श्रीनारायण बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने देवी मनसाके विषयमें विधानपूर्वक कह दिया। अब आप उनके सामवेदोक्त ध्यान तथा पूजा-विधानके विषयमें मुझसे सुनिये ॥ 1 ॥'भगवती मनसा श्वेत चम्पकपुष्पके वर्णके समान आभावाली हैं, ये रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, इन्होंने अग्निके समान विशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है, ये नागों के यज्ञोपवीतसे युक्त हैं, महान् ज्ञानसे सम्पन्न हैं, प्रसिद्ध ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं, सिद्ध पुरुषोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, सिद्धिस्वरूपिणी हैं तथा सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं-ऐसी भगवती मनसाकी मैं आराधना करता हूँ' ॥ 2-3 ॥
इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्रसे देवी मनसाकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। वेदोक्त मूलमन्त्रोंका उच्चारण करके विविध प्रकारके नैवेद्य, धूप, पुष्प तथा पवित्र गन्ध- द्रव्योंके अनुलेपनसे उनकी पूजा सम्पन्न करनी चाहिये। हे मुने! भगवतीका द्वादशाक्षर मन्त्र पूर्णरूपसे सिद्ध हो जानेपर कल्पतरु नामक वृक्षकी भाँति भक्तोंको वांछित फल प्रदान करनेवाला हो जाता है वह मन्त्र 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मनसादेव्यै स्वाहा' - ऐसा बताया गया है। पाँच लाख जप करनेसे मनुष्योंके लिये इस मन्त्रको सिद्धि हो जाती है। जिसकी मन्त्रसिद्धि हो जाती है, वह पृथ्वीतलपर सिद्ध हो जाता है। उसके लिये विष भी अमृतके समान हो जाता है और वह धन्वन्तरितुल्य हो जाता है ॥ 4-7 ॥
हे ब्रह्मन्! जो मनुष्य संक्रान्तिके दिन स्नान करके यत्नपूर्वक किसी गुप्त स्थानमें अति भक्तिसे सम्पन्न होकर भगवती मनसाका आवाहन करके इनकी पूजा करता है तथा पंचमी तिथिको मनसे ध्यान करते हुए देवीको नैवेद्य अर्पण करता है, वह निश्चितरूपसे धनवान् पुत्रवान् तथा कीर्तिमान् होता है ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग! मैं देवी मनसाकी पूजाका विधान बतला चुका, अब मैं उनके उपाख्यानका वर्णन आपसे कर रहा हूँ, जिसे मैंने साक्षात् धर्मदेवके मुखसे सुना, उसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 10 ॥
प्राचीन कालमें एक बार भूमण्डलके सभी मानव नागोंके भयसे आक्रान्त हो गये थे। तब वे सब मुनिश्रेष्ठ कश्यपकी शरण में गये ॥ 11 ॥तत्पश्चात् अत्यन्त भयभीत मुनि कश्यपने ब्रह्माजीके साथ मिलकर मन्त्रोंकी रचना की। उन्होंने वेदबीजमन्त्रों के अनुसार तथा ब्रह्माजी के | उपदेशसे मन्त्रोंका सृजन किया था। साथ ही उन्होंने अपने मनसे मन्त्रोंकी अधिष्ठात्री देवी उन भगवती मनसाका सृजन भी किया, अतः तपस्या तथा मनसे सृजित होनेके कारण वे 'मनसा' नामसे विख्यात हुईं ॥ 12-13 ॥
कुमारी अवस्थामें विद्यमान वे भगवान् शिवके धाममें चली गयीं कैलासपर उन्होंने भक्तिपूर्वक विधिवत् शिवजीकी पूजा करके उनकी स्तुति की। इस प्रकार दिव्य एक हजार वर्षोंतक उस मुनि कन्याने शिवजीकी उपासना की ।। 143 ॥
आशुतोष भगवान् शिव उनपर प्रसन्न हो गये। हे मुने! तब उन्होंने मनसादेवीको महाज्ञान प्रदान किया तथा सामवेद पढ़ाया और श्रीकृष्ण के कल्पवृक्षस्वरूप अष्टाक्षर मन्त्रका उपदेश किया। लक्ष्मीबीज, मायाबीज और कामबीजका पूर्वमें प्रयोग करके कृष्ण शब्दके अन्तमें 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर उसके बाद 'नमः' जोड़ देनेपर बना हुआ अष्टाक्षर (श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः) मन्त्र है ।। 15-163 ll
भगवान् मृत्युंजय शिवसे त्रैलोक्यमंगल नामक कवच, पूजनक्रम, सर्वसम्मत तथा वेदोक्त पुरश्चरण क्रम और मन्त्र प्राप्त करके वे मुनिकन्या साध्वी मनसा भगवान् शंकरकी आज्ञासे तपस्या करनेके लिये | पुष्करक्षेत्रमें चली गयीं। वहाँ तीन युगौतक परमेश्वर श्रीकृष्णकी तपस्या करके वे देवी सिद्ध हो गयीं और उन्होंने अपने समक्ष साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किये ॥ 17-193 ॥
उस समय कृपानिधि भगवान् श्रीकृष्णने कृश शरीरवाली उन बालाको कृपापूर्वक देखकर उनकी स्वयं पूजा की तथा दूसरोंसे भी पूजा करायी। उन्होंने उन देवीको यह वर भी दिया कि 'तुम जगत् पूजित होओ' कल्याणी मनसादेवीको यह वर प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये । 20-213 ॥इस प्रकार वे मनसादेवी सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्णके द्वारा पूजित हुई। दूसरी बार भगवान् शिवने उनकी पूजा की और इसके बाद कश्यप, देवता, मुनि, मनु, नाग एवं मानव आदिके द्वारा वे सुव्रता तीनों लोकोंमें पूजित हुईं ॥ 22-233 ॥
इसके बाद कश्यपजीने उन देवीको जरत्कारुमुनिको सौंप दिया। कामनारहित होते हुए भी मुनिश्रेष्ठ जरत्कारने ब्रह्माजीकी आज्ञासे उन्हें पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया। विवाह करनेके पश्चात् चिरकालीन तपस्यासे थके हुए महायोगी मुनि जरत्कारु पुष्करक्षेत्रमें एक वटवृक्षके नीचे देवी मनसाके जंघापर लेट गये और निद्रेश्वर भगवान् शिवका स्मरण करके सो गये ।। 24-26 ।।
इतनेमें सूर्य अस्त हो गये। तब सायंकाल उपस्थित होनेपर परम साध्वी देवी मनसा धर्मलोपके भयसे अपने मनमें विचार करके यह सोचने लगीं कि "ब्राह्मणोंके लिये नित्यकी सायंकालीन सन्ध्या न करके मेरे पतिदेव ब्रह्महत्या आदि पापके भागी होंगे। जो मनुष्य प्रातः तथा सायंकालकी सन्ध्या नहीं करता, वह सब प्रकारसे सदा अपवित्र होकर ब्रह्महत्याके पापका भागी होता है-ऐसा वेदोंमें कहा गया है' यह सोचकर उस सुन्दरीने अपने पतिको जगा दिया। हे मुने! जग जानेपर मुनिश्रेष्ठ जरत्कारु मनसादेवीपर अत्यधिक कुपित हो उठे ll 27-303 ॥
मुनि बोले - हे साध्वि! तुमने सुखपूर्वक सोये हुए मेरी निद्रा क्यों भंग कर दी ? जो स्त्री अपने पतिका अपकार करती है, उसके व्रत आदि निरर्थक हो जाते हैं। अपने पतिका अपकार करनेवाली स्त्रीका जो भी तप, उपवास, व्रत, दान आदि है; वह सब निष्फल हो जाता है ॥ 31-323 ॥
जिस स्त्रीने अपने पतिकी पूजा की, उसने मानो साक्षात् श्रीकृष्णकी पूजा कर ली। पतिव्रता नारियोंके व्रतके लिये स्वयं भगवान् श्रीहरि पतिरूपमें विराजमान रहते हैं ॥ 336 ॥
समस्त दान, यज्ञ, तीर्थसेवन, व्रत, तप, उपवास, धर्म, सत्य और सभी देवताओंका पूजन आदि जो भी पुण्य कर्म है, वह सब पतिकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं है। ll34-353 ॥जो स्त्री पुण्यक्षेत्र भारतवर्षमें पतिकी सेवा करती है, वह अपने पतिके साथ वैकुण्ठधाम जाती है और वहाँ परब्रह्म भगवान् श्रीहरिके चरणों में शरण पाती है ॥ 366 ॥
हे साध्वि! असत्कुलमें उत्पन्न जो स्त्री अपने पतिके प्रतिकूल आचरण करती है तथा उससे अप्रिय वचन बोलती है, उसके कृत्यका फल सुनो। वह स्त्री कुम्भीपाक नरकमें जाती है और वहाँ सूर्य तथा चन्द्रमाके स्थितिकालतक निवास करती है। तत्पश्चात् वह चाण्डाली होती है और पति तथा पुत्रसे विहीन रहती है ।। 37-383 ॥
ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ जरत्कारुके ओष्ठ प्रस्फुरित होने लगे, जिससे वह साध्वी भयसे काँपने लगी और वह अपने पतिसे कहने लगी ॥ 393 ॥
साध्वी बोली- हे महाभाग ! आपकी सन्ध्याके लोपके भयसे ही मैंने आपकी निद्रा भंग की है। हे सुव्रत! मुझ दुष्टाका यह अपराध अवश्य है, अब आप शान्त हो जाइये ॥ 40 ॥
जो मानव श्रृंगार, आहार और निद्राका भंग करता है, वह सूर्य तथा चन्द्रमाकी स्थितिपर्यन्त कालसूत्रनरकमें वास करता है ॥ 413 ॥
ऐसा कहकर भयभीत मनसादेवी भक्तिपूर्वक अपने स्वामीके चरणकमलोंपर गिर पड़ीं और बार बार विलाप करने लगीं ॥ 423 ॥
मुनि जरत्कारुको कुपित होकर सूर्यको शाप | देनेके लिये उद्यत देखकर भगवान् सूर्य देवी सन्ध्याको साथ लेकर वहाँ आ गये। हे नारद! उन देवीके साथ | स्वयं भगवान् भास्कर वहाँ आकर भयभीत होकर विनयपूर्वक मुनिसे सम्यक् प्रकारसे यथोचित बात कहने लगे ॥ 43-443 ।।
भास्कर बोले- हे विप्र! सूर्यास्तका समय जानकर साध्वी मनसाने धर्मलोपके भयसे आपको जगा दिया है। हे भगवन्! मैं आपकी शरणमें आ गया हूँ, मुझे क्षमा कर दीजिये। हे ब्रह्मन्! हे मुने! मुझे शाप देना आपके लिये उचित नहीं है। ब्राह्मणोंका हृदय तो सदा नवनीतके समान कोमल होता है, उनके | आधे क्षणमात्रके क्रोधसे सारा संसार भस्म हो सकताहै, द्विज फिरसे जगत्की सृष्टि भी कर सकता है, द्विजसे बढ़कर तेजस्वी दूसरा कोई नहीं है। ब्रह्मतेजसे जाज्वल्यमान, ब्रह्मज्योतिस्वरूप तथा ब्रह्मवंश ब्राह्मणको निरन्तर सनातन भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनी चाहिये ।। 45 - 483 ॥
सूर्यका वचन सुनकर द्विज जरत्कारु प्रसन्न हो गये। भगवान् सूर्य भी विप्र जरत्कारुका आशीर्वाद लेकर अपने स्थानको चले गये। प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये उन | विप्रने विशु हृदयसे रुदन करती हुई तथा शोकसन्तप्त देवी मनसाका परित्याग कर दिया ।। 49-50ई ॥ उस विपत्तिमें भयसे व्याकुल देवी मनसाने अपने गुरुदेव शिव, इष्टदेवता ब्रह्मा, भगवान् श्रीहरि तथा जन्मदाता कश्यपजीका स्मरण किया ॥ 513 ॥ मनसे देवी मनसाके ध्यान करनेपर गोपियोंके ईश भगवान् श्रीकृष्ण, शंकर, ब्रह्मा और कश्यपजी वहाँ आ गये ॥ 523 ॥
प्रकृतिसे परे तथा निर्गुण अपने अभीष्ट देवको देखकर मुनि जरत्कारुने उनकी स्तुति की तथा बार बार उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। उन्होंने भगवान् शिव, ब्रह्मा तथा कश्यपको भी नमस्कार किया। 'हे देवगण! यहाँ आपलोगोंका आगमन किसलिये हुआ है ?' उन्होंने ऐसा प्रश्न किया ॥ 53-543 ॥
मुनि जरत्कारुका वचन सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलको प्रणाम करके सहसा समयोचित उत्तर दिया- 'हे मुने! यदि आप अपनी साध्वी तथा धर्मपरायणा पत्नी मनसाका त्याग ही करना चाहते हैं, तो इसे स्त्रीधर्म-पालनके योग्य बनाने हेतु पहले इससे पुत्र उत्पन्न कीजिये। अपनी भार्यासे पुत्र उत्पन्न करनेके बाद आप इसका त्याग कर सकते हैं; क्योंकि जो विरागी पुरुष पुत्र उत्पन्न किये बिना ही अपनी प्रिय भार्याका त्याग करता है, उसका पुण्य चलनीसे बहकर निकल जानेवाले जलकी भाँति नष्ट हो जाता है' ॥ 55-58 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! ब्रह्माजीका वचन सुनकर मुनीश्वर | जरत्कारुने मन्त्रोच्चारण करते हुए योगबलका आश्रय 'लेकर मनसादेवीकी नाभिका स्पर्श किया। तत्पश्चात् मुनिवर जरत्कारु उन देवीसे कहने लगे ॥ 593 ॥जरत्कारु बोले- हे मनसे! तुम्हारे इस गर्भसे जितेन्द्रियोंमें श्रेष्ठ, धार्मिक, ब्राह्मणोंमें अग्रणी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी, गुणसम्पन्न और वेदवेत्ताओं-ज्ञानियों" योगियोंमें श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न होगा। वह धार्मिक तथा विष्णुभक्त पुत्र कुलका उद्धार करेगा। ऐसे पुत्रके जन्म लेनेमात्रसे पितृगण हर्षपूर्वक नाच उठते हैं। प्रिय पत्नी वही है; जो मृदुभाषिणी, सुशीला, पतिव्रता, धर्मिष्ठा, सुपुत्रकी माता, कुलस्त्री तथा कुलका पालन करनेवाली होती है। श्रीहरिकी भक्ति प्रदान करनेवाला ही सच्चा बन्धु होता है, न कि अभीष्ट सुख देनेवाला । भगवत्प्राप्तिका मार्ग दिखानेवाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमनसे मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता होती है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यमके त्राससे छुटकारा दिला दे ॥ 60-65 ॥
गुरु वही है, जो विष्णुका मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न करनेवाला हो । ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करानेवाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृणसे | लेकर ब्रह्मपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत होकर पुनः विनष्ट हो जाता है, तो फिर अन्य वस्तुसे ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञसे जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरिकी सेवा ही है। यही हरिसेवा समस्त तत्त्वोंका सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरिकी सेवाके अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बनामात्र है ॥ 66-683 ॥
[हे देवि!] इस प्रकार मैंने तुम्हें ज्ञानोपदेश कर दिया। ज्ञानदाता स्वामी वही है, जो ज्ञानके द्वारा बन्धनसे मुक्त कर देता है और जो बन्धनमें डालता है, वह शत्रु है ।। 693 ॥
जो गुरु भगवान् श्रीहरिमें भक्ति उत्पन्न करनेवाला | ज्ञान नहीं देता, वह शिष्यघाती तथा शत्रु है; क्योंकि | वह बन्धनसे मुक्त नहीं करता। जो जननीके गर्भजनित | कष्ट तथा यमयातनासे मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय? जो भगवान् श्रीकृष्णके परमानन्दस्वरूप सनातन मार्गका निरन्तर दर्शन नहीं कराता, वह मनुष्योंके लिये कैसा बान्धव है ? ।। 70-723 ।।अतः हे साध्वि! तुम निर्गुण तथा अच्युत परब्रह्म श्रीकृष्णकी आराधना करो। उनकी उपासनासे मनुष्योंका सारा कर्म निर्मूल हो जाता है। हे प्रिये! मैंने छलपूर्वक तुम्हारा परित्याग किया है, अतः मेरे इस अपराधको क्षमा करो। सत्त्वगुणके प्रभावसे क्षमाशील साध्वी नारियोंमें क्रोध नहीं रहता। हे देवि! मैं तप करनेके लिये पुष्करक्षेत्र जा रहा हूँ। तुम भी यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ। भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलमें अनुराग ही निःस्पृह प्राणियोंका एकमात्र मनोरथ होता है ।।73-756 ॥
मुनि जरत्कारुका वचन सुनकर शोकसे व्याकुल तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाली मनसादेवी अपने प्राणप्रिय पतिदेवसे विनम्रतापूर्वक कहने लगीं ॥ 763 ॥
मनसा बोलीं- हे प्रभो! निद्राभंग कर देनेके कारण जो आप मेरा त्याग कर रहे हैं, इसमें मेरा दोष नहीं है। [ अतः आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि] मैं जहाँ भी आपका स्मरण करूँ, वहीं आप मुझे सदा दर्शन दीजियेगा। ll 773 ll
अपने बन्धुओंका वियोग अत्यन्त कष्टदायक होता है, पुत्रका वियोग उससे भी अधिक कष्टदायक होता है, किंतु प्राणेश्वर पतिदेवका वियोग प्राण विच्छेदके तुल्य होनेके कारण सबसे अधिक कष्टकर होता है ॥ 783 ॥
पतिव्रता स्त्रियोंके लिये पति सौ पुत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है। स्त्रियोंके लिये पति सबसे बढ़कर प्रिय होता है, अतः विद्वान् पुरुषोंने पतिको प्रियकी संज्ञा प्रदान की है ।। 793 ।।
जिस प्रकार एक पुत्रवाले लोगोंका मन पुत्रमें, वैष्णवजनोंका भगवान् श्रीहरिमें एक नेत्रवालोंका नेत्रमें प्यासे प्राणियोंका जलमें, भूखे प्राणियोंका अन्नमें, कामासक्त जनोंका मैथुनमें चोरोंका पराये धनमें, स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंका व्यभिचारी पुरुषमें, विद्वानोंका शास्त्रमें तथा वैश्योंका मन वाणिज्यमें लगा रहता है; उसी प्रकार हे प्रभो! पतिव्रता स्त्रियोंका मन सदा अपने पतिमें लगा रहता है । ll 80-823 ॥ऐसा कहकर मनसादेवी अपने स्वामीके चरणोंपर गिर पड़ीं। कृपानिधि मुनिवर जरत्कारुने कृपा करके क्षणभरके लिये उन्हें अपनी गोदमें ले लिया। मुनिने अश्रु से मनसादेवीको सम्पृक्त कर दिया। वियोगजन्य भयसे व्याकुल तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाली देवी मनसाने भी अपने आँसुओंसे उन मुनिकी गोदको सींच | डाला ॥ 83-846 ॥
तत्पश्चात् मुनि जरत्कारु तथा देवी मनसा-वे दोनों ही ज्ञानद्वारा शोकसे मुक्त हो गये। अपनी प्रियाको समझाकर बार-बार परमात्मा श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान करते हुए मुनि जरत्कारु तपस्याके लिये चले गये और देवी मनसा भी अपने गुरु भगवान् शिवके धाम कैलासपर चली गयीं। वहाँ पार्वतीने शोकसन्तप्त देवी मनसाको बहुत समझाया और कल्याण-निधान भगवान् शिवने भी उसे अत्यन्त मंगलकारी ज्ञान प्रदान किया ।। 85-873 ॥
तदनन्तर देवी मनसाने अत्यन्त प्रशस्त तथा मंगलमय वेलामें एक पुत्रको जन्म दिया, जो भगवान् नारायणका अंश और योगियों तथा ज्ञानियोंका भी गुरु था। वह बालक गर्भमें स्थित रहते हुए ही भगवान् शिवके मुखसे महाज्ञानका श्रवण करके | योगियों तथा ज्ञानियोंका गुरु और योगीश्वर हो गया था ।। 88-89 ॥
भगवान् शिवने उस शिशुका जातकर्म संस्कार | कराया तथा उसके कल्याणके लिये स्वस्तिवाचन और वेदपाठ कराया ॥ 903 ॥
शिवजीने बहुतसे मणि, रत्न तथा मुकुट ब्राह्मणोंको दान दिये और पार्वतीजीने लाखों गौएँ तथा भाँति भौतिके रत्न उन्हें प्रदान किये ॥ 913 ॥
भगवान् शिवने उस बालकको चारों वेद तथा वेदांग पढ़ाये और उसे श्रेष्ठ मृत्युंजय-ज्ञानका उपदेश दिया ।। 923 ।।
अपने पति, अभीष्ट देवता तथा गुरुमें उस | मनसाकी अत्यधिक भक्ति थी, इसलिये उसके पुत्रका | नाम ' आस्तीक' हुआ ।। 933 ॥मुनि जरत्कार पहले ही शिवजीकी आज्ञासे भगवान् विष्णुकी तपस्या करनेके लिये पुष्करक्षेत्रमें चले गये थे। वहाँ परमात्मा श्रीकृष्णका महामन्त्र प्राप्त करके वे तपोधन महायोगी जरत्कारु दिव्य तीन लाख वर्षोंतक | तपस्या करनेके पश्चात् भगवान् शिवको नमस्कार करनेके लिये आये। शंकरको नमस्कार करके वे वहीं रुक गये। बालक भी वहीं पर था । ll 94-96 ।।
तत्पश्चात् वे देवी मनसा अपने पिता कश्यपमुनिके आश्रममें आ गयीं। पुत्रसहित उस पुत्रीको देखकर प्रजापति कश्यप अत्यन्त हर्षित हुए। हे मुने। कश्यपजीने शिशुके कल्याणके लिये ब्राह्मणोंको करोड़ों रत्नोंका दान किया और असंख्य ब्राह्मणोंको भोजन कराया ।। 97-98 ।।
हे परंतप ! प्रजापति कश्यपकी दिति, अदिति तथा अन्य सभी पत्नियाँ परम प्रसन्न हुईं। उस समय देवी मनसा अपने पुत्रके साथ दीर्घकालतक अपने पिताके आश्रम में स्थित रहीं। अब उनका आगेका आख्यान पुनः कहूँगा, उसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 993 ॥
हे ब्रह्मन् ! एक समयकी बात है, अभिमन्युपुत्र राजा परीक्षित् दैवकी प्रेरणासे अपने द्वारा किये गये सदोष कर्मके कारण ब्रह्मशापसे सहसा ग्रस्त हो गये। श्रृंगीऋषिने कौशिकीनदीका जल लेकर उन्हें शाप दे दिया कि एक सप्ताह व्यतीत होते ही तक्षकनाग तुम्हें हँस लेगा ।। 100 - 1013 ॥
श्रृंगीऋषिका वह शाप सुनकर राजा परीक्षित् ऐसे सुरक्षित स्थानपर आ गये, जहाँ वायु भी प्रवेश नहीं कर सकता था। अपने देहकी रक्षामें तत्पर रहते हुए राजा परीक्षित् एक सप्ताहतक वहाँ रहे ॥ 102 ॥ राजा परीक्षित्को विषमुक्त करनेके लिये जाते हुए धन्वन्तरिने सप्ताह बीतनेपर राजाको डँसनेके लिये जा रहे तक्षकको मार्गमें देखा ॥ 1033 ॥
उन दोनोंमें बातचीत होने लगी और परस्पर बड़ी प्रीति हो गयी। तक्षकने अपनी इच्छासे उन्हें मणि दे दी और धन्वन्तरिने मणि ग्रहण कर ली। मणि पाकर वे सन्तुष्ट हो गये और प्रसन्नचित्त होकर लौट गये। इसके बाद तक्षकने मंचपर बैठे हुए राजाको डँस लिया। इसके | परिणामस्वरूप राजा परीक्षित् तत्काल देह त्यागकर परलोक चले गये। तब राजा जनमेजयने अपने पिताका समस्त औदैहिक संस्कार कराया। ll104 - 1063 llहे मुने ! तत्पश्चात् राजाने सर्पसत्र नामक यज्ञ आरम्भ किया, जिसमें ब्रह्मतेजके कारण अनेक सर्प प्राण त्यागने लगे। तब तक्षक भयभीत होकर इन्द्रकी शरणमें चला गया। विप्रसमुदाय इन्द्रसहित तक्षकको मारनेके लिये उद्यत हुआ ।। 107 - 1083 ॥
ऐसी स्थितिमें इन्द्रसहित सभी देवगण देवी मनसाके पास गये । वहाँपर भयातुर तथा व्याकुल इन्द्रने उन भगवती मनसाकी स्तुति की ॥ 1093 ॥ तदनन्तर मुनिवर आस्तीकने माताकी आज्ञासे यज्ञमें आकर श्रेष्ठ राजा जनमेजयसे इन्द्र और तक्षकके प्राणोंकी याचना की। तब महाराज जनमेजयने उन्हें कृपापूर्वक प्राणदानका वर दे दिया और ब्राह्मणोंकी आज्ञासे यज्ञका समापन करके विप्रोंको प्रसन्नतापूर्वक दक्षिणा दी ॥ 110 - 1113 ॥
तत्पश्चात् ब्राह्मण, मुनि तथा देवताओंने देवी मनसाके पास जाकर पृथक् पृथक् उनकी पूजा तथा स्तुति की। इन्द्रने भी सभी पूजन-सामग्री एकत्र करके पवित्र होकर परम आदरपूर्वक मनसादेवीका पूजन तथा स्तवन किया। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवीको श्रद्धापूर्वक नमस्कार करके उन्हें षोडशोपचार तथा प्रियपदार्थ प्रदान किये। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी आज्ञाके अनुसार देवी मनसाकी पूजा करके वे सब अपने-अपने स्थानको चले गये। [हे मुने!] इस प्रकार मैंने मनसादेवीका सम्पूर्ण आख्यान कह दिया, अब आप पुनः क्या सुनना | चाहते हैं ? ।। 112 - 1153॥
नारदजी बोले – [हे भगवन्!] देवराज इन्द्रने किस स्तोत्रसे देवी मनसाकी स्तुति की ? साथ ही मैं उन देवीके पूजा-विधानका क्रम यथार्थरूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ 116 ॥
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] देवराज इन्द्रने विधिपूर्वक स्नान किया। इसके बाद पवित्र होकर तथा आचमन करके उन्होंने दो शुद्ध वस्त्र धारण किये, फिर देवी मनसाको भक्तिपूर्वक रत्नमय सिंहासनपर विराजित किया। तत्पश्चात् इन्द्रने वेदमन्त्रोंका उच्चारण करते हुए रत्नमय कलशमें भरे हुए स्वर्गंगाके जलसे भगवतीको स्नान कराया और अग्नितुल्य शुद्ध दोमनोहर वस्त्र पहनाये। देवीके सम्पूर्ण अंगोंमें चन्दन लगाकर उन्हें भक्तिपूर्वक पाद्य तथा अर्घ्य अर्पण करनेके अनन्तर गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती - इन छः देवताओंकी विधिवत् पूजा करके इन्द्र ने साध्वी मनसाका पूजन किया ।। 117- 1203 ॥
इन्द्रने 'ॐ ह्रीं श्रीं मनसादेव्यै स्वाहा' इस दशाक्षर मूल मन्त्र के द्वारा यथोचितरूपसे सभी पूजन सामग्री अर्पित की। इस तरह भगवान् विष्णुकी प्रेरणा पाकर देवराज इन्द्रने सोलह प्रकारके दुर्लभ पूजनोपचार अर्पण करके प्रसन्नतापूर्वक भक्तिके साथ देवी मनसाकी पूजा की। उस समय इन्द्रने नाना प्रकारके वाद्य बजवाये ।। 121-123 ॥
देवताओंके प्रिय इन्द्रकी आज्ञा तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी आज्ञासे देवी मनसाके ऊपर आकाशसे पुष्पवृष्टि होने लगी। तत्पश्चात् पुलकित शरीरवाले इन्द्र नेत्रोंमें आँसू भरकर भगवती मनसाकी स्तुति करने लगे ॥ 1243 ॥ पुरन्दर बोले- हे देवि! पतिव्रताओंमें अति श्रेष्ठ, परात्पर तथा परमा आप भगवतीकी मैं स्तुति करना चाहता हूँ; किंतु इस समय आपकी स्तुति कर पानेमें समर्थ नहीं हैं। हे प्रकृते मैं वेदमें वर्णित आपके स्तोत्रोंके लक्षण तथा आपके चरित्रसम्बन्धी आख्यान आदिका वर्णन करनेमें सक्षम नहीं हूँ। [[हे देवि ! ] मैं आपके गुणोंकी गणना नहीं कर सकता ।। 125-1263 ॥
आप शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हैं तथा क्रोध, हिंसा आदिसे रहित हैं। मुनि जरत्कारु आपका त्याग कर सकने में समर्थ नहीं थे, इसलिये उन्होंने आपसे क्षमायाचना की थी। आप साध्वी मेरी माता अदितिके समान ही मेरी पूजनीया हैं। आप दयारूपसे मेरी भगिनी तथा क्षमारूपसे मेरी जननी हैं।। 127-1286 ॥ हे सुरेश्वरि आपके द्वारा मेरे प्राण, पुत्र और स्त्रीकी रक्षा हुई है, अतः मैं आपकी पूजा करता हूँ। आपके प्रति मेरी प्रीति निरन्तर बढ़ती रहे। हे जगदम्बिके! यद्यपि आप सनातनी भगवती सर्वत्र पूज्य हैं, फिर भी मैं आपकी पूजाका प्रचार कर रहा हूँ। हे सुरेश्वरि जो मनुष्य आषाढ़ मासकी संक्रान्ति,मनसा-पंचमी (नागपंचमी), मासके अन्तमें अथवा प्रतिदिन भक्तिपूर्वक आपकी पूजा करेंगे, उनके पुत्र-पौत्र आदि तथा धनकी वृद्धि अवश्य ही होगी और वे यशस्वी, कीर्तिमान्, विद्यासम्पन्न तथा गुणी होंगे। जो प्राणी आपकी पूजा नहीं करेंगे तथा अज्ञानके कारण आपकी निन्दा करेंगे, वे लक्ष्मीविहीन रहेंगे और उन्हें सदा नागोंसे भय बना रहेगा ।। 129 - 1333 ॥
[हे देवि !] आप स्वयं सर्वलक्ष्मी हैं तथा वैकुण्ठमें कमलालया हैं और मुनीश्वर भगवान् जरत्कारु नारायणके अंश हैं। आपके पिताने हमलोगोंकी रक्षाके उद्देश्यसे ही तपस्या और तेजके प्रभावसे मनके द्वारा आपका सृजन किया है, अतः आप 'मनसा' नामसे विख्यात हैं । ll 134- 1353 ।।
हे मनसादेवि ! आप अपनी शक्तिसे सिद्धयोगिनी हैं, अतः आप मनसादेवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हों। देवगण भक्तिपूर्वक मनसे निरन्तर आपकी श्रेष्ठ पूजा करते हैं, इसीलिये विद्वान् पुरुष आपको 'मनसादेवी' कहते हैं। हे देवि ! सत्यकी सर्वदा उपासना करनेके कारण आप सत्यस्वरूपिणी हैं। जो मनुष्य तत्पर होकर निरन्तर आपका ध्यान करता है, वह आपको प्राप्त कर लेता है ॥ 136-1383 ॥
[हे मुने!] इस प्रकार मनसादेवीकी स्तुति करके और उन भगिनीरूप देवीसे वर प्राप्तकर देवराज इन्द्र | अनेकविध भूषणोंसे अलंकृत अपने भवनको चले गये ।। 1393 ॥
मनसादेवीने अपने पुत्रके साथ पिता कश्यपके आश्रम में दीर्घकालतक निवास किया। भ्राताओंके द्वारा वे सदा पूजित, सम्मानित और वन्दित हुई । ll 1406 ॥
हे ब्रह्मन्! तदनन्तर सुरभि गौने गोलोक से वहाँ आकर इन्द्रद्वारा सुपूजित उन मनसादेवीको अपने दुग्धसे स्नान कराकर आदरपूर्वक उनकी पूजा की और उन देवीने उन्हें अत्यन्त दुर्लभ तथा गोपनीय सम्पूर्ण ज्ञानका उपदेश दिया। तत्पश्चात् उस सुरभि तथा देवताओंके द्वारा पूजित वे देवी मनसा पुनः स्वर्गलोकको चली गयीं ।। 141-1423 ॥जो मनुष्य पुण्यबीजस्वरूप इस इन्द्रस्तोत्रका पाठ करता है तथा भगवती मनसाकी पूजा करता है, उसे तथा उसके वंशजोंके लिये नागोंका भय नहीं रह जाता। यदि मनुष्य इस स्तोत्रको सिद्ध कर ले, तो उसके लिये विष भी अमृत-तुल्य हो जाता है। इस स्तोत्रका पाँच लाख जप कर लेनेसे मनुष्यको इसकी सिद्धि हो जाती है और वह निश्चय ही सर्पपर शयन करनेवाला तथा सर्पपर सवारी करनेवाला हो जाता है ॥ 143 - 145॥