ऋषिगण बोले- हे सूतजी। हमारा चित्त सन्देहरूपी सागरमें पूर्णतः डूबता जा रहा है; क्योंकि आपने महान् आश्चर्यजनक तथा संसारको विस्मित कर देनेवाली यह बात कह दी कि विष्णुके शरीरसे उनका सिर अलग हो गया था और वे सर्वपालक जनार्दन पुनः हयग्रीव हो गये थे ॥ 1-2 ॥
वेद भी जिन भगवान् विष्णुका स्तवन करते हैं, समस्त देवता जिनका आश्रय ग्रहण करते हैं, जो आदिदेव हैं, जगत्के स्वामी हैं और सभी कारणोंके भी कारण हैं; दैवयोगसे उनका भी मस्तक कैसे कट गया? हे महामते ! वह सब आप हमसे विस्तारपूर्वक शीघ्र कहिये ।। 3-4 ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो! आप सभी लोग एकाग्रचित्त होकर परम तेजस्वी देवाधिदेव भगवान् विष्णुका चरित्र सुनिये ॥ 5 ॥
किसी समय वे सनातन देव विष्णु दस हजार वर्षोंतक भीषण युद्ध करके अत्यन्त थक गये थे ॥ 6 ॥ तदनन्तर एक समतल तथा शुभ स्थानपर पद्मासन लगाकर पृथ्वीपर स्थित प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुषपर कष्टप्रदेश (गर्दन) टिकाये हुए उस धनुषको नौकपर भार देकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु सो गये और थकावटके कारण दैवयोगसे उन्हें गहरी नींद आ गयी ॥ 7-8 ॥कुछ समय बीतनेके बाद ब्रह्मा, शिव तथा | इन्द्रसहित सभी देवता यज्ञ करनेको उद्यत हुए। वे सब देवकार्यकी सिद्धिहेतु यज्ञोंके अधिपति जनार्दन भगवान् विष्णुके दर्शनार्थ वैकुण्ठलोक गये ।। 9-10 ॥
उस समय उन्हें वहाँ न देखकर वे देवतागण ज्ञान- दृष्टिसे देख करके वहाँ पहुँचे, जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान थे ॥ 11 ॥
वहाँ उन्होंने सर्वव्यापी भगवान् विष्णुको योग निद्राके वशीभूत होकर अचेत पड़ा हुआ देखा। तब वे देवगण वहीं रुक गये ॥ 12 ॥
सभी देवताओंके वहाँ रुक जानेके बाद जगत्पति विष्णुको निद्रामग्न देखकर ब्रह्मा रुद्र आदि प्रमुख देवता अत्यन्त चिन्तित हुए ॥ 13 ॥
तदनन्तर इन्द्रने देवताओंसे कहा- हे श्रेष्ठ देवगण! अब क्या किया जाय ? हे श्रेष्ठ देवताओ! अब आप सभी यह विचार करें कि इनकी निद्रा किस प्रकार भंग की जाय ? ॥ 14 ॥
तब शिवजीने इन्द्रसे कहा कि इनकी निद्राका भंग करनेसे महान् दोष लगेगा, किंतु हे श्रेष्ठ देवगण! यज्ञकार्य भी अवश्यकरणीय है ॥ 15 ॥
इसके बाद परमेष्ठी ब्रह्माजीने पृथ्वीपर स्थित धनुषके अग्रभागको खा जानेके लिये दीमकका सृजन किया ।। 16 ।।
[उन्होंने यह सोचा कि] दीमकके द्वारा धनुषका अग्रभाग खा लिये जानेपर धनुष नीचा हो जायगा। तब वे देवाधिदेव विष्णु निद्रामुक्त हो जायँगे। ऐसा होनेपर निस्सन्देह देवताओंका सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायगा। अतः सनातन ब्रह्माजीने दीमकको इस कार्यके लिये आदेश दिया ।। 17-18 ॥
तब दीमकने ब्रह्माजीसे कहा कि देवाधिदेव जगद्गुरु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुका निद्रा भंग मैं | कैसे करूँ? क्योंकि नींदमें बाधा डालना, कथामें विघ्न पैदा करना, पति-पत्नीके बीच भेद उत्पन्न करना एवं माँ-पुत्रके बीच वैरभाव पैदा करनेके लिये षड्यन्त्रकरना ब्रह्महत्या के समान कहा गया है। अतः मैं | देवाधिदेव भगवान् विष्णुका सुख क्यों नष्ट करूँ ? हे देव! उस धनुषका अग्रभाग खानेसे मेरा क्या लाभ है, जिसके लिये मैं ऐसा पाप करूँ ? ll19-21 ॥
स्वार्थके वशीभूत होकर ही समस्त लोक पापकार्यमें प्रवृत्त होता है। इसलिये मैं भी इसमें कोई स्वार्थसिद्धि होनेपर हो इसका भक्षण करूँगा ॥ 22 ॥ ब्रह्माजी बोले- सुनो, हमलोग यज्ञमें तुम्हारे भागकी व्यवस्था कर देंगे इसलिये तुम अविलम्ब भगवान् विष्णुको जगाकर हमलोगोंका कार्य सम्पन्न कर दो ॥ 23 ॥
होमकार्यमें आहुति प्रदान करते समय जो हव्य आस-पास गिरेगा, उसीको अपना भाग समझना और अब तुम शीघ्रतापूर्वक हमारा कार्य करो ॥ 24 ॥
सूतजी बोले- हे ऋषियो ! ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेके अनन्तर दीमकने धरातलपर स्थित धनुषाग्रको शीघ्र ही खा लिया, जिससे धनुषकी डोरी मुक्त हो गयी ॥ 25 ॥
प्रत्यंचाके खुल जानेपर धनुषका वह ऊपरी कोना | मुक्त हो गया। इस प्रकार एक भीषण ध्वनि पैदा हुई जिससे वहाँ सभी देवगण भयभीत हो गये, ब्रह्माण्ड क्षुब्ध हो उठा, पृथ्वीमें कम्पन होने लगा, सभी समुद्र उद्विग्न हो गये, जलचर जन्तु व्याकुल हो उठे। प्रचण्ड हवाएँ प्रवाहित होने लगीं, पर्वत प्रकम्पित हो उठे, किसी दारुण आपदाके सूचक उल्कापात आदि महान् उपद्रव होने लगे, सूर्य तिरोहित हो गये तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त भयावह हो गयीं। यह सब देखकर देवतालोग चिन्तित होकर सोचने लगे कि इस दुर्दिनमें अब क्या होगा ? ।। 26-29 ।। हे तपस्वियों। वे देवतागण ऐसा सोच ही रहे
थे कि किरीट-कुण्डलसहित देवाधिदेव भगवान् विष्णुका
सिर [कटकर] कहीं चला गया ॥ 30 ॥
कुछ समय पश्चात् उस घोर अन्धकारके शान्तvहो जानेपर ब्रह्मा और शंकरने भगवान् विष्णुका मस्तकविहीन विलक्षण शरीर देखा ॥ 31 ॥भगवान् विष्णुका सिरविहीन धड़ देखकर वे श्रेष्ठ देवता अत्यन्त विस्मित हुए और चिन्तासागरमें निमग्न होकर शोकाकुल हो [इस प्रकार] विलाप करने लगे- ॥ 32 ॥
हे नाथ! हे प्रभो! यह कैसी विचित्र अलौकिक घटना हो गयी? हे देवाधिदेव ! हे सनातन! हम सभी देवताओंके लिये तो यह बात विनाशकारी है ॥ 33 ॥ यह किस देवताकी माया है, जिसके द्वारा आपके सिरका हरण कर लिया गया। आप तो सर्वदा अच्छेद्य, अभेद्य और अदा हैं ॥ 34 ॥
हे विभो ! इस प्रकार आपके चले जानेपर हम | देवता तो मृत्युको प्राप्त हो जायँगे। हमलोगोंके प्रति आपका कैसा स्नेह था। हमलोग स्वार्थके कारण ही रुदन कर रहे हैं ॥ 35 ॥ संकटकी यह स्थिति न तो दैत्योंने, न यक्षोंने और न राक्षसोंने ही पैदा की है, अपितु हम देवताओंने ही यह विघ्न उत्पन्न किया है; तथापि हे रमापते ! इसमें किसका दोष समझा जाय ? ॥ 36 ॥
हम सभी देवता पराश्रित हैं। हम इस समय क्या करें और कहाँ जायँ ? हे देवेश हम मूढ़ बुद्धिवाले देवताओंके लिये अब कहीं भी कोई शरण नहीं है ॥ 37 यह कोई सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी माया भी नहीं है, जिसके द्वारा आप मायापति जगद्गुरुका सिर काटा गया है ॥ 38 ॥
तब शिवसहित समस्त देवताओंको करुण क्रन्दन करते हुए देखकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ देवगुरु बृहस्पतिने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- हे महाभागो! अब इस प्रकार क्रन्दनसे क्या लाभ है ? इस समय तो विवेकका आश्रय लेकर कोई उपाय करना चाहिये। हे देवेन्द्र भाग्य एवं पुरुषार्थ- दोनों ही समान श्रेणीके हैं फिर भी उपाय करना ही चाहिये और वह दैवयोगसे ही सफल होता है ।। 39-41 ॥
इन्द्र बोले- अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है, मैं तो दैवको श्रेष्ठतर मानता हूँ; क्योंकि हम देवताओंके देखते-देखते विष्णुका सिर कट गया ॥ 42 ॥
ब्रह्माजी बोले- कालद्वारा जो भी शुभाशुभ कर्मोंका फल निर्धारित है, उसे अवश्य ही भोगना पड़ता भाग्यका अतिक्रमण कौन कर सकता है ? ॥। 43 ।।प्रत्येक प्राणी काल-क्रमके अनुसार सुख-दुःख भोगता ही है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिस प्रकार पूर्वकालमें कालकी प्रेरणासे शंकरजीने मेरा मस्तक काट दिया था, उसी प्रकार शापके कारण शिवजीका लिंग कटकर गिर गया था और उसी प्रकार आज विष्णुका सिर [कटकर] लवणसागरमें जा गिरा है ।। 44-45 ।।
[ दैवयोगसे ही] इन्द्रको भी सहस्र भगोंकी प्राप्ति हुई। उन्हें दुःख भोगना पड़ा। वे स्वर्गसे च्युत हो गये और मानसरोवरके कमलमें रहने लगे ॥ 46 ॥
इस संसारमें जब इन महाभाग देवताओंको भी दुःखका भोग करनेके लिये विवश होना पड़ा तो फिर दुःख भोगनेसे भला कौन वंचित रह सकता है ? अतएव आपलोग शोकका परित्याग कर दें और उन महामाया, विद्यारूपा, सनातनी, ब्रह्मविद्या तथा जगत्को धारण करनेवाली देवीका ध्यान कीजिये, जिनके द्वारा यह चराचर सम्पूर्ण त्रिलोक व्याप्त है। वे निर्गुणा परा प्रकृति हमलोगोंका समस्त कार्य सिद्ध कर देंगी ॥। 47 - 49 ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो ! देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजीने कार्यकी सिद्धिकी कामनासे अपने सम्मुख सशरीर विद्यमान वेदोंको आदेश दिया ॥ 50 ॥
ब्रह्माजी बोले- आपलोग समस्त कार्योंको सिद्ध करनेवाली, पराम्बा, ब्रह्मविद्या, सनातनी तथा निगूढ़ अंगोंवाली महामायाका स्तवन कीजिये ॥ 51 ॥ उनका यह वचन सुनकर समस्त सुन्दर अंगोंवाले वेद जगत्की आधारस्वरूपा तथा ज्ञानगम्या उन महामायाकी स्तुति करने लगे ॥ 52 ॥ वेदोंने कहा- हे देवि! हे महामाये! हे
विश्वोत्पत्तिकारिणि हे शिवे ! हे निर्गुणे! हे सर्वभूतेशि !
हे शिवकामार्थ-प्रदायिनि माता! आपको नमस्कार है ॥ 53 ॥ आप सभी प्राणियोंको आश्रय देनेके लिये पृथ्वीस्वरूपा हैं तथा प्राणधारियोंकी प्राण भी हैं। बुद्धि, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, धृति एवं स्मृति सब कुछ आप ही हैं ll 54 llॐकारमें अर्धमात्राके रूपमें आप ही विराजमान हैं। आप गायत्री, भूः भुवः स्वः आदि व्याहृति, जया, विजया, धात्री, लज्जा, कीर्ति, स्पृहा एवं दया सभी कुछ हैं ॥ 55 ॥
हे अम्ब! आप तीनों लोकोंके रचना-तन्त्रमें दक्ष, करुणरसे युक्त, सभी प्राणियोंकी माँ, विद्या | कल्याणी, सभी प्राणियोंकी हितसाधिका, सर्वश्रेष्ठ, वाग्बीजमन्त्रमें वास करनेमें निपुण तथा संसारका क्लेश दूर करनेवाली हैं; आपकी हम स्तुति करते हैं ॥ 56 ॥
ब्रह्मा, शंकर, विष्णु, इन्द्र, सरस्वती, अग्नि, सूर्य तथा सभी भुवनोंके स्वामी आपके द्वारा हो निर्मित किये गये हैं। अतः उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं है; आप ही सभी चराचर जगत्की माता हैं ॥ 57 ॥
हे जननि! जब आप जगत्की रचनाकी कामना करती हैं, तब आप सर्वप्रथम ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन प्रमुख देवोंका सृजन करती हैं। उन्हींके माध्यमसे एकमात्र आप ही जगत्का सृजन, पालन एवं संहारकार्य पूर्ण कराती हैं। हे देवि ! आपमें संसारका लेशमात्र भी नहीं रहता ।। 58 ।।
हे देवि ! सम्पूर्ण संसारमें ऐसा कोई भी निपुण प्राणी नहीं है, जो आपके रूपको जान सके और न तो ऐसा कोई योग्य मनुष्य है, जो आपके नामोंकी संख्याकी गणना करनेमें समर्थ हो। जो थोड़ेसे जलका सन्तरण करनेमें असमर्थ हो, वह बुद्धिसम्पन्न मनुष्य भला महासागरको पार करनेमें कुशल कैसे होगा ? ॥ 59 ॥
हे भगवति! आपके अन्तहीन वैभवको जान सकनेमें देवताओंमें कोई भी समर्थ नहीं है। एकमात्र आप समस्त विश्वकी माता हैं। आप अकेले ही इस सम्पूर्ण मिथ्या जगत्की रचना कैसे करती हैं? हे देवि! एकमात्र वेदवाक्य ही आपके इस सृष्टि कार्यकी प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं ॥ 60 ॥
हे भगवति समग्र जगत्को परम कारणस्वरूपा होती हुई भी आप इच्छारहित हैं। अहो! आपका अद्भुत चरित्र हमारे मनको विस्मित कर देता है। समस्त वेदोंसे भी अज्ञेय आपके गुणों एवं प्रभावोंका वर्णन हमलोग भला किस प्रकार कर सकते हैं; क्योंकि स्वयं आप भी अपने परमतत्त्वको नहीं जानतीं ॥ 61 ॥हे जननि! क्या आप भगवान् विष्णुके शिरोच्छेदनकी घटना नहीं जानती हैं? हे शिवे | अथवा क्या यह जानकर भी आप मधुजित् विष्णुकी शक्तिकी परीक्षा करना चाहती हैं? हे माता अथवा क्या यह विष्णुके महान् पापसमूहका फल है? किंतु आपके चरणकमलोंका भजन करनेमें निपुण प्राणीसे तो पाप हो ही नहीं सकता ॥ 62 ॥
हे माता ! आप इस देवसमूहकी भारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं? भगवान् विष्णुके मस्तक कटने की घटना हमारे लिये अत्यन्त आश्चर्यजनक तथा महान् कष्टदायक बात है। हे माता! आप जननरूपी दुःखका नाश करनेमें कुशल हैं, अब हम यह नहीं जान पा रहे हैं कि विष्णुके सिर-संयोजनमें विलम्ब क्यों हो रहा है ? ॥ 63 ॥
हे देवि ! सभी देवताओंके देवत्वाभिमानरूपी दोषको अपने मनमें समझकर आपने ही ऐसा किया है, अथवा देवजन्य दुष्कृतको विष्णुमें स्थापित किया है, अथवा विष्णुको संग्राम-विजय करनेका अहंकार हो गया था, जिसे अतिशीघ्र दूर करनेके लिये आपने यह लीला रची है। हे माता! हम आपके मनोभावोंको समझने में पूर्णतया असमर्थ हैं ll 64 ll
हे भगवति! अथवा युद्धमें पराभूत किये गये दैत्योंने किसी मनोहर तीर्थमें घोर तपस्या करके आपसे वरदान प्राप्त कर लिया है, जो विष्णुके सिर कटनेका कारण बना। हे भवानि अथवा विष्णुको सिरविहीनरूपमें देखनेके लिये आप इस समय कोई विनोद कर रही हैं ॥ 65 ॥
हे आद्ये! आप सिंधुसुता लक्ष्मीपर किसी कारणसे आक्रोशित तो नहीं हैं। आप उन्हें स्वामीविहीन किसलिये देखना चाह रही हैं? आप अपने ही अंशसे प्रादुर्भूत लक्ष्मीका अपराध क्षमा करें और भगवान् विष्णुको जीवनदान देकर रमाको प्रसन्न कर दें ॥ 66 ॥
जगत्के समस्त कार्योंको सम्पादित करनेमें प्रमुख भूमिकावाले अतिशय प्रभावशाली ये देवता आपको निरन्तर नमस्कार करते हैं। हे देवि सर्वलोकाभिपति विष्णुको जीवित करके आप देवताओंको शोकसागरसे पार कीजिये ॥ 67 ॥हे अम्ब! भगवान् विष्णुका सिर छिन्न होकर कहाँ चला गया यह हम नहीं जानते हैं और इस | समय इन्हें जीवित करनेके लिये अन्य कोई युक्ति भी नहीं सूझ रही है। हे देवि ! मृत प्राणीको जीवित करनेमें जिस प्रकार अमृत समर्थ है, उसी प्रकार समग्र संसारकी आप जीवनदात्री हैं ॥ 68 ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो। इस प्रकार सामगान निपुण सांगवेदोंद्वारा स्तुति किये जानेसे गुणातीता, महेश्वरी, परात्परा महामाया भगवती प्रसन्न हो गयीं ।। 69 ।।
उसी समय देवताओंको सुख प्रदान करनेवाले शब्दोंसे युक्त और भक्तजनोंको आनन्दित करनेवाली | आकाशस्थित अशरीरिणी शुभ वाणीने उनसे कहा॥ 70 ॥
हे देवताओ! आप लोग किसी प्रकारकी चिन्ता न करें और स्वस्थचित्त रहें। हे अमरगण इन वेदोंके भावपूर्ण स्तवनसे मैं परम प्रसन्न हो गयी है, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ॥ 71 ॥
मनुष्यलोकमें जो प्राणी इस स्तुतिसे मेरी आराधना | करेगा अथवा भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेगा, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायँगी ॥ 72 ॥
जो मनुष्य त्रिकाल (प्रातः, मध्याह्न, सायं) मेरी स्तुतिको नित्य भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह सभी दुःखोंसे विमुक्त होकर परम सुखी हो जायगा। वेदोंद्वारा | उच्चारित किये जानेके कारण यह स्तुति वेदोंके समान ही है ॥ 73 ॥
हे देवो! अब आप विष्णुके शिरोच्छेदका कारण सुनिये; क्योंकि इस लोकमें बिना कारण कोई कार्य कैसे हो सकता है ? ॥ 74 ॥
एक बार अपने समीप बैठी हुई अपनी प्रियतमा सागरपुत्री लक्ष्मीका चित्ताकर्षक मुख देखकर भगवान् विष्णु हँस पड़े ॥ 75 ॥
उन्होंने सोचा कि भगवान् विष्णु मुझे देखकर क्यों हँस पड़े? मेरे मुखमें विष्णुजीद्वारा दोष देखे जानेका आखिर क्या कारण हो सकता है? और फिर बिना किसी कारण उनका हँसना सम्भव नहीं हो सकता। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी अन्य | सुन्दर स्त्रीको मेरी सौत बना लिया है । 76-77 ॥इसी विचार मन्थनके परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी कोपाविष्ट हो गयीं और तब उनके शरीरमें तमोगुणसम्पन्न तामसी शक्ति व्याप्त हो गयी ॥ 78 ॥
तदनन्तर किसी दैवयोगके प्रभावसे देवताओंके कार्य साधनके उद्देश्यसे ही उनके शरीरमें अत्यन्त उग्र तामसी शक्ति प्रविष्ट हुई ॥ 79 ॥
तब लक्ष्मीजीके शरीरमें तामसी शक्तिका समावेश हो जानेके कारण वे अत्यन्त क्रोधित हो उठीं और उन्होंने मन्द स्वरमें यह कहा- 'तुम्हारा यह सिर कटकर गिर जाय' ॥ 80 ॥
स्त्रीस्वभावके कारण, भावीवश तथा संयोगसे बिना सोचे-समझे ही लक्ष्मीजीने अपने ही सुखको विनष्ट करनेवाला शाप दे दिया। सौतके व्यवहारादिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख वैधव्यसे भी बढ़कर होता है मनमें ऐसा सोचकर तथा शरीरपर तामसी शक्तिका प्रभाव रहनेके कारण उन्होंने ऐसा कह दिया था ॥ 81-82 ॥
मिथ्याचरण, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, अपवित्रता तथा दयाहीनता-ये स्त्रियोंके स्वाभाविक दोष हैं ॥ 83 ॥
अब मैं उन वासुदेवको पूर्वकी भाँति सिरयुक्त कर देती हूँ। इनका सिर पूर्वशापके कारण लवणसागरमें डूब गया है ॥ 84 ॥
हे श्रेष्ठ देवताओ! इस घटनाके होनेमें एक अन्य भी कारण है। आपलोगोंका महान् कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है 85 ॥
प्राचीन कालमें महाबाहु एवं अति प्रसिद्ध हयग्रीव नामवाला एक दानव था, जो सरस्वतीनदीके तटपर बहुत कठोर तपस्या करने लगा ॥ 86 ॥ वह दैत्य आहारका त्यागकर समस्त इन्द्रियों को वशमें करके तथा सभी प्रकारके भोगैश्वर्यसे दूर रहते हुए मेरे मायाबीजात्मक एकाक्षर मन्त्र (ह्रीं) का जप करता रहा ॥ 87 ॥ इस प्रकार समस्त आभूषणोंसे विभूषित मेरी तामसी शक्तिका सतत ध्यान करता हुआ वह एक हजार वर्षोंतक कठोर तप करता रहा ॥ 88 ॥उस समय उस दैत्यने जिस रूपमें मेरा ध्यान किया था, उसी तामसरूपमें उसे दर्शन देने हेतु उसके समक्ष मैं प्रकट हुई । 89 ।।
उस समय सिंहपर आरूढ़ हुई मैंने दयापूर्वक उससे कहा- हे महाभाग ! तुम वरदान माँगो; हे सुव्रत! मैं तुम्हें यथेच्छ वरदान दूँगी ॥ 90 ॥
वह दानव देवीका यह वचन सुनकर प्रेमविह्वल हो उठा और उसने तत्काल प्रणाम और प्रदक्षिणा की। मेरा रूप देखते ही प्रेमभावनाके कारण प्रफुल्लित नेत्रोंवाला तथा हर्षातिरेकके कारण अश्रुपूरित नयनोंवाला वह दानव मेरी स्तुति करने लगा । 91-92 ॥
हयग्रीव बोला- हे महामाये! हे जगत्का सृजन- पालन-संहार करनेवाली! हे भक्तोंपर कृपा करनेमें निपुण हे सकल कामनाप्रदायिनि हे मोक्षदायिनि ! हे शिवे! आप देवीको नमस्कार है ॥ 93 ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश - इन पाँच महाभूतोंका कारण आप ही हैं तथा गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-इन तत्त्वोंका कारण भी आप ही हैं ॥ 94 ॥
हे महेश्वरि ! नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान - ये ज्ञानेन्द्रियाँ तथा हाथ, पैर, वाक्, लिंग, गुदा-ये कर्मेन्द्रियाँ आपसे ही उत्पन्न हैं ॥ 95 ॥
देवी बोलीं- तुम्हारा क्या अभीष्ट है? जो कुछ भी तुम्हारा अभिलषित वर हो, माँग लो। मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगी; क्योंकि मैं तुम्हारी अनन्य भक्ति तथा अद्भुत तपस्यासे अतिशय प्रसन्न हूँ ॥ 96 ॥
हयग्रीव बोला- हे माता आप मुझे वैसा वरदान दें, जिससे मेरी मृत्यु कभी न हो और देव दानवोंद्वारा अपराजेय रहता हुआ मैं सदाके लिये अमर योगी हो जाऊँ ॥ 97 ॥
देवी बोलीं- जन्म लेनेवालेकी मृत्यु निश्चित है और मरनेवालेका जन्म भी निश्चित है। लोकमें स्थापित इस प्रकारकी मर्यादाका उल्लंघन कैसे सम्भव है ? ॥ 98 ॥
अतएव हे दानवश्रेष्ठ मृत्युको अवश्यम्भावी | जानकर अपने मनमें सम्यक् विचार करके तुम अन्य यथेच्छ वर माँग लो ॥ 99 ॥हयग्रीव बोला- हे जगदम्बे मेरी मृत्यु हयग्रीवसे ही हो, किसी अन्यसे नहीं। मेरी इसी मनोवांछित कामनाको आप पूर्ण करें ॥ 100
देवी बोलीं- हे महाभाग ! अपने घर जाकर अब तुम सुखपूर्वक राज्य करो। हयग्रीवके अतिरिक्त अन्य किसीसे भी तुम्हारी कदापि मृत्यु नहीं होगी ॥ 101 ॥ उस दैत्यको यह वरदान देकर मैं अन्तर्धान हो गयी और वह भी परम प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया ॥ 102 ॥ वह दुष्टात्मा इस समय मुनिजनों तथा वेदोंको हर प्रकारसे पीड़ित कर रहा है और तीनों लोकोंमें कोई भी ऐसा नहीं है, जो उसका संहार कर सके ॥ 103 ॥ अतः त्वष्टा इस अश्वका मनोहर सिर अलग करके उसे इन सिरविहीन विष्णुके धड़पर संयोजित कर देंगे ॥ 104 ॥
तत्पश्चात् देवताओंके कल्याणार्थ भगवान् हयग्रीव उस पापात्मा, अत्यन्त क्रूर तथा दानवी स्वभाववाले महा असुर हयग्रीवका संहार करेंगे ॥ 105 ॥
सूतजी बोले- देवताओंसे इस प्रकार कहकर भगवती शान्त हो गयीं और इसके बाद देवगण परम | सन्तुष्ट होकर देवशिल्पी विश्वकर्मासे बोले 106 देवताओंने कहा- आप विष्णुके धड़पर घोड़ेका सिर जोड़कर देवताओंका कार्य कीजिये वे भगवान् हयग्रीव ही दानवश्रेष्ठ दैत्यका वध करेंगे ll 107 ll
सूतजी बोले- देवताओंका यह वचन सुनकर विश्वकर्माने अतिशीघ्रतापूर्वक अपने खड्गसे देवताओंकि सामने ही घोड़ेका सिर काटा। तत्पश्चात् उन्होंने घोड़ेका वह सिर अविलम्ब विष्णुभगवान्के शरीरमें संयोजित कर दिया और इस प्रकार महामाया भगवतीकी कृपासे वे भगवान् विष्णु हयग्रीव हो गये ll108-109 ॥
कुछ समय बाद उन भगवान् हयग्रीवने अहंकारके मदमें चूर उस देवशत्रु दानवका युद्धभूमिमें अपने तेजसे वध कर दिया ll 110 ॥
इस संसारमें जो प्राणी इस पवित्र कथाका श्रवण करते हैं, वे समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं; इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ॥ 111 llमहामाया भगवतीका चरित्र अति पावन है तथा पापोंका नाश कर देता है। इस चरित्रका पाठ तथा श्रवण करनेवाले प्राणियोंको सभी प्रकारकी सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ 112 ॥