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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 39 - Skand 9, Adhyay 39

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भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन

नारदजी बोले [हे भगवन्!] मैं सावित्री तथा धर्मराजके संवादमें निराकार मूलप्रकृति भगवती गायत्रीका निर्मल यश सुन चुका। उनके गुणोंका कीर्तन सत्यस्वरूप तथा मंगलोंका भी मंगल है। हे प्रभो! अब मैं लक्ष्मीका उपाख्यान सुनना चाहता हूँ ॥ 1-2 ॥ हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! सर्वप्रथम उन भगवती लक्ष्मीकी पूजा किसने की, उनका स्वरूप क्या है तथा पूर्वकालमें किसने उनके गुणोंका कीर्तन किया? यह सब मुझे बताइये ॥ 3 ॥

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! प्राचीन समयमें सृष्टिके आरम्भमें रासमण्डलके मध्य परमात्मा श्रीकृष्णके वाम भागसे भगवती राधा प्रकट हुई ॥ 4 ॥

वे भगवती लावण्यसम्पन्न तथा अत्यन्त सुन्दर थीं, उनके चारों ओर वटवृक्ष सुशोभित थे, वे बारह वर्षकी सुन्दरीकी भाँति दिख रही थीं, सर्वदा स्थिर रहनेवाले तारुण्यसे सम्पन्न थीं, श्वेत चम्पाके पुष्प जैसी कान्तिवाली थीं, उन मनोहारिणी देवीका दर्शन बड़ा ही सुखदायक था, उनका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके करोड़ों चन्द्रमाओंकी प्रभाको तिरोहित कर रहा था और उनके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्नकालीन कमलोंकी | शोभाको तिरस्कृत कर रहे थे ।। 5-63 ॥सर्वेश्वर श्रीकृष्णके साथ विराजमान रहनेवाली वे देवी उनकी इच्छासे दो रूपोंमें व्यक्त हो गयीं। ये दोनों ही देवियाँ अपने रूप, वर्ण, तेज, आयु, कान्ति यश, वस्त्र, कृत्य, आभूषण, गुण, मुसकान, अवलोकन प्रेम तथा अनुनय-विनय आदिमें समान थीं। उनके बायें अंशसे महालक्ष्मी आविर्भूत हुई तथा दाहिने | अंशसे राधिका स्वयं ही विद्यमान रहीं ॥ 7-9 ॥

पहले राधिकाने दो भुजाओंवाले परात्पर श्रीकृष्णको पतिरूपसे वरण किया। तत्पश्चात् महालक्ष्मीने भी उन्हीं मनोहर श्रीकृष्णको पति बनानेकी इच्छा प्रकट की। तब उन्हें गौरव प्रदान करनेके विचारसे वे श्रीकृष्ण भी दो रूपोंमें हो गये। वे अपने दाहिने अंशसे दो भुजाधारी श्रीकृष्ण बने रहे और बायें अंशसे चार भुजाओंवाले श्रीविष्णु हो गये। उसके बाद द्विभुज श्रीकृष्णने चतुर्भुज विष्णुको महालक्ष्मी समर्पित कर दी ।। 10-113 ॥

जो भगवती अपनी स्नेहमयी दृष्टिसे निरन्तर विश्वकी देखभाल करती रहती हैं, वे अत्यन्त महत्त्व शालिनी होनेके कारण महालक्ष्मी कही गयी हैं। इस प्रकार दो भुजाओंवाले श्रीकृष्ण राधाके पति बने और चतुर्भुज श्रीविष्णु महालक्ष्मीके पति हुए। ll 12-13॥

शुद्ध सत्त्वस्वरूपिणी भगवती श्रीराधा गोपों और गोपिकाओंसे आवृत होकर अत्यन्त शोभा पाने लगीं और चतुर्भुज भगवान् विष्णु लक्ष्मीके साथ वैकुण्ठ चले गये ॥ 14 ॥ परात्पर श्रीकृष्ण और श्रीविष्णु- वे दोनों ही समस्त अंशोंमें समान हैं। भगवती महालक्ष्मी योगबलसे नाना रूपोंमें विराजमान हुई ।। 15 ।।

वे ही भगवती परिपूर्णतम परम शुद्धस्वरूपा महालक्ष्मी नामसे प्रसिद्ध हो सम्पूर्ण सौभाग्योंसे सम्पन्न होकर वैकुण्ठलोकमें निवास करने लगीं ॥ 16 ॥ वे प्रेमके कारण समस्त नारियोंमें प्रधान हुईं। वे भगवती इन्द्रकी विभवस्वरूपा होकर स्वर्गमें स्वर्गलक्ष्मी नामसे प्रसिद्ध हुई। वे पातालमें नागलक्ष्मी राजाओंके यहाँ राजलक्ष्मी और गृहस्थोंके घरोंमें गृहलक्ष्मीके रूपमें अपनी कलाके एक अंशसे विराजमान हुई। सभी मंगलों का भी मंगल करनेवाली वे भगवती लक्ष्मी | गृहस्थोंके लिये सम्पत्तिस्वरूपिणी । ll 17 183 llगायोंकी जननी सुरभि तथा यज्ञपत्नी दक्षिणाके रूपमें वे ही प्रतिष्ठित हैं। वे महालक्ष्मी ही क्षीर सागरकी कन्याके रूपमें प्रकट हुई। वे कमलिनियों में श्रीरूपसे तथा चन्द्रमामें शोभारूपसे विराजमान हैं और सूर्यमण्डल इन्हींसे सुशोभित है। भूषण, रत्न, फल, जल, राजा, रानी, दिव्य स्त्री, गृह, सभी प्रकारके धान्य, वस्त्र, पवित्र स्थान, देवप्रतिमा, मंगलकलश, माणिक्य, मुक्ता, माला, श्रेष्ठ मणि, होरा, दुग्ध, चन्दन, वृक्षोंकी सुरम्य शाखा तथा नवीन मेघ - इन सभी वस्तुओंमें परम मनोहर महालक्ष्मीका ही अंश विद्यमान है । ll19-233 ॥

हे मुने सर्वप्रथम भगवान् नारायणने वैकुण्ठमें उन भगवती महालक्ष्मीकी पूजा की थी, दूसरी बार ब्रह्माने तथा तीसरी बार शंकरने भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की, भगवान् विष्णुने भारतवर्षमें क्षीरसागरमें उन महालक्ष्मीकी पूजा की। उसके बाद स्वायम्भुव मनु सभी राजागण, श्रेष्ठ ऋषि, मुनीश्वर तथा सदाचारी गृहस्थ-इन सभी लोगन जगतमें महालक्ष्मीकी उपासना की। गन्धर्वो तथा नाग आदिके द्वारा वे पाताललोकमें पूजित हुई। ll24- 263 ॥

हे नारद! ब्रह्माजीने भाद्रपदके शुक्लपक्षकी अष्टमी से प्रारम्भ करके पक्षपर्यन्त भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की, फिर तीनों लोकोंमें उनकी पूजा होने लगी। चैत्र, पौष तथा भाद्रपदमासोंके पवित्र मंगलवारको विष्णुके द्वारा उनकी पूजा की गयी, बादमें तीनों लोकोंमें सभी लोग भक्तिपूर्वक उनकी उपासना करने लगे ।। 27-283 ॥

वर्षके अन्तमें पौषको संक्रान्तिके अवसरपर मध्याह्नकालमें मनुने मंगलकलशपर आवाहन करके उनकी पूजा की। उसके बाद वे भगवती तीनों लोकोंमें पूज्य हो गयीं। इन्द्रके द्वारा वे पूजित हुई। मंगलने भी उन मंगलमयी भगवतीकी पूजा की उसके बाद केदार, नील, सुबल, नल, ध्रुव, उत्तानपाद, शक्र, बलि कश्यप, दक्ष, कर्दम, विवस्वान्, प्रियव्रत चन्द्र, कुबेर, वायु, यम, अग्नि और वरुणने उनकी उपासना की। इस प्रकार समस्त ऐश्वर्योकी अधिष्ठात्री देवीतथा समग्र सम्पदाओंकी विग्रहस्वरूपिणी वे भगवती महालक्ष्मी सर्वत्र सब लोगोंद्वारा सदा पूजित तथा वन्दित हुई ।। 29 - 33 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन