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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 44 - Skand 9, Adhyay 44

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भगवती स्वधाका उपाख्यान

श्रीनारायण बोले- हे नारद! सुनिये, अब मैं स्वधाका उत्तम आख्यान कहूँगा, जो पितरोंके लिये तृप्ति कारक तथा श्रद्धानके फलकी वृद्धि करनेवाला है॥ 1 ॥

जगत्का विधान करनेवाले ब्रह्माने सृष्टिके आरम्भमें चार मूर्तिमान् तथा तीन तेज: स्वरूप पितरोंका सृजन किया उन सातों सुखस्वरूप तथा मनोहर पितरोंको देखकर उन्होंने श्राद्ध-तर्पणपूर्वक उनका आहार भी सृजित किया ॥ 2-3 ॥

स्नान, तर्पण, श्राद्ध, देवपूजन तथा त्रिकाल सन्ध्या- ये ब्राह्मणोंके आह्निक कर्म श्रुतिमें प्रसिद्ध हैं ॥ 4 ॥

जो ब्राह्मण प्रतिदिन त्रिकाल सन्ध्या, श्राद्ध, तर्पण, बलिवैश्वदेव और वेदध्वनि नहीं करता, वह विषहीन सर्पके समान है ॥ 5 ॥

हे नारद। जो व्यक्ति भगवतीकी सेवासे वंचित है तथा भगवान् श्रीहरिको बिना नैवेद्य अर्पण किये ही भोजन ग्रहण करता है, उसका अशीच केवल दाहपर्यन्त बना रहता है और वह कोई भी शुभ कृत्य करनेके योग्य नहीं रह जाता ॥ 6 ॥इस प्रकार ब्रह्माजी पितरोंके लिये श्राद्ध आदिका विधान करके चले गये, किंतु ब्राह्मण आदि जो श्राद्धीय पदार्थ अर्पण करते थे, उन्हें पितरगण प्राप्त नहीं कर पाते थे ॥ 7 ॥

अतः क्षुधासे व्याकुल तथा उदास मनवाले सभी पितर ब्रह्माजीकी सभामें गये और उन्होंने जगत्का विधान करनेवाले उन ब्रह्माको सारी बात बतायी ॥ 8 ॥

तब ब्रह्माजीने एक मनोहर मानसी कन्याका सृजन किया। वह रूप तथा यौवनसे सम्पन्न थी और उसका मुख सैकड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् था। वह साध्वी विद्या, गुण तथा परम रूपसे सम्पन्न थी। उसका वर्ण श्वेत चम्पाके समान उज्ज्वल था और वह रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित थी। विशुद्ध, मूलप्रकृतिकी अंशरूपा, वरदायिनी तथा कल्याणमयी वह मन्द मन्द मुसकानसे युक्त थी। लक्ष्मीके लक्षणोंसे युक्त स्वधा नामक वह देवी सुन्दर दाँतोंवाली थी। शतदलकमलके ऊपर रखे चरणकमलवाली वह देवी अतिशय सुशोभित हो रही थी। पितरोंकी पत्नीस्वरूपा उस कमलोद्भवा स्वधादेवीके मुख तथा नेत्र कमलके समान थे। ब्रह्माजीने उस तुष्टिरूपिणी देवीको सन्तुष्ट पितरोंको समर्पित कर दिया। उसी समय ब्रह्माजीने ब्राह्मणोंको यह गोपनीय उपदेश भी प्रदान किया कि आपलोगोंको अन्तमें स्वधायुक्त मन्त्रका उच्चारण करके ही पितरोंको कव्य पदार्थ अर्पण करना चाहिये। तभीसे ब्राह्मणलोग उसी क्रमसे पितरोंको कव्य प्रदान करने लगे । 9 - 14 ॥

देवताओंके लिये हव्य प्रदान करते समय स्वाहा और पितरोंको कव्य प्रदान करते समय स्वधाका उच्चारण श्रेष्ठ माना गया है। दक्षिणा सर्वत्र प्रशस्त मानी गयी है; क्योंकि दक्षिणाविहीन यज्ञ विनष्ट हो जाता है ॥ 15 ॥

उस समय पितरों, देवताओं, ब्राह्मणों, मुनियों तथा मनुगणोंने परम आदरपूर्वक शान्तिस्वरूपिणी भगवती स्वधाकी पूजा तथा स्तुति की ॥ 16 ॥

भगवती स्वधाके वरदानसे पितरगण, देवता तथा विप्र आदि परम सन्तुष्ट तथा पूर्ण मनोरथवाले हो गये ॥ 17 ॥हे नारद! इस प्रकार मैंने सभी प्राणियोंको तुष्टि प्रदान करनेवाला यह सम्पूर्ण स्वधाका उपाख्यान आपसे कह दिया; अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 18 ॥

नारदजी बोले – वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हे महामुने! मैं भगवती स्वधाकी पूजाका विधान, उनका ध्यान तथा स्तोत्र सुनना चाहता हूँ: यत्नपूर्वक बतलाइये ॥ 19 ॥

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! आप समस्त प्राणियोंका मंगल करनेवाला भगवती स्वधाका वेदोक्त ध्यान तथा स्तवन आदि सब कुछ जानते ही हैं तो फिर उसे क्यों जानना चाहते हैं? तो भी लोगोंके कल्याणार्थ मैं उसे आपको बता रहा हूँ-शरत्कालमें आश्विनमासके कृष्णपक्षमें त्रयोदशी तिथिको मघा नक्षत्रमें अथवा श्राद्धके दिन यत्नपूर्वक देवी स्वधाकी विधिवत् पूजा करके श्राद्ध करना चाहिये ॥ 20-21 ॥

अहंकारयुक्त बुद्धिवाला जो विप्र भगवती स्वधाका पूजन किये बिना ही श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध तथा तर्पणका फल प्राप्त नहीं करता, यह सत्य है ॥ 22 ॥ मैं सर्वदा स्थिर यौवनवाली, पितरों तथा देवताओंकी पूज्या और श्राद्धोंका फल प्रदान करनेवाली ब्रह्माकी मानसी कन्या भगवती स्वधाकी आराधना करता हूँ इस प्रकार ध्यान करके शिला अथवा मंगलमय कलशपर उनका आवाहनकर मूलमन्त्रसे उन्हें पाद्य आदि उपचार अर्पण करने चाहिये-ऐसा श्रुतिमें प्रसिद्ध है ।। 23-24 ॥

हे महामुने! द्विजको चाहिये कि 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा' इस मन्त्रका उच्चारण करके उनकी विधिवत् पूजा तथा स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे ।। 25 ।।

हे मुनिश्रेष्ठ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे विशारद ! अब आप सभी मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेवाले उस स्तोत्रको सुनिये, जिसका पूर्वकालमें ब्रह्माजीने पाठ किया था ॥ 26 ॥

श्रीनारायण बोले- 'स्वधा' शब्दका उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्य तीर्थस्नायी हो जाता है। वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा वाजपेययज्ञका फल प्राप्त कर लेता है॥ 27 ॥यदि मनुष्य स्वधा, स्वधा, स्वधा - इस प्रकार तीन बार स्मरण कर ले तो वह श्राद्ध, बलिवैश्वदेव तथा तर्पणका फल प्राप्त कर लेता है ॥ 28 ॥

जो व्यक्ति श्राद्धके अवसरपर सावधान होकर स्वधास्तोत्रका श्रवण करता है, वह श्राद्धसे होनेवाला सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 29 ॥

जो मनुष्य त्रिकाल सन्ध्याके समय स्वधा, स्वधा स्वधा ऐसा उच्चारण करता है; उसे पुत्रों तथा सद्गुणोंसे सम्पन्न, विनम्र, प्रिय तथा पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥ 30 ॥

हे देवि! आप पितरोंके लिये प्राणतुल्य और ब्राह्मणोंके लिये जीवनस्वरूपिणी हैं। आप श्राद्धकी अधिष्ठात्री देवी हैं और श्राद्ध आदिका फल प्रदान करनेवाली हैं॥ 31 ll

हे सुव्रते ! आप नित्य, सत्य तथा पुण्यमय विग्रहवाली हैं। आप सृष्टिके समय प्रकट होती हैं तथा प्रलयके समय तिरोहित हो जाती हैं ॥ 32 ॥ आप ॐ, स्वस्ति, नमः स्वाहा, स्वधा तथा | दक्षिणा रूपमें विराजमान हैं। चारों वेदोंने आपकी इन मूर्तियोंको अत्यन्त प्रशस्त बतलाया है। प्राणियोंके कमकी पूर्ति के लिये ही परमेश्वरने आपकी ये मूर्तियाँ बनायी हैं ॥ 333 ॥

ऐसा कहकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें अपनी सभामें विराजमान हो गये। उसी समय भगवती स्वधा सहसा प्रकट हो गयीं। तब ब्रह्माजीने उन कमलमुखी स्वधादेवीको पितरोंके लिये समर्पित कर दिया। उन भगवतीको पाकर पितरगण अत्यन्त हर्षित हुए और वहाँसे चले गये। जो मनुष्य एकाचित होकर भगवती स्वधाके इस पवित्र स्तोत्रका श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीथोंमें स्नान कर लिया। वह इसके प्रभावसे वांछित फल प्राप्त कर लेता है ।। 34-36 ।।

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन