नारदजी बोले [हे भगवन्!] मूलप्रकृतिरूपा देवियाँका सारा आख्यान मैंने यथार्थरूपमें सुन लिया, जिसका श्रवण करके प्राणी जन्म-मरणरूपी भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है। अब मैं भगवती राधा तथा दुर्गाका वेदगोपित रहस्य तथा वेदोक्त पूजा विधान सुनना चाहता हूँ ॥ 1-2 ॥
हे मुनीश्वर! आपने इन दोनों पराशक्तियोंकी अद्भुत महिमा बतायी, उसे सुनकर भला किस पुरुषका मन उनमें लीन नहीं हो जायगा ॥ 3 ॥
[हे भगवन्!] यह सम्पूर्ण जगत् जिनका अंश है, यह चराचर विश्व जिनसे नियन्त्रित है तथा जिनकी भक्तिसे प्राणियोंकी मुक्ति हो जाती है, उन | देवियोंके पूजा-विधानके विषयमें अब आप मुझे बताइये ll 4 ॥
श्रीनारायण बोले- हे नारद! सुनिये, मैं वह वेदवर्णित परम सारस्वरूप तथा परात्पर रहस्य आपको बता रहा हूँ, जिसे मैंने किसीको भी नहीं बताया है। | इसे सुनकर आप किसी दूसरेसे मत कहियेगा; क्योंकि यह परम गोपनीय है ॥ 5 ॥
जगत्की उत्पत्तिके समय मूलप्रकृतिस्वरूपिणी ज्ञानमयी भगवतीसे प्राण तथा बुद्धिको अधिष्ठात्री देवियोंके रूपमें दो शक्तियाँ प्रकट हुई। [श्रधा भगवान् श्रीकृष्णके प्राणोंकी तथा श्रीदुर्गा उनकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं।] वे शक्तियाँ ही सम्पूर्ण जीवको सदा नियन्त्रित तथा प्रेरित करती हैं। विराट् | आदि चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् उन्हीं शक्तियोंके अधीन है ।। 6-73 ।।जबतक उन दोनों शक्तियोंकी कृपा नहीं होती, तबतक मोक्ष दुर्लभ रहता है। अतएव उन दोनोंकी प्रसन्नताके लिये उनकी निरन्तर उपासना करनी चाहिये ॥ 83 ॥
हे नारद! उनमें आप पहले राधिकामन्त्रको भक्तिपूर्वक सुनिये, जिस परात्पर मन्त्रको ब्रह्मा, विष्णु आदि भी सदा जपते रहते हैं।' श्रीराधा' इस शब्दके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर उसके आगे अग्निपत्नी 'स्वाहा' पद जोड़ देनेपर 'श्रीराधायै स्वाहा' नामक यह षडक्षर महामन्त्र धर्म, अर्थ आदिको प्रकाशित करनेवाला है। इसी राधिकामन्त्रके आदिमें मायाबीज (ह्रीं) से युक्त होकर ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा- यह वाञ्छाचिन्तामणि मन्त्र कहा गया है। इस मन्त्रका माहात्म्य करोड़ों मुखों तथा जिह्वाओंके द्वारा भी नहीं कहा जा सकता है ॥ 9-12 ॥
सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्णने गोलोकमें रासमण्डलमें मूलदेवी भगवती श्रीराधाके उपदेश करनेपर भक्तिपूर्वक इस मन्त्रको ग्रहण किया था। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने विष्णुको, विष्णुने विराट् ब्रह्माको, ब्रह्माने धर्मदेवको और धर्मदेवने मुझको इस मन्त्रका उपदेश किया। इस प्रकार यह परम्परा चली आयी ll 13-14 ॥
मैं उस मन्त्रका जप करता हूँ, इसी कारणसे मैं ऋषिरूपमें पूजित हूँ। ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी सदा प्रसन्नतापूर्वक उन श्रीराधिकाका ध्यान करते रहते हैं। राधाकी पूजाके बिना श्रीकृष्णकी पूजा करनेका अधिकार नहीं है, अतः सभी वैष्णवोंको राधिकाका पूजन [अवश्य] करना चाहिये । ll 15-16 ॥
वे भगवती राधिका भगवान् श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, अतः वे विभु उनके अधीन रहते हैं। वे श्रीकृष्णके रासकी सदा स्वामिनी हैं, इसलिये श्रीकृष्ण उन राधिकाके बिना नहीं रह सकते। वे [प्राणियोंके] सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करती हैं, इसलिये वे 'राधा'- इस नामसे विख्यात हैं॥ 103 ॥यहाँ कहे गये सभी मन्त्रोंका ऋषि मैं नारायण ही हूँ, उनमें राधामन्त्रका देवी गायत्री छन्द है तथा राधिका देवता हैं, तार (प्रणव) बीज है और देवी भुवनेश्वरीको शक्ति कहा गया है। मूलमन्त्रकी आवृत्तिसे षडंगन्यास कर लेना चाहिये ॥ 18-193 ॥
हे मुने! इसके बाद सामवेद में वर्णित पूर्वोक्त रीतिके अनुसार रासेश्वरी महादेवी राधिकाका ध्यान करना चाहिये। [ ध्यान इस प्रकार है]- 'परमेश्वरी श्रीराधा श्वेत चम्पाके वर्णके समान आभावाली हैं, शरत्कालीन चन्द्रमाके समान मुखवाली हैं, इनके श्रीविग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रोंकी प्रभाके समान है, ये शरद् ऋतुके खिले हुए कमलके समान नेत्रोंवाली हैं, बिम्बाफलके समान ओष्ठवाली तथा स्थूल श्रोणीवाली हैं, करधनीसे सुशोभित नितम्बदेशवाली हैं।
पुष्पोंकी पंक्तिके सदृश आभावाली दन्तपंक्तिसे सुशोभित हैं, इन्होंने अग्निके समान विशुद्ध रेशमी वस्त्र धारण कर रखा है, ये मन्द मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुखमण्डलवाली हैं, इनके दोनों वक्षःस्थल हाथीके | मस्तकके समान विशाल हैं, ये सदा बारह वर्षकी अवस्थावाली प्रतीत होती हैं, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, शृंगारसिन्धुकी तरंगोंके समान हैं, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये आतुर हैं, मल्लिका तथा मालतीके पुष्पोंकी मालाओंसे युक्त केशपाशसे सुशोभित हो रही हैं, इनके सुकुमार अंगोंमें मोतियोंकी लड़ियाँ शोभा दे रही हैं, ये रासमण्डलके मध्यभागमें विराजमान हैं, इन्होंने अपने हाथोंमें वर तथा अभय मुद्राओंको धारण कर रखा है, ये शान्त स्वभाववाली हैं, सदा शाश्वत यौवनसे सम्पन्न हैं, रत्ननिर्मित सिंहासनपर विराजमान हैं, समस्त गोपियोंकी स्वामिनी हैं, ये भगवान् श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं और वेदोंमें इन परमेश्वरी राधिकाकी महिमाका वर्णन हुआ है । ll 20 - 27 ॥
इस प्रकार हृदयदेशमें ध्यान करके बाहर शालग्रामशिला, कलश अथवा आठ दलवाले यन्त्रपर विधानपूर्वक देवी राधिकाकी पूजा करनी चाहिये ॥ 28 ॥देवी राधिकाका आवाहन करनेके पश्चात् आसन आदि समर्पण करे। मूलमन्त्रका सम्यक् उच्चारण करके ही आसन आदि वस्तुएँ भगवती के सम्मुख उपस्थित करनी चाहिये। पाद्य-जल उनके चरणोंमें अर्पण करना चाहिये। उनके मस्तकपर अर्ध्य देनेका विधान बताया गया है। मूलमन्त्रसे तीन बार मुखमें आचमन कराना चाहिये। तत्पश्चात् मधुपर्क देकर श्रीराधाके लिये एक पयस्विनी (दूध देनेवाली) गौ प्रदान करनी चाहिये। तदनन्तर उन्हें स्नानगृहमें ले जाकर वहीं पर उनकी भावना करे ।। 29-31 ॥
तैल आदि सुगन्धित द्रव्योंसे विधिपूर्वक स्नान करानेके पश्चात् दो वस्त्र अर्पण करे। तदनन्तर नानाविध आभूषणोंसे अलंकृत करके चन्दन समर्पित करे। इसके बाद तुलसीकी मंजरीसे युक्त अनेक प्रकारकी पुष्पमालाएँ और पारिजात तथा शतदल कमलके पुष्प आदि समर्पित करे ।। 32-33 ॥
तदनन्तर प्रधान देवता उन भगवतीकी पवित्र आवरण पूजा सम्पन्न करनी चाहिये। अग्निकोण, ईशानकोण, नैर्ऋत्यकोण, वायव्यकोण तथा पूर्व आदि दिशाओंमें भगवती राधिकाके अंगपूजनका विधान है। इसके बाद अष्टदल यन्त्रको आगे करके दक्षिणावर्त क्रमसे पूर्वसे प्रारम्भ करके पूजन करे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि अष्टदल यन्त्रके पूर्वदिशावाले दलमें मालावती, अग्निकोणमें माधवी, दक्षिणमें रत्नमाला, नैर्ऋत्यकोणमें सुशीला, पश्चिममें शशिकला वायव्यकोणमें पारिजाता, उत्तरमें परावतीका पूजन करे तथा ईशानकोणमें सुन्दरी प्रियकारिणी की पूजा करे यन्त्रपर दलके बाहर ब्राह्मी आदि शक्तियोंकी तथा भूपुरमें दिसालों और वन आदि आयुधों का अर्चन करे इस विधि भगवती श्रीराधिकाका पूजन करना चाहिये ।। 34-38 ॥
तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुषको राजोपचारसहित गन्ध आदि पूजनोपचारों आवरणसहित भगवती राधिकाकी पूजा करनी चाहिये इसके बाद समस्त देवेश्वरी राधाकी स्तुति करनी चाहिये और मन्त्रका एक हजार जप भी नित्य प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ।। 39-40 ॥जो मनुष्य इस विधि से रासेश्वरी परात्परा राधिकाकी पूजा करता है, वह विष्णुतुल्य हो जाता है और गोलोकमें जाकर सदा वास करता है ॥ 41 ॥
जो बुद्धिमान पुरुष कार्तिकपूर्णिमा तिथिको भगवती श्रीराधाका जन्मोत्सव मनाता है, उसे रासेश्वरी परमा श्रीराधिका अपना सान्निध्य प्रदान कर देती हैं ॥ 42 ॥ गोलोक में सदा निवास करनेवाली भगवती श्रीराधा
किसी कारणसे ही वृन्दावनमें वृषभानुकी पुत्रीके रूपमें
आविर्भूत हुईं ॥ 43 ॥
यहाँ कहे गये मन्त्रोंकी वर्णसंख्या के अनुसार पुरश्चरण-क्रिया बतायी गयी है। इसमें जपे गये मन्त्रके दशांशसे हवन करना चाहिये, भक्ति भावपूर्वक दुग्ध, मधु और मृतइन तीन मधुर पदार्थोंसे मिश्रित तिलोंसे आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ 443 ॥
नारदजी बोले - हे मुने! अब आप वह स्तोत्र बताइये, जिससे भगवती श्रीराधिका भलीभाँति प्रसन्न हो जाती हैं ॥ 45 ll
श्रीनारायण बोले- [स्तोत्र इस प्रकार है ] रासमण्डलमें निवास करनेवाली हे परमेश्वरि! आपको नमस्कार है। कृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हे रासेश्वरि ! आपको नमस्कार है ॥ 46 ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंके द्वारा वन्दित चरणकमलवाली है। त्रैलोक्यजननि! आपको नमस्कार है। है करुणार्णवे ! आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ 47 ॥ हे सरस्वतीरूपे ! आपको नमस्कार है। हे सावित्रि ! हे शंकरि ! हे गंगा-पद्मावतीरूपे !! | हे षष्ठि ! हे मंगलचण्डिके! आपको नमस्कार है ॥ 48 हे तुलसीरूपे आपको नमस्कार है। हे लक्ष्मीस्वरूपिणि! आपको नमस्कार है। हे दुर्गे! हे भगवति! आपको नमस्कार है। हे सर्वरूपिणि! आपको नमस्कार है ।। 49 ।। हे अम्ब! मूलप्रकृतिस्वरूपिणी तथा करुणासिन्धु आप भगवतीकी हम उपासना करते हैं, संसारसागरसे हमारा उद्धार कीजिये, दया कीजिये ॥ 50 ॥ जो मनुष्य तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) - में श्रीराधिकाका स्मरण करते हुए इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसके लिये कोई भी वस्तु कभी भी दुर्लभ नहीं रहती। वह देह त्यागके अनन्तर गोलोकमें | राममण्डलमें निरन्तर निवास करता है। [हे मुने!]]इस परम रहस्यको किसीके समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिये ।। 51-52 ॥
हे विप्रवर! अब आप उन भगवती दुर्गाका | पूजा विधान सुनिये, जिनके स्मरणमात्रसे घोर विपत्तियाँ भाग जाती हैं ॥ 53 ॥
जो इन भगवती दुर्गाकी उपासना नहीं करता हो, वैसा कोई मनुष्य कहीं नहीं है। ये भगवती सबकी उपास्या, सभी प्राणियोंकी जननी तथा अत्यन्त अद्भुत शैवी शक्ति हैं। ये समस्त प्राणियोंकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी तथा अन्तर्यामीस्वरूपिणी हैं। ये घोर संकटसे रक्षा करती हैं, अतः जगत्में 'दुर्गा' नामसे विख्यात हैं । ll 54-55 ॥
सभी वैष्णवों तथा शैवोंकी ये सदा उपास्य हैं। मूल प्रकृतिरूपिणी हैं और जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करनेवाली हैं ॥ 56 ॥
[हे] नारद!] अब मैं उन भगवती दुर्गाकि उत्तमोत्तम नवाक्षर मन्त्रका वर्णन करूँगा। सरस्वतीबीज (ऐं), भुवनेश्वरीबीज (ह्रीं) और कामबीज (क्लीं ) - इन तीनोंका आदिमें क्रमशः प्रयोग करनेके बाद 'चामुण्डायै' - इस पदको लगानेके अनन्तर 'विच्चे' इन दो अक्षरोंको जोड़ देनेपर बना हुआ 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे' - यह नवाक्षर मन्त्र कहा गया है, जो जप करनेवाले मनुष्यके लिये कल्पवृक्षके समान है ।। 57-58 ।।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस मन्त्रके ऋषि कहे गये हैं। गायत्री, उष्मिक और अनुष्टुप् ये तीनों इस मन्त्रके छन्द कहे गये हैं। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती इस मन्त्रकी देवता है। रक्तदन्तिका, दुर्गा तथा भ्रामरी - इस मन्त्रके बीज हैं। नन्दा, शाकम्भरी और भीमा-ये देवियों इस मन्त्रको शक्तियाँ कही गयी हैं ।। 59-60 ।।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके लिये इस मन्त्रका विनियोग किया जाता है। ऋषि, छन्द और | देवताका क्रमशः मस्तकपर, मुखमें और हृदयमें न्यास करना चाहिये सर्वार्थसिद्धिके लिये दोनों स्तनोंमें | शक्तिबीजोंका न्यास करना चाहिये ॥ 61-62 ॥ऐं, ह्रीं क्लीं तीन बीजमन्त्रों, चार वर्णोंवाले चामुण्डायै, दो वर्णोंवाले विच्चेके साथ तथा पूरे मन्त्रके साथ क्रमशः नमः स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट्-इन छः जातिसंज्ञक वर्णोंको लगाकर साधकको शिखा, दोनों नेत्र, दोनों कान, नासिका, | मुख और गुदा आदि छ स्थानोंमें न्यास करना चाहिये; साथ ही सम्पूर्ण मन्त्रसे [सिरसे लेकर पैरतक) व्यापक न्यास करना चाहिये ।। 63-64 ॥
[महाकालीका ध्यान ] 'हाथोंमें खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, कपाल तथा शंख धारण करनेवाली नानाविध आभूषणोंसे अलंकृतः नीलांजनके समान कान्तिवाली; दस चरणों तथा दस मुखोंवाली एवं तीन नेत्रोंवाली भगवती महाकालीकी मैं आराधना करता हूँ, जिनका स्तवन कमलासन ब्रह्माजीने मधु और कैटभका वध करनेके लिये किया था इस प्रकार कामबीजस्वरूपिणी भगवती महाकालीका ध्यान करना चाहिये ।। 65-67 ॥
[महालक्ष्मीका ध्यान - ] 'जो अपने हाथोंमें अक्षमाला, परशु, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, कमल, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और सुदर्शनचक्र धारण करती हैं; जो अरुण प्रभावाली हैं; रक्त कमलके आसनपर विराजमान हैं तथा मायाबीजस्वरूपिणी हैं' इस तरहसे महिषासुरमर्दिनी उन महालक्ष्मीका ध्यान करना चाहिये ।। 68-70 ॥
[महासरस्वतीका ध्यान] 'जो अपने कर कमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शंख, मुसल, सुदर्शनचक्र, धनुष तथा बाण धारण करती हैं; कुन्दके समान मनोहर कान्तिवाली हैं; शुम्भ आदि दैत्योंका संहार करनेवाली हैं; सच्चिदानन्द-विग्रहसे सम्पन्न हैं तथा वाणीबीजस्वरूपिणी हैं'-उन भगवती महासरस्वतीका ध्यान करना चाहिये ॥ 71-72 ॥
हे प्राज्ञ! अब इन भगवतीके यन्त्रके विषयमें सुनिये। तीन असोंवाला तथा छः कोणोंसे युक्त यन्त्र होना चाहिये, उसके चारों ओर अष्टदलकमल हो और कमलमें चौबीस पंखुड़ियाँ विद्यमान हों, वह यन्त्र भूगृहसे सम्पन्न हो इस प्रकारके यन्त्रके विषयमें चिन्तन करना चाहिये ॥ 733 ॥ एकाचित्त होकर शालग्राम, कलश, यन्त्र, प्रतिमा, बाणलिंग अथवा सूर्यमें भगवतीकी भावना करके उनकायजन करना चाहिये। जया आदि शक्तियोंसे सम्पन्न पीठपर देवीकी विधिवत् पूजा करे ॥ 74-75 ॥ यन्त्रके पूर्वकोणमें सरस्वतीसहित ब्रह्माकी पूजा करे, नैर्ऋत्यकोणमें लक्ष्मीसहित विष्णुको पूजा करे तथा वायव्यकोणमें पार्वतीसहित भगवान् शिवकी पूजा करे। देवीके उत्तरमें सिंहकी तथा बायीं ओर महिषासुरकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद छः कोणोंमें क्रमशः भगवती नन्दजा, रक्तदन्ता, शाकम्भरी, कल्याणकारिणी दुर्गा, भीमा तथा भ्रामरीका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर | आठ दलोंमें ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री और चामुण्डाकी पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् चौबीस पंखुड़ियोंमें पूर्वक क्रमसे विष्णुमाया, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, पराशक्ति, तृष्णा, शान्ति, जाति, लज्जा, क्षान्ति, श्रद्धा, कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, वृत्ति, श्रुति स्मृति, दया, तुष्टि, पुष्टि, माता और भ्रान्ति- इन | देवियोंकी पूजा करनी चाहिये ॥ 76-82 ॥
तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि भूपुर कोणोंमें गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक और योगिनियोंकी पूजा करे। दलके बाहर पत्र आदि आयुधों से युक्त इन्द्र आदि | देवताओंकी भी पूजा करे। इसी रीतिसे आवरणसहित भगवती दुर्गाकी पूजा करे। भगवतीकी प्रसन्नताके लिये विविध प्रकारके राजसी पूजनोपचार उन्हें अर्पण करने चाहिये। तत्पश्चात् मन्त्रार्थपर ध्यान रखते हुए नवार्ण मन्त्रका जप करना चाहिये ।। 83-85 ll
तदनन्तर भगवती दुर्गा के सामने सप्तशतीस्तोत्रका पाठ करना चाहिये। तीनों लोकोंमें इस स्तोत्रके सदृश दूसरा कोई भी स्तोत्र नहीं है, इसलिये मनुष्यको इस स्तोत्रके द्वारा प्रतिदिन देवेश्वरी दुर्गाको प्रसन्न करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका आलय बन जाता है । ll 86-87 ॥
हे विप्र ! इस प्रकार मैंने आपको भगवती दुर्गाके पूजनका विधान बता दिया। इसके द्वारा सबकी कृतार्थता सम्पन्न हो सके, इसीलिये मैंने इसका वर्णन किया है ॥ 88 ॥
ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी प्रमुख देवतागण, सभी मनुगण, ज्ञाननिष्ठ मुनि, योगिजन, आश्रमवासी तथा लक्ष्मी आदि देवियाँ-ये सब उन भगवती शिवाकाध्यान करते हैं। जन्मकी सफलता तभी समझी जाती है, जब श्रीदुर्गाका स्मरण हो जाय ।। 89-90 ॥ भगवती दुर्गाके चरणकमलका ध्यान करके ही चौदहों मनुओंने मनुपद तथा देवतागणोंने अपना अपना स्थान प्राप्त किया है ॥ 91 ॥
इस प्रकार मैंने रहस्योंका भी अति रहस्यस्वरूप | यह सारा आख्यान कह दिया। इसमें भगवती प्रकृतिके पाँच मुख्य स्वरूपों तथा उनके अंशोंका वर्णन है ॥ 92 ॥
इसका नित्य श्रवण करनेसे मनुष्य चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है। यह सब मैंने सच-सच कहा है ॥ 93 ॥
इस रहस्यके प्रभावसे पुत्रहीन व्यक्ति पुत्र तथा विद्याभिलाषी मनुष्य विद्या प्राप्त कर लेता है। इसका श्रवण करके मनुष्य जिस-जिस मनोरथकी पूर्णताकी कामना करता है, उस-उसको प्राप्त कर लेता है ॥ 94 ॥
नवरात्रमें एकाग्रचित्त होकर भगवती दुर्गाके सम्मुख इसका पाठ करना चाहिये। जगद्धात्री भगवती दुर्गा इससे निश्चय ही प्रसन्न हो जाती हैं ॥ 95 ॥ जो मनुष्य प्रतिदिन इस नवम स्कन्धके एक अध्यायका पाठ करता है, भगवती दुर्गा उसके अधीन हो जाती हैं और वह मनुष्य देवीका प्रियकर हो जाता है ॥ 96 ॥
इस विषयमें किसी कुमारीके दिव्य हाथ अथवा बालकके करकमलसे यथाविधि शकुनकी परीक्षा करनी चाहिये। अपने मनोरथका संकल्प करके पुस्तककी पूजा करे, तत्पश्चात् जगदीश्वरी भगवती दुर्गाको बार-बार प्रणाम करे। भलीभाँति स्नान की हुई कन्याको वहाँ विराजमान करके [देवीके रूपमें] उसकी विधिपूर्वक पूजा करनेके अनन्तर स्वर्णनिर्मित शलाका उस कन्यासे स्कन्धके मध्यमें रखवाना चाहिये। शलाका रखनेपर शुभ अथवा अशुभ जो भी प्रसंग आता है, वैसा ही फल होता है; अथवा उदासीन प्रसंग आनेपर कार्य भी उदासीन ही होता है-यह निश्चित है ।। 97-100 ॥