श्रीनारायण बोले- हे नारद! राजा अश्वपतिने विधिपूर्वक भगवती सावित्रीकी पूजा करके इस स्तोत्रसे उनकी स्तुति करनेके अनन्तर उसी स्थानपर हजारों सूयोंके समान तेजसे सम्पन्न उन देवीके दर्शन किये ॥ 1 ॥
अपने प्रभामण्डलसे दिशाओंको आलोकित करती हुई प्रसन्नवदना भगवतीने मुसकराते हुए इस प्रकार राजाको सम्बोधित किया, जैसे माता अपने पुत्रको कहती है ॥ 2 ॥
सावित्री बोलीं- हे महाराज! मैं जानती हूँ कि आपके मनमें क्या कामना है और आपकी पत्नी क्या चाहती है, मैं निश्चितरूपसे वह सब प्रदान करूँगी ॥ 3 ॥
आपकी साध्वी पत्नी कन्याकी कामना करती है और आप पुत्रकी इच्छा रखते हैं, ये दोनों ही अभिलाषाएँ क्रमसे पूर्ण होंगी ॥ 4 ॥
ऐसा कहकर वे भगवती सावित्री ब्रह्मलोक चली गयीं और राजा अश्वपति अपने घर लौट गये। उन्हें समयपर पहले कन्या उत्पन्न हुई। भगवती सावित्रीकी आराधनाके प्रभावसे श्रेष्ठ देवी कमला ही पुत्रीरूपमें उत्पन्न हुई थीं। राजा अश्वपतिने उस कन्याका नाम 'सावित्री' रखा ll 5-6 ll
वह कन्या शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान दिनोंदिन बढ़ने लगी और यथासमय रूप तथा यौवनसे सम्पन्न हो गयी ॥ 7 ॥
उसने द्युमत्सेनके सत्यनिष्ठ तथा अनेक गुणोंसे युक्त पुत्र सत्यवान्का पतिरूपमें वरण किया। तब राजाने रत्नमय भूषणोंसे अलंकृत उस कन्याको उन्हें समर्पित कर दिया। सत्यवान् भी बड़े हर्ष के साथ उस कन्याको लेकर अपने घर चले गये ॥ 8-9 ॥एक वर्ष बीतनेके पश्चात् वे सत्यपराक्रमी | सत्यवान् अपने पिताकी आज्ञाके अनुसार हर्षपूर्वक | फल तथा लकड़ी लानेके लिये वनमें गये ॥ 10 ॥ साध्वी सावित्री भी उनके पीछे-पीछे गयी। दैवयोगसे सत्यवान् वृक्षसे गिर पड़े और उनके प्राण निकल गये ॥ 11 ॥
हे मुने! सत्यवान्को मृत देखकर जब यमराजने उनके अंगुष्ठ-प्रमाण सूक्ष्म शरीरको साथ लेकर प्रस्थान किया, तब साध्वी सावित्री भी उनके पीछे जाने लगी ॥ 12 ॥
संयमनीपुरीके स्वामी और साधुओंमें परम श्रेष्ठ धर्मराज सुन्दर दाँतोंवाली उस सावित्रीको अपने पीछे पीछे आते देखकर मधुर वाणीमें उससे कहने लगे ॥ 13 ॥
धर्मराज बोले- हे सावित्रि! तुम यह मानव शरीर धारण किये कहाँ जा रही हो? यदि तुम अपने पतिके साथ जानेकी इच्छा रखती हो, तो पहले इस शरीरका त्याग करो ॥ 14 ॥
विनाशशील मनुष्य अपने इस नश्वर तथा पांच भौतिक शरीरको लेकर मेरे लोक कभी नहीं जा सकता है ।। 15 ।।
हे साध्वि! भारतवर्षमें आये हुए तुम्हारे पतिकी आयु अब पूर्ण हो चुकी है। अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये अब यह सत्यवान् मेरे लोकमें जा रहा है ॥ 16 ॥
प्राणी कर्मके अनुसार ही जन्म प्राप्त करता है। और कर्मानुसार ही मृत्युको भी प्राप्त होता है। सुख दुःख, भय और शोक भी कर्मसे ही मिलते रहते हैं। जीव अपने कर्मके प्रभावसे इन्द्र हो सकता है, वह अपने कर्मसे ब्रह्मपुत्र बन सकता है और अपने कर्मके द्वारा वह हरिका दास बनकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। मनुष्य अपने कर्मके प्रभावसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ, अमरत्व और भगवान् विष्णुके सालोक्य आदि चार प्रकारके मोक्षपद निश्चितरूपसे प्राप्त कर सकता है ।। 17-19 ॥
मनुष्यको अपने कर्मके द्वारा देवता, मनु, राजेन्द्र, शिव तथा गणेशतकका पद सुलभ हो जाता है। उसी प्रकार अपने कर्मके प्रभावसे ही मनुष्यश्रेष्ठ मुनि, तपस्वी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा म्लेच्छ बन जाता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। अपने कर्मानुसार ही प्राणीको जंगम, पर्वत, राक्षस, किन्नर, अधिपति, वृक्ष, पशु, वनके प्राणी, अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु, कीट, दैत्य, दानव तथा असुर आदि योनियाँ प्राप्त होती हैं। सावित्रीसे ऐसा कहकर वे यमराज
चुप हो गये ॥ 20 - 25 ॥