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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 46 - Skand 9, Adhyay 46

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भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा

नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! मैंने अनेक उत्तम देवियोंका उत्तम आख्यान सुन लिया; अब आप दूसरी देवियोंके चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥

श्रीनारायण बोले- हे विप्र पूर्वकालमें कही गयी सभी देवियोंके चरित्र वेदोंमें अलग-अलग बताये गये हैं, आप इनमेंसे किनका चरित्र सुनना चाहते हैं ? ॥ 2 ॥नारदजी बोले - भगवती षष्ठी, मंगलचण्डी और | मनसादेवी मूलप्रकृतिकी कला हैं; मैं इनकी उत्पत्ति तथा इनका चरित्र साररूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ 3 ॥

श्रीनारायण बोले- मूलप्रकृतिके छठे अंशसे जो देवी आविर्भूत हैं, वे भगवती षष्ठी कही गयी हैं। | ये बालकोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें विष्णुमाया और बालदा भी कहा जाता है। ये मातृकाओंमें देवसेना नामसे प्रसिद्ध हैं। उत्तम व्रतका पालन करनेवाली तथा साध्वी ये भगवती षष्ठी स्वामी कार्तिकेयकी भार्या हैं और उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं ये बालकोंको आयु प्रदान करनेवाली, उनका भरण-पोषण करनेवाली तथा उनकी रक्षा करनेवाली हैं। ये सिद्धयोगिनी देवी अपने योगके प्रभावसे शिशुओंके पास निरन्तर विराजमान रहती हैं ॥ 4-6 ll

हे ब्रह्मन् ! उन षष्ठीदेवीकी पूजाविधि तथा यह इतिहास भी सुनिये, जिसे मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है; यह आख्यान पुत्र तथा परम सुख प्रदान करनेवाला है ॥ 7 ॥

स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रत नामवाले एक राजा थे। योगिराज प्रियव्रत विवाह नहीं करना चाहते थे वे सदा तपस्याओंमें संलग्न रहते थे, किंतु ब्रह्माजीकी आज्ञा तथा उनके प्रयत्नसे उन्होंने विवाह कर लिया ॥ 8 ॥

हे मुने! विवाह करनेके अनन्तर बहुत समयतक जब उन्हें पुत्रप्राप्ति नहीं हुई, तब महर्षि कश्यपने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया। मुनिने उनकी प्रिय भार्या मालिनीको यज्ञचरु प्रदान किया। उस चरुको ग्रहण कर लेनेपर उन्हें शीघ्र ही गर्भ स्थित हो गया। वे देवी उस गर्भको दिव्य बारह वर्षोंतक धारण किये रहीं ॥ 9-11॥

हे ब्रहान्। तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्णसदृश कान्तिवाले, शरीरके समस्त अवयवोंसे सम्पन्न, हुए तथा उलटी आँखोंवाले पुत्रको जन्म दिया ॥ 12 ॥ उसे देखकर सभी स्त्रियाँ तथा बान्धवोंकी पलियाँ रोने लगीं और महान् पुत्रशोकके कारण | उसकी माता मूच्छित हो गयीं ॥ 13 ॥हे मुने! उस बालकको लेकर राजा प्रियव्रत श्मशान गये और वहाँ निर्जन स्थानमें पुत्रको अपने वक्षसे लगाकर रुदन करने लगे। राजाने उस पुत्रको नहीं छोड़ा। वे प्राणत्याग करनेको तत्पर हो गये। अत्यन्त दारुण पुत्रशोकके कारण राजाका ज्ञानयोग विस्मृत हो गया । ll 14-15 ll

इसी बीच वहाँ उन्होंने शुद्ध स्फटिकमणिके समान प्रकाशमान, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित, तेजसे निरन्तर देदीप्यमान, रेशमी वस्त्रसे सुशोभित, अनेक प्रकारके अद्भुत चित्रोंसे विभूषित और पुष्प तथा मालाओंसे सुसज्जित एक विमान देखा। साथ ही उन्होंने उस विमानमें कमनीय, मनोहर, श्वेत चम्पाके वर्णके समान आभावाली, सदा स्थायी रहनेवाले तारुण्यसे सम्पन्न, मन्द मन्द मुसकानयुक्त, प्रसन्न मुखमण्डलवाली, रत्ननिर्मित आभूषणोंसे अलंकृत, कृपाकी साक्षात् मूर्ति, योगसिद्ध और भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये परम आतुर प्रतीत होनेवाली देवीको भी देखा ॥ 16-19 ॥

उन देवीको समक्ष देखकर राजाने उस बालकको भूमिपर रखकर परम आदरपूर्वक उनका स्तवन तथा पूजन किया। हे नारद! तत्पश्चात् राजा प्रियव्रत प्रसन्नताको प्राप्त, ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान प्रभावाली, अपने तेजसे देदीप्यमान तथा शान्त स्वभाववाली उन कार्तिकेयप्रिया [भगवती षष्ठी]-से पूछने लगे - ॥ 20-21॥

राजा बोले- हे सुशोभने ! हे कान्ते! हे सुव्रते! हे वरारोहे! समस्त स्त्रियोंमें परम धन्य तथा आदरणीय तुम कौन हो, किसकी भार्या हो और किसकी पुत्री हो ? ॥ 22 ॥

[हे नारद!] नृपेन्द्र प्रियव्रतकी बात सुनकर जगत्का कल्याण करनेमें दक्ष तथा देवताओंके लिये संग्राम करनेवाली भगवती देवसेना उनसे कहने लगीं। वे देवी प्राचीनकालमें दैत्योंके द्वारा पीडित देवताओंकी सेना बनी थीं। उन्होंने उन्हें विजय प्रदान किया था, इसलिये वे देवसेना नामसे विख्यात हैं । ll 23-24 ।।श्रीदेवसेना बोलीं- हे राजन्! मैं ब्रह्माकी मानसी कन्या हूँ। सबपर शासन करनेवाली में 'देवसेना' नामसे विख्यात हूँ। विधाताने अपने मनसे मेरी सृष्टि करके स्वामी कार्तिकेयको सौंप दिया। मातृकाओंमें विख्यात मैं स्वामी कार्तिकेयकी पतिव्रता भार्या हूँ। भगवती परा प्रकृतिका षष्ठांश होनेके कारण मैं विश्वमें 'षष्ठी' – इस नामसे प्रसिद्ध हूँ। मैं पुत्रहीनको पुत्र, पतिको प्रिय पत्नी, दरिद्रोंको धन | देनेवाली और कर्म करनेवालोंको उनके कर्मका फल प्रदान करनेवाली हूँ ॥ 25-27 ॥

हे राजन् ! सुख, दुःख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति – यह सब कर्मानुसार होता है। अपने कर्मसे मनुष्य अनेक पुत्रोंवाला होता है, कर्मसे ही वह वंशहीन होता है, कर्मसे ही उसे मरा हुआ पुत्र होता है और कर्मसे ही वह पुत्र दीर्घजीवी होता है। मनुष्य कर्मसे ही गुणी, कर्मसे ही अंगहीन, कर्मसे ही अनेक पत्नियोंवाला तथा कर्मसे ही भार्याहीन होता है। कर्मसे ही मनुष्य रूपवान् तथा कर्मसे ही निरन्तर रोगग्रस्त रहता है, | कर्मसे ही व्याधि तथा कर्मसे ही नीरोगता होती है। अतः हे राजन् कर्म सबसे बलवान् है - ऐसा श्रुतिमें कहा गया है ॥ 28-316 ॥

हे मुने! इस प्रकार कहकर उन भगवती षष्ठीने बालकको लेकर अपने महाज्ञानके द्वारा खेल-खेलमें उसे जीवित कर दिया। अब राजा प्रियव्रत स्वर्णकी प्रभाके समान कान्तिसे सम्पन्न तथा मुसकानयुक्त उस बालकको देखने लगे। उसी समय वे भगवती देवसेना बालकको देख रहे राजासे कहकर उस बालकको ले करके आकाशमें जानेको उद्यत हो गयीं ॥ 32-34 ॥

[यह देखकर] शुष्क कण्ठ, ओष्ठ तथा तालुवाले वे राजा उन भगवतीकी स्तुति करने लगे, तब राजाके स्तोत्रसे वे देवी षष्ठी अत्यन्त प्रसन्न गयीं और हे ब्रह्मन् ! उन राजासे कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहने लगीं ॥ 353॥देवी बोलीं- तुम स्वायम्भुव मनुके पुत्र हो और तीनों लोकोंके राजा हो। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराकर स्वयं भी करो, तभी मैं तुम्हें कुलके कमलस्वरूप यह मनोहर पुत्र प्रदान करूँगी। यह सुव्रत नामसे विख्यात होगा, यह गुणी तथा विद्वान् होगा, इसे पूर्वजन्मकी बातें याद रहेंगी, यह योगीन्द्र होगा तथा भगवान् नारायणकी कलासे सम्पन्न होगा, यह क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ तथा सभीके द्वारा वन्दनीय होगा और सौ अश्वमेधयज्ञ करनेवाला होगा। यह बालक लाखों मतवाले हाथियोंके समान बल धारण करेगा तथा महान् कल्याणकारी होगा। यह धनी, गुणवान्, शुद्ध, विद्वानोंका प्रिय और योगियों, ज्ञानियों तथा तपस्वियोंका सिद्धिस्वरूप, समस्त लोकोंमें यशस्वी तथा सभीको समस्त सम्पदाएँ प्रदान करनेवाला होगा ll 36 - 403 ॥

ऐसा कहकर उन देवीने वह बालक राजाको दे दिया। राजा प्रियव्रतने भी पूजाकी बातें स्वीकार कर लीं। तब भगवती भी उन्हें कल्याणकारी वर देकर स्वर्ग चली गयीं और राजा प्रसन्नचित्त होकर मन्त्रियोंके साथ अपने घर आ गये। घर आकर उन्होंने पुत्रविषयक वृत्तान्त सबसे कहा। हे नारद! उसे सुनकर समस्त नर तथा नारी परम प्रसन्न हुए ॥ 41-433 ॥

राजाने पुत्र प्राप्तिके उपलक्ष्यमें सर्वत्र मंगलोत्सव कराया, भगवती षष्ठीकी पूजा की तथा ब्राह्मणोंको धन प्रदान किया 443 ॥

उसी समयसे राजा प्रियव्रत प्रत्येक महीने में शुक्लपक्षकी षष्ठी तिथिको भगवती पष्ठीका महोत्सव प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र कराने लगे ॥ 453 ॥

सूतिकागृहमें बालकोंके जन्मके छठें दिन, इक्कीसवें दिन, बालकोंसे सम्बन्धित किसी भी मांगलिक कार्यमें तथा शुभ अन्नप्राशनके अवसरपर वे भगवतीकी पूजा कराने लगे और स्वयं भी करने लगे, इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र भगवतीकी प्रचार कराया ॥ 46-473 ॥

हे सुव्रत। अब आप मुझसे भगवती षष्ठी के ध्यान, पूजाविधान तथा स्तोत्रको सुनिये, जिसे मैंने | धर्मदेवके मुखसे सुना था और जो सामवेदकी कौथुमशाखायें वर्णित है ॥48 llहे मुने! शालग्राम, कलश अथवा वटके मूल में | अथवा दीवालपर पुतलिका बनाकर भगवती प्रकृतिके छठें अंशसे प्रकट होनेवाली, शुद्धस्वरूपिणी तथा दिव्य प्रभासे सम्पन्न षष्ठीदेवीको प्रतिष्ठित करके बुद्धिमान् मनुष्यको उनकी पूजा करनी चाहिये ।। 49-50 ॥ ॥ ॥

'उत्तम पुत्र प्रदान करनेवाली, कल्याणदायिनी, दयास्वरूपिणी जगत्की सृष्टि करनेवाली, श्वेत चम्पाके | पुष्पकी आभाके समान वर्णवाली, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत, परम पवित्रस्वरूपिणी तथा अतिश्रेष्ठ परा भगवती देवसेनाकी मैं आराधना करता हूँ।' विद्वान् पुरुषको चाहिये कि इस विधिसे ध्यान करके [हाथमें लिये हुए] पुष्पको अपने मस्तकसे लगाकर उसे भगवतीको अर्पण कर दे। पुनः ध्यान करके मूलमन्त्रके उच्चारणपूर्वक पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, दीप, विविध प्रकारके नैवेद्य तथा सुन्दर फल आदि | उपचारोंके द्वारा उत्तम व्रतमें निरत रहनेवाली साध्वी भगवती देवसेनाकी पूजा करनी चाहिये और उस मनुष्यको 'ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा' इस अष्टाक्षर महामन्त्रका अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक जप भी | करना चाहिये। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक स्तुति करके देवीको प्रणाम करना चाहिये। पुत्र- फल प्रदान करनेवाला यह उत्तम स्तोत्र सामवेद में वर्णित है। जो मनुष्य भगवती षष्ठीके अष्टाक्षर महामन्त्रका एक लाख जप करता है, वह निश्चितरूपसे सुन्दर पुत्र प्राप्त करता है - ऐसा ब्रह्माजीने कहा है । ll 51-563 ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! अब आप सम्पूर्ण शुभ कामनाओंको प्रदान करनेवाले, सभी प्राणियोंको वांछित फल प्रदान करनेवाले तथा वेदोंमें रहस्यमय रूपसे प्रतिपादित स्तोत्रका श्रवण कीजिये ॥ 573 ॥

देवीको नमस्कार है, महादेवीको नमस्कार है, भगवती सिद्धि एवं शान्तिको नमस्कार है। शुभा, देवसेना तथा देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है। वरदा, पुत्रदा तथा धनदा देवीको बार-बार नमस्कार है। सुखदा, मोक्षदा तथा भगवती षष्ठीको बार-बार नमस्कार है। मूलप्रकृतिके छठें अंशसे अवतीर्ण, सृष्टिस्वरूपिणी तथा सिद्धस्वरूपिणी भगवतीको बार | बार नमस्कार है। माया तथा सिद्धयोगिनी षष्ठीदेवीकोबार-बार नमस्कार है। सारस्वरूपिणी, शारदा तथा परादेवीको बार-बार नमस्कार है। बालकोंकी अधिष्ठात्री | देवीको नमस्कार है। षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है। कल्याण प्रदान करनेवाली, कल्याणस्वरूपिणी, सभी कर्मोंके फल प्रदान करनेवाली तथा अपने भक्तोंको प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाली देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है। सम्पूर्ण कार्योंमें सभीके लिये पूजनीय तथा देवताओंकी | रक्षा करनेवाली स्वामी कार्तिकेयकी भार्या देवी षष्ठीको बार-बार नमस्कार है। शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी, मनुष्योंके लिये सदा वन्दनीय तथा क्रोध-हिंसासे रहित षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है। हे सुरेश्वरि! आप मुझे धन दीजिये, प्रिय भार्या दीजिये, पुत्र प्रदान कीजिये, मान प्रदान कीजिये तथा विजय प्रदान कीजिये और हे महेश्वरि ! मेरे शत्रुओंका संहार कर डालिये। मुझे धर्म दीजिये और कीर्ति दीजिये, आप षष्ठीदेवीको बार बार नमस्कार है। हे सुपूजिते ! भूमि दीजिये, प्रजा दीजिये, विद्या दीजिये, कल्याण और जय प्रदान कीजिये, आप षष्ठीदेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ 58- 67 ॥

इस प्रकार भगवती षष्ठीकी स्तुति करके महाराज प्रियव्रतने षष्ठीदेवीकी कृपासे यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया ॥ 68 ॥

हे ब्रह्मन् ! जो एक वर्षतक भगवती षष्ठीके इस स्तोत्रका श्रवण करता है, वह पुत्रहीन मनुष्य सुन्दर तथा दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त कर लेता है। जो एक वर्षतक भक्तिपूर्वक देवी षष्ठीकी विधिवत् पूजा करके इस स्तोत्रका श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। महावन्ध्या स्त्री भी इसके श्रवणसे प्रसवके योग्य हो जाती है और वह भगवती षष्ठीकी कृपासे वीर, गुणी, विद्वान्, यशस्वी तथा दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न करती है। यदि कोई स्त्री काकवन्ध्या अथवा मृतवत्सा हो तो भी वह एक वर्षतक इस स्तोत्रका श्रवण करके षष्ठीदेवीके अनुग्रहसे पुत्र प्राप्त कर लेती है । पुत्रके व्याधिग्रस्त हो जानेपर यदि माता पिता एक मासतक इस स्तोत्रको सुनें तो षष्ठीदेवीकी | कृपासे वह बालक रोगमुक्त हो जाता है ।। 69-73 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन