पश्चात् हे मुने! ब्रह्मा तथा विष्णुका उपदेश मानकर भगवान् शंकरने विधिवत् स्नान करके पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, अनेक प्रकारके वस्त्र, पुष्प, चन्दन, भाँति-भाँति नैवेद्य, वस्त्रालंकार माला, खीर, पिष्टक, मधु, सुधा, अनेक प्रकारके फल आदि उपचारों, संगीत, नृत्य वाद्य, उत्सव तथा नामकीर्तन आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक उन देवी मंगलचण्डिकाका पूजन किया ।। 15-183॥

हे नारद! माध्यन्दिनशाखामें बताये गये ध्यानमन्त्र द्वारा भगवती मंगलचण्डीका भक्तिपूर्वक ध्यान करके उन्होंने मूल मन्त्रसे ही सभी द्रव्य अर्पण किये। 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मङ्गलचण्डिके हुं हुं फट् स्वाहा' यह इक्कीस अक्षरोंवाला मन्त्र पूजनीय तथा भक्तोंको समस्त अभीष्ट प्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष ही है। दस लाख जप करनेसे इस मन्त्रकी सिद्धि निश्चितरूपसे हो जाती है। ll 19-213 ॥

हे ब्रह्मन् ! अब वेदोक्त तथा सर्वसम्मत ध्यानका श्रवण कीजिये-'सोलह वर्षकी अवस्थावाली, सर्वदा सुस्थिर यौवनसे सम्पन्न, बिम्बाफलके समान होठोंवाली, सुन्दर दन्तपंक्तिवाली, शुद्धस्वरूपिणी, शरत्कालीन कमलके समान मुखवाली, श्वेत चम्पाके वर्णकी आभावाली, विकसित नीलकमलके सदृश नेत्रोंवाली, जगत्का पालन-पोषण करनेवाली, सभीको सम्पूर्ण सम्पदाएँ प्रदान करनेवाली और घोर संसारसागरमें पड़े हुए प्राणियोंके लिये ज्योतिस्वरूपिणी भगवतीकी मैं सदा आराधना करता हूँ।' हे मुने! यह भगवती मंगलचण्डिकाका ध्यान है, अब उनका स्तवन सुनिये ॥ 22-25 ॥महादेवजी बोले –जगत्की माता, विपत्तिराशिका नाश करनेवाली, हर्ष तथा मंगल उत्पन्न करनेवाली, हर्ष तथा मंगल देनेमें प्रवीण, हर्ष तथा मंगल प्रदान करनेवाली, कल्याणकारिणी, मंगल करनेमें दक्ष, शुभस्वरूपिणी, मंगलरूपिणी, मंगल करनेमें परम योग्यतासम्पन्न, समस्त मंगलोंकी भी मंगलरूपा, सज्जनोंको मंगल प्रदान करनेवाली, सभी मंगलोंकी आश्रय स्वरूपिणी, मंगलवारके दिन पूजी जानेवाली, मंगलग्रहकी अभीष्ट देवी, मनुवंशमें उत्पन्न राजा मंगलके लिये सदा पूजनीया, मंगलकी अधिष्ठात्री देवी, मंगलोंके लिये भी मंगल, संसारके समस्त मंगलोंकी आधारस्वरूपा, मोक्षरूप मंगल प्रदान करनेवाली, साररूपिणी, मंगलाधार, सभी कर्मोकी फलस्वरूपिणी तथा मंगलवारको पूजित होनेपर सबको महान् सुख प्रदान करनेवाली हे देवि मंगलचण्डिके! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ 26-31 ॥

भगवान् शिव इस स्तोत्रसे देवी मंगलचण्डिकाकी स्तुति करके तथा प्रत्येक मंगलवारको उनकी पूजा करके वहाँसे [ अपने लोक] चले गये ॥ 32 ॥

इस प्रकार सर्वप्रथम भगवान् शिवके द्वारा वे सर्वमंगला देवी मंगलचण्डिका पूजित हुईं। दूसरी बार मंगलग्रहने उनकी पूजा की, तीसरी बार राजा मंगलने उन कल्याणमयी देवीकी पूजा की। चौथी बार मंगलवारके दिन भद्र महिलाओंने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् पाँचवीं बार अपने कल्याणकी कामना रखनेवाले पुरुषोंने देवी मंगलचण्डिकाका पूजन किया। इस तरह विश्वेश्वर शिवके द्वारा पूजित ये भगवती सभी लोकोंमें पूजी जाने लगीं। हे मुने! तदनन्तर सभी देवताओं, मुनियों, मानवों तथा मनुओंके द्वारा भगवती मंगलचण्डिका सर्वत्र | पूजित हो गयीं ॥ 33-36 ॥

जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर भगवती मंगलचण्डिकाके इस मंगलमय स्तोत्रका श्रवण करता है, उसका सदा मंगल होता है और उसका अमंगल कभी नहीं होता, पुत्र-पौत्रोंसहित उसके मंगलकी दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती रहती है ॥ 37 ॥श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! मैंने
आगमशास्त्र के अनुसार देवी षष्ठी और मंगलचण्डिका इन दोनोंके उपाख्यानका वर्णन कर दिया; अब आप भगवती मनसाका आख्यान सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है ॥ 38 ॥

वे भगवती कश्यपकी मानसी कन्या हैं तथा वे मनसे ध्यान करनेपर प्रकाशित होती हैं; इसीलिये 'मनसा' देवी नामसे विख्यात हैं। वे मनसे परब्रह्म परमात्माका ध्यान करती हैं तथा उसी ध्यानयोगके द्वारा प्रकाशित होती हैं, इसीलिये वे देवी 'मनसा' इस नामसे प्रसिद्ध हैं ।। 39-40 ॥

आत्मामें रमण करनेवाली तथा सिद्धयोगिनी उन वैष्णवी देवीने तीन युगोंतक तप करके परमात्मा श्रीकृष्णका दर्शन प्राप्त किया। उस समय गोपीपति भगवान् श्रीकृष्णने उनके वस्त्र और शरीरको जीर्ण देखकर उनका नाम 'जरत्कारु' रख दिया। कृपानिधि श्रीकृष्णने उन देवीको कृपापूर्वक वाञ्छित वर प्रदान किया। उन प्रभुने उनकी स्वयं पूजा की तथा और लोगोंसे भी उनकी पूजा करायी ll 41-43 ll

3) ब्रह्मलोकसे लेकर स्वर्गमें, पृथ्वीलोकमें तथा नागलोक में सर्वत्र ये पूजित होने लगीं। सम्पूर्ण जगत्में ये अत्यधिक गौरवर्णा, सुन्दरी तथा मनोहारिणी हैं, अतः ये साध्वी 'जगद्गौरी' - इस नामसे विख्यात होकर पूजित हैं। वे देवी भगवान् शिवकी शिष्या हैं, इसलिये 'शैवी' कही गयी हैं। वे सदा भगवान् विष्णुकी परम भक्तिमें संलग्न रहती हैं, इसलिये 'वैष्णवी' कही गयी हैं ।। 44-453 ।।

परीक्षित्पुत्र राजा जनमेजयके यज्ञमें उन्होंने नागोंकी प्राणरक्षा की थी, अतः वे 'नागेश्वरी' तथा 'नागभगिनी' नामसे विख्यात हुई। वे विषका हरण करनेमें समर्थ हैं, अतः 'विषहरी' कही गयी हैं। उन्होंने भगवान् शिवसे सिद्धयोग प्राप्त किया था, इसलिये वे 'सिद्धयोगिनी' कही जाती हैं। साथ ही शिवजीसे उन्होंने महाज्ञान, योग तथा परम मृतसंजीवनीविद्या प्राप्त की थी, अतः विद्वान् पुरुष उन्हें 'महाज्ञानयुता' कहते हैं ॥। 46 - 483 ॥वे तपस्विनी देवी मुनीश्वर आस्तीककी माता हैं, इसलिये ' आस्तीकमाता' नामसे विख्यात होकर जगत् में | सुप्रतिष्ठित हैं। वे भगवती विश्ववन्द्य, परम योगी तथा मुनियोंमें श्रेष्ठ महात्मा जरत्कारुकी प्रिय पत्नी थीं, इसलिये 'जरत्कारुप्रिया' कहलाती हैं ॥ 49-503 ॥ जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरा और महाज्ञानयुता—इन नामोंसे वे भगवती विश्वमें पूजी जाती हैं। जो मनुष्य पूजाके समय देवीके इन बारह नामोंका पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशजोंको नागोंका भय नहीं रहता ॥ 51 – 533॥

जिस शयनागारमें नागोंका भय हो, जिस भवनमें नाग रहते हों, जो स्थान नागोंसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त दारुण बन गया हो तथा जो नागोंसे वेष्टित हो, उन स्थानोंपर इस स्तोत्रका पाठ करके मनुष्य सर्पभयसे मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 54-55 ॥

मनुष्य इसे नित्य पढ़ता है, उसे देखकर नागों का | समुदाय भाग जाता है। दस लाख पाठ करनेसे यह जो स्तोत्र मनुष्योंके लिये सिद्ध हो जाता है। जिस मनुष्यको स्तोत्रसिद्धि हो जाती है, वह विषभक्षण करनेमें समर्थ हो जाता है। वह नागोंको भूषण बनाकर नागों पर सवारी करनेमें सक्षम हो जाता है। वह व्यक्ति नागोंपर आसन लगानेवाला, नागोंपर शयन करनेवाला तथा महासिद्ध हो जाता है और अन्तमें भगवान् विष्णुके साथ दिन-रात क्रीडा करता है ॥ 56-58 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन