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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 43 - Skand 9, Adhyay 43

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भगवती स्वाहाका उपाख्यान

नारदजी बोले - हे नारायण! हे महाभाग ! हे महाप्रभो! आप रूप, गुण, यश, तेज और कान्तिमें साक्षात् नारायण ही हैं ॥ 1 ॥

हे मुने! हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! आप ज्ञानियों, सिद्धों, योगियों, तपस्वियों और मुनियोंमें परम श्रेष्ठ हैं। मैंने आपसे महालक्ष्मीका अत्यन्त अद्भुत उपाख्यान जान लिया, अब आप मुझे कोई दूसरा उपाख्यान बतलाइये; जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणोंमें अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेदप्रतिपादित हो । 2-4 ॥श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे अनेकविध आख्यान हैं, जो पुराणोंमें वर्णित नहीं हैं। कई प्रकारके आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं, उनमें किस सारभूत आख्यानको आप सुनना चाहते हैं? हे महाभाग ! आप पहले मुझसे उसे बताइये, तब मैं उसका वर्णन करूँगा ॥ 5-6 ॥

नारदजी बोले - सभी धार्मिक कर्मोंमें हवि प्रदानके समय स्वाहादेवी और श्राद्धकर्ममें स्वधादेवी प्रशस्त मानी गयी हैं। यज्ञ आदि कर्मोंमें दक्षिणादेवी सर्वश्रेष्ठ हैं। हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! मैं आपके मुखसे इन्हीं देवियोंके चरित्र, अवतारग्रहणका प्रयोजन तथा महत्त्व सुनना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ 7-8 ॥

सूतजी बोले- नारदजीकी बात सुनकर मुनिवर नारायणने हँसकर पुराणप्रतिपादित प्राचीन कथा कहनी आरम्भ की ॥ 9 ॥

श्रीनारायण बोले- हे मुने! प्राचीन समयमें सृष्टिके प्रारम्भिक कालमें देवतागण अपने आहारके लिये ब्रह्मलोक गये । वहाँपर वे ब्रह्माजीकी मनोहर सभामें आये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपने आहारके लिये ब्रह्माजीसे प्रार्थना की। उनकी बात सुनकर ब्रह्माजीने उनके लिये आहारकी प्रतिज्ञा करके परमेश्वर श्रीहरिकी आराधना की ॥ 10-11 ॥

नारदजी बोले – भगवान् श्रीहरि अपनी कलासे यज्ञके रूपमें प्रकट हो चुके थे। तब यज्ञमें ब्राह्मणोंके द्वारा उन देवताओंको जो-जो हव्य प्रदान किया जाता था, क्या उससे उनकी तृप्ति नहीं होती थी ? ॥ 12 ॥

श्रीनारायण बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि वर्ण देवताओंके निमित्त भक्तिपूर्वक जो हविदान करते थे, उस प्रदत्त हविको देवगण नहीं प्राप्त कर पाते थे। उसीसे वे सभी देवता दुःखी होकर ब्रह्मसभामें गये और वहाँ जाकर उन्होंने आहारके अभावकी बात बतायी ।। 13-14 ।।

देवताओंकी यह प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने ध्यान करके श्रीकृष्णकी शरण ग्रहण की। तब उन श्रीकृष्णके आदेशानुसार ब्रह्माजी ध्यानके साथ मूलप्रकृति भगवतीकी आराधना करने लगे। इसके फलस्वरूप सर्वशक्ति स्वरूपिणी स्वाहादेवी भगवती मूलप्रकृतिकी कलासेप्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह अत्यन्त सुन्दर, लावण्यमय, रमणीय तथा मनोहर था, उनका मुखमण्डल मन्द मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये आतुर-सी प्रतीत हो रही थीं, ऐसे स्वरूपवाली उन भगवती स्वाहाने ब्रह्माके सम्मुख उपस्थित होकर कहा- हे पद्मयोने! वर माँगो । उनका वचन सुनकर ब्रह्माजी आदरपूर्वक उन भगवतीसे कहने लगे - ॥ 15-173 ॥

प्रजापति बोले - [ हे देवि !] आप अग्निकी परम सुन्दर दाहिकाशक्ति हो जाइये; क्योंकि आपके बिना अग्निदेव आहुतियोंको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हैं। जो मनुष्य मन्त्रके अन्तमें आपके नामका उच्चारण करके देवताओंको हवि प्रदान करेगा, उसे देवगण प्रेमपूर्वक ग्रहण करेंगे। हे अम्बिके! आप अग्निदेवकी सम्पत्स्वरूपिणी तथा श्रीरूपिणी गृहस्वामिनी बन जाइये, देवता तथा मनुष्य आदिके लिये आप नित्य पूजनीय होवें ॥ 18 - 2013 ॥

ब्रह्माजीकी बात सुनकर वे भगवती स्वाहा उदास हो गयीं। उसके बाद उन्होंने ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय व्यक्त कर दिया ॥ 213 ॥

स्वाहा बोलीं- हे ब्रह्मन् ! मैं दीर्घकालतक तपस्या करके भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करूँगी; क्योंकि उनके अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह सब स्वप्नकी भाँति केवल भ्रम है ॥ 223 ॥

जिनके अनुग्रहसे आप जगत्‌का विधान करते हैं, भगवान् शिवने मृत्युपर विजय प्राप्त की है, | शेषनाग सम्पूर्ण विश्वको धारण करते हैं, धर्मराज सभी धर्मनिष्ठ प्राणियोंके साक्षी बने हैं, गणेश्वर | सभी देवगणोंमें सबसे पहले पूजे जाते हैं, पूर्वकालमें भगवती मूलप्रकृति सबके द्वारा पूजित हुईं और जिनकी उपासनाके प्रभावसे ऋषि तथा मुनिगण पूजित हुए हैं, मैं उन परमेश्वर श्रीकृष्णके चरण कमलका संयत होकर प्रेमपूर्वक निरन्तर ध्यान करती हूँ । 23 - 253 ॥

ब्रह्माजीसे ऐसा कहकर कमलके समान मुखवाली स्वाहादेवी भगवान् विष्णुकी आज्ञाके अनुसार तपस्या | करनेके लिये चली गर्यो और उन पद्मजा स्वाहानेनिर्विकार श्रीकृष्णका ध्यान करके एक पैरपर खड़े | होकर एक लाख वर्षतक तप किया। तत्पश्चात् उन्हें अप्राकृत निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त मनोहर रूप देखकर ही वे रूपवती भगवती स्वाहा मूर्च्छित हो गयीं क्योंकि उन कामुकी देवीने दीर्घकालके अनन्तर उन कामेश्वर श्रीकृष्णको देखा था ॥ 26-283 ॥

भगवती स्वाहाका अभिप्राय समझकर सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दीर्घकालतक तपस्याके कारण अत्यन्त क्षीण देहवाली उन देवीको गोदमें बैठाकर उनसे कहने लगे ॥ 293 ॥

श्रीभगवान् बोले- हे कान्ते! तुम अंशरूपसे वाराहकल्पमें मेरी भार्या बनोगी, उस समय तुम नग्नजितकी पुत्रीके रूपमें उत्पन्न होकर नाग्नजिती नामसे विख्यात होओगी। इस समय तुम दाहिका शक्तिके रूपमें अग्निदेवकी मनोहर पत्नी बनो। मेरे अनुग्रहसे तुम मन्त्रोंकी अंगस्वरूपिणी बनकर सबसे पूजित होओगी अग्निदेव तुम्हें गृहस्वामिनी बनाकर भक्तिभावके साथ तुम्हारी पूजा करेंगे और वे परम रमणीया भार्याके रूपमें तुम्हारे साथ रमण करेंगे ।। 30-323 ।।

हे नारद! देवी स्वाहासे ऐसा कहकर भगवान्ं श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद ब्रह्म अत्यन्त भयभीत अग्निदेव वहाँ आये। उन्होंने सामवेदमें कही गयी ध्यानविधिसे उन भगवती जगदम्बिकाका ध्यान करके तथा विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें परम प्रसन्न किया तथा मन्त्रोच्चारपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ।। 33-343 ॥

तत्पश्चात् वे विहारके लिये सुखप्रद तथा अत्यन्त निर्जन स्थानमें भगवती स्वाहाके साथ दिव्य एक सौ वर्षोंतक रमण करते रहे और अग्निके तेजसे उन्होंने गर्भधारण कर लिया। देवी स्वाहा उस गर्भको दिव्य बारह वर्षोंतक धारण किये रहीं। तत्पश्चात् उन भगवती स्वाहाने क्रमसे दक्षिणाग्नि गार्हपत्यानि तथा आहवनीयाग्नि-इन सुन्दर तथा मनोहर पुत्रोंको उत्पन्न किया ।। 35-373 ॥तभीसे ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मन्त्रके अन्तमें स्वाहा शब्द जोड़कर मन्त्रोच्चारण करके अग्निमें हवन करने लगे। जो मनुष्य स्वाहायुक्त | प्रशस्त मन्त्रका उच्चारण करता है; मन्त्रके उच्चारणमात्रसे उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥ 38-396 ॥

जिस प्रकार विषरहित सर्प, वेदविहीन ब्राह्मण, पतिसेवाविहीन स्त्री, विद्यासे शून्य मनुष्य और फल तथा शाखासे रहित वृक्ष निन्दनीय होता है, उसी प्रकार स्वाहारहित मन्त्र निन्द्य होता है; ऐसे मन्त्रसे | किया गया हवन फलप्रद नहीं होता ।। 40-413 ॥

तब समस्त ब्राह्मण सन्तुष्ट हो गये और | देवताओंको आहुतियाँ मिलने लगीं। अन्तमें स्वाहायुक्त मन्त्रसे सब कुछ सफल हो जाता है। [हे मुने!] इस प्रकार मैंने भगवती स्वाहासे सम्बन्धित सम्पूर्ण उत्तम आख्यानका वर्णन कर दिया। यह आख्यान सुखदायक, सारभूत तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? ॥ 42-433 ॥

नारदजी बोले - हे मुनीश्वर! हे प्रभो। अग्निने जिस पूजा-विधान, ध्यान तथा स्तोत्रद्वारा स्वाहाको प्रसन्न किया था, उसे आप मुझे बताइये ॥ 443 ॥

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् हे मुनिश्रेष्ठ! अब मैं भगवतीके सामवेदोक्त ध्यान, स्तोत्र तथा पूजा-विधानको बता रहा हूँ, आप सावधान होकर सुनिये ॥ 453 ॥

फलप्राप्तिके निमित्त सम्पूर्ण यज्ञोंके आरम्भिक कालमें शालग्राम अथवा कलशपर यत्नपूर्वक भगवती स्वाहाका विधिवत् पूजन करके यज्ञ करना चाहिये ॥ 46॥

भगवती स्वाहा वेदांगमय मन्त्रोंसे सम्पन मनसिद्धिस्वरूपा सिद्धस्वरूपिणी मनुष्योंको सिद्धि तथा उनके कर्मोंके फल प्रदान करनेवाली तथा कल्याणमयी हैं-इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्रपाद्य आदि अर्पण करके भगवतीका स्तवन करने से मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेता है। हे मुने। अब मूलमन्त्र सुनिये ॐ ह्रीं श्री जियायै देव्यै स्वाहा-इस मन्त्र जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक उन भगवती स्वाहाकी पूर करता है, उसका समस्त अभीष्ट निश्चितरूपसे पूर्ण | हो जाता है । 47-493 ।।वह्नि बोले- स्वाहा, वह्निप्रिया, वह्निजाया, सन्तोषकारिणी, शक्ति, क्रिया, कालदात्री, परिपाककरी, ध्रुवा, मनुष्योंकी गति, दाहिका, दहनक्षमा, संसारसाररूपा, घोरसंसारतारिणी, देवजीवनरूपा और देवपोषणकारिणी ये सोलह नाम भगवती स्वाहाके हैं। जो मनुष्य इनका भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इस लोक तथा परलोकमें सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है। उसका कोई कर्म अपूर्ण नहीं रहता, समस्त कर्म उत्तम फलदायी होते हैं, पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान् हो जाता है तथा भार्याहीन व्यक्ति पत्नीको प्राप्त कर लेता है और रम्भातुल्य अपनी उस भार्याको प्राप्त करके वह सुख भोगता है ॥ 50-55॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन