देवी बोलीं- [हे हिमालय!] यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मेरी मायाशक्तिसे ही उत्पन्न हुआ है। परमार्थदृष्टिसे विचार करनेपर वह माया भी मुझसे पृथक् नहीं है। व्यवहारदृष्टिसे वह विद्या ही 'माया' इस नामसे प्रसिद्ध है। तत्त्वदृष्टिसे भेदसम्बन्ध नहीं है, दोनों एक ही तत्त्व हैं ॥ 1-2 ॥
हे गिरे। मैं सम्पूर्ण जगत्का सृजनकर माया और कर्म आदिके साथ प्राणोंको आगे करके उस जगत्के भीतर प्रवेश करती हूँ, अन्यथा संसारके सभी क्रिया कलाप कैसे हो पाते ? इसी कारणसे मैं ऐसा करती हूँ। मायाके भेदानुसार मेरे विभिन्न कार्य होते हैं। जिस प्रकार आकाश एक होते हुए भी घटाकाश आदि अनेक नामोंसे व्यवहत हैं, उसी प्रकार मैं एक होती हुई भी उपाधिभेदसे भिन्न हूँ ॥ 3-43 ll
जिस प्रकार उत्तम और निकृष्ट-सभी वस्तुओंको सदा प्रकाशित करता हुआ सूर्य कभी भी दूषित नहीं होता, उसी प्रकार मैं कभी उपाधियोंके दोषोंसे लिप्त नहीं होती हूँ।॥53॥कुछ अज्ञानी मुझमें बुद्धि इत्यादिके कर्तृत्वका आरोपकर मुझे आत्मा तथा कर्मकी संज्ञा देते हैं, किंतु विज्ञजन ऐसा नहीं करते। जिस प्रकार घटरूप उपाधिके द्वारा महाकाशका घटाकाशसे भेद कल्पित होता है, उसी प्रकार [ईश्वर तथा जीवमें वास्तविक भेद न होनेपर भी] अज्ञानरूप उपाधिके द्वारा ही जीवका ईश्वरसे भेद मायाके द्वारा कल्पित है ॥ 6–83 ॥
जैसे मायाके प्रभावसे ही जीव अनेक प्रतीत होते हैं; जो वास्तवमें अनेक नहीं हैं, वैसे ही मायाके प्रभावसे ईश्वरकी भी विविधताका भान होता है न कि अपने स्वभाववश ॥ 93 ॥
विभिन्न जीवोंके देह तथा इन्द्रियके समूहमें जैसे भेदकी प्रतीति अविद्याके कारण है (वास्तविक नहीं है), उसी प्रकार जीवोंमें भेद अविद्याके कारण है, इसमें दूसरेको हेतु नहीं बताया गया है। हे धराधर ! गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) में उन गुणोंके कार्यरूप वासनाके भेदसे जो भिन्नताकी प्रतीति करनेवाली है, वही माया एक पदार्थसे दूसरे पदार्थमें भेदका हेतु है, कोई अन्य कभी नहीं ॥ 10-113 ॥
हे धरणीधर! यह समग्र जगत् मुझमें ओतप्रोत है। मैं ईश्वर हूँ, मैं सूत्रात्मा हूँ तथा मैं ही विराट् आत्मा हूँ। मैं ही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र हूँ। गौरी, ब्राह्मी और वैष्णवी भी मैं ही हूँ ॥ 12-13 ॥
मैं ही सूर्य हूँ, मैं ही चन्द्रमा हूँ और तारे भी मैं ही हूँ। पशु-पक्षी आदि भी मेरे ही स्वरूप हैं। चाण्डाल, तस्कर, व्याध, क्रूर कर्म करनेवाला, सत्कर्म करनेवाला तथा महान् पुरुष- ये सब मैं ही हूँ। स्त्री, पुरुष तथा नपुंसकके रूपमें मैं ही हूँ; इसमें कोई संशय नहीं है ।। 14-15 ।
जो कुछ भी वस्तु जहाँ कहीं भी देखने या सुनने में आती है - वह चाहे भीतर अथवा बाहर कहीं भी विद्यमान हो, उन सबको व्याप्तकर उनमें सर्वदा मैं ही स्थित रहती हूँ ॥ 16 ॥
चराचर कोई भी वस्तु मुझसे रहित नहीं है। यदि मुझसे शून्य कोई वस्तु मान ली जाय तो वह वन्ध्यापुत्रके समान असम्भव ही है ॥ 17 ॥जिस प्रकार एक रस्सी भ्रमवश सर्प अथवा मालाके रूपमें प्रतीत होती है, उसी प्रकार मैं ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि रूपसे प्रतीत होती है; इसमें कोई संशय नहीं है। अधिष्ठानकी सत्ताके अतिरिक्त कल्पित वस्तुकी सत्ता नहीं होती। [उसकी प्रतीति अधिष्ठानकी सत्ताके कारण होती है।] अतः मेरी सत्तासे ही वह जगत् सतावान् है, इसके अतिरिक्त दूसरी बात नहीं हो सकती ।। 18-19 ॥
हिमालयने कहा- हे देवेश्वरि हे देवि यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो आपने अपने इस समष्ट्यात्मक विराट् रूपका जैसा वर्णन किया है, आपके उसी रूपको मैं देखना चाहता हूँ ॥ 20 ॥
व्यासजी बोले- उन हिमालयकी यह बात सुनकर विष्णुसहित सभी देवता प्रसन्नचित्त हो गये और उनकी बातका अनुमोदन करते हुए आनन्दित हो गये ॥ 21 ॥
तदनन्तर देवताओंकी इच्छा जानकर भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली तथा भक्तोंके लिये कामधेनुतुल्य भगवती शिवाने अपना रूप दिखा दिया। वे देवता महादेवीके उस परात्पर विराट्रूपका दर्शन करने लगे; जिसका मस्तक आकाश है, चन्द्रमा और सूर्य जिसके नेत्र हैं, दिशाएँ कान हैं और वेद वाणी है वायुको उस रूपका प्राण कहा गया है। विश्व ही उसका हृदय कहा गया है और पृथ्वी उस रूपकी जंघा कही गयी है ।। 22-24 ॥
पाताल उस रूपकी नाभि, ज्योतिश्चक्र वक्षःस्थल और महलोंक ग्रीवा है। जनलोकको उसका मुख कहा गया है। सत्यलोकसे नीचे रहनेवाला तपोलोक उसका ललाट है। इन्द्र आदि उन महेश्वरीके बाहु हैं और शब्द श्रोत्र हैं 25-26
नासत्य और दल (दोनों अश्विनीकुमार) उनकी नासिका है। विद्वान् लोगोंने गन्धको उनकी घ्राणेन्द्रिय कहा है। अग्निको मुख कहा गया है। दिन और रात उनके पक्ष्म (बरौनी) हैं। ब्रह्मस्थान भौंहोंका विस्तार है। जलको भगवतीका तालु कहा गया है। रस जिड़ा कही गयी है और यमको उनकी दावें बताया गया है । ll27-28 ॥ स्नेहकी कलाएँ उस रूपके दाँत है, मायाको उसका हास कहा गया है। सृष्टि उन महेश्वरीका कटाक्षपात और लज्जा उनका ऊपरी ओष्ठ है। लोभ उनका नोचेका ओष्ठ और अधर्ममार्ग उनका पृष्ठभ है। जो पृथ्वीलोकमें स्रष्टा कहे जाते हैं, वे प्रजापति ब्रह्मा उस विराट्रूपकी जननेन्द्रिय हैं ॥ 29-30 ॥
समुद्र उन देवी महेश्वरीकी कुक्षि और पर्वत उनकी अस्थियाँ हैं। नदियाँ उनकी नाडियाँ कही गयी हैं और वृक्ष उनके केश बताये गये हैं। कुमार, यौवन और बुढ़ापा ये अवस्थाएँ उनकी उत्तम गति हैं। मेघ उनके सिरके केश हैं [प्रात: और सायं] दोनों सन्ध्याएँ हँ ॥ उन ऐश्वर्यमयी देवीके दो वस्त्र हैं ll 31-32 ॥
हे राजन् चन्द्रमाको श्रीजगदम्बाका मन कहा गया है। विष्णुको उनकी विज्ञानशक्ति और रुद्रको उनका अन्तःकरण बताया गया है। अश्व आदि जातियाँ उन ऐश्वर्यशालिनी भगवतीके कटिप्रदेशमें स्थित हैं और अतलसे लेकर पातालतकके सभी महान् लोक उनके कटिप्रदेशके नीचेके भाग हैं । ll 33-34 ॥
श्रेष्ठ देवताओंने हजारों प्रकारकी ज्वालाओंसे युक्त, जीभसे बार-बार ओठ चाटते हुए, दाँत कट कटाकर चीखनेकी ध्वनि करते हुए, आँखोंसे अग्नि उगलते हुए, अनेक प्रकारके आयुध धारण किये हुए, पराक्रमी, ब्राह्मण क्षत्रिय ओदनरूप, हजार मस्तक, हजार नेत्र और हजार चरणोंसे सम्पन्न, करोड़ों सूर्योके समान तेजयुक्त तथा करोड़ों बिजलियोंके समान प्रभासे प्रदीप्त, भयंकर, महाभीषण तथा हृदय और नेत्रोंके लिये सन्त्रासकारक ऐसे विराट्रूपका दर्शन किया। जब उन देवताओंने इसे देखा तब वे हाहाकार करने लगे, उनके हृदय काँप उठे, उन्हें घोर मूर्च्छा आ गयी और उनकी यह स्मृति भी समाप्त हो गयी कि यही भगवती जगदम्बा है। ll 35-314 ll
उन महाविभुकी चारों दिशाओंमें जो वेद विराजमान थे, उन्होंने मूर्च्छित देवताओंको अत्यन्त घोर मूस चेतना प्रदान की। इसके बाद धैर्य धारणकर | देवताश्रेष्ठ श्रुति प्राप्त करके प्रेमाश्रुओंसे परिपूर्ण नेत्रों तथा रुथे हुए कंठसे गद्गद वाणीमें उनकी स्तुति करने लगे ।। 40-41 ।।देवता बोले हे अम्ब! हमारे अपराधोंको क्षमा कीजिये और अपने दीन सन्तानोंकी रक्षा कीजिये। हे देवेश्वरि। आप अपना क्रोध शान्त कर लीजिये; क्योंकि हमलोग यह रूप देखकर भयभीत हो गये हैं। हम मन्दबुद्धि देवता यहाँ आपकी कौन सी स्तुति कर सकते हैं? आपका अपना जितना तथा जैसा पराक्रम है, उसे आप स्वयं भी नहीं जानतीं, तो फिर वह बादमें प्रादुर्भूत होनेवाले हम देवताओंके ज्ञानका विषय कैसे हो सकता है ? ।। 42-44 ॥
हे भुवनेश्वरि आपको नमस्कार है। हे प्रणवात्मिके । आपको नमस्कार है। समस्त वेदान्तोंसे प्रमाणित तथा ह्रींकाररूप धारण करनेवाली हे भगवति आपको नमस्कार है ॥ 45 ॥
जिनसे अग्नि उत्पन्न हुआ है, जिनसे सूर्य तथा चन्द्र आविर्भूत हुए हैं और जिनसे समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुई हैं, उन सर्वात्माको नमस्कार है ॥ 46 ll
जिनसे सभी देवता, साध्यगण, पक्षी, पशु तथा मनुष्य उत्पन्न हुए हैं; उन सर्वात्माको नमस्कार है ।। 47 ।।
जिनसे प्राण, अपान, व्रीहि (धान), यव, तप, श्रद्धा, सत्य, ब्रह्मचर्य और विधिका आविर्भाव हुआ है; उन सर्वात्माको बार-बार नमस्कार है ll 48 ll
जिनसे सातों प्राण, सात अग्नियाँ, सात समिधाएँ, सात होम तथा सात लोक उत्पन्न हुए हैं; उन | सर्वात्माको नमस्कार है ।। 49 ।।
जिनसे समुद्र, पर्वत तथा सभी सिन्धु निकलते हैं और जिनसे सभी औषधियाँ तथा रस उद्भूत होते. हैं, उन सर्वात्माको बार-बार नमस्कार है ॥ 50 ॥
जिनसे यज्ञ, दीक्षा, यूप, दक्षिणाएँ, ऋचाएँ, यजुर्वेद तथा सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए हैं; उन सर्वात्माको नमस्कार है ॥ 51 ॥
हे माता! आपको आगे पीछे, दोनों पार्श्वभाग, ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओंसे बार-बार नमस्कार है ॥ 52 ॥
हे देवेश्वरि । अब इस अलौकिक रूपको छिपा लीजिये और हमें उसी परम सुन्दर रूपका दर्शन कराइये ॥ 53 ॥व्यासजी बोले- देवताओंको देखकर कृपासिन्धु जगदम्बाने उस घोर रूपको छिपाकर और पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्रासे युक्त, समस्त कोमल अंगोंवाले, करुणासे परिपूर्ण नेत्रोंवाले एवं मन्द मन्द मुसकान युक्त मुखकमलवाले मनोहर रूपका दर्शन करा दिया ।। 54-55 ।।
तब भगवतीका वह सुन्दर रूप देखकर वे देवता भयरहित हो गये और शान्तचित्त होकर हर्षयुक्त गद्गद वाणीसे देवीको प्रणाम करने लगे ॥ 56 ॥