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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 34 - Skand 7, Adhyay 34

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भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना

देवी बोलीं- कहाँ तुम सब मन्दभाग्य देवता और कहाँ मेरा यह अद्भुत रूप, तथापि भक्तवत्सलताके कारण मैंने आपलोगोंको ऐसे रूपका दर्शन कराया है। केवल मेरी कृपाको छोड़कर - वेदाध्ययन, योग, दान, तपस्या और यज्ञ आदि किन्ही भी साधनसे मेरे उस रूपका दर्शन नहीं किया जा सकता ॥ 1-2 ॥

हे राजेन्द्र ! अब ब्रह्मविद्याविषयक पूर्व प्रसंग सुनिये। परमात्मा ही उपाधिभेदसे जीवसंज्ञा प्राप्त करता है और उसमें कर्तृत्व आदि आ जाता है। वह धर्म-अधर्महेतुभूत विविध प्रकारके कर्म करने लगता है। फिर कर्मोंके अनुसार अनेक योनियोंमें जन्म प्राप्त करके वह सुख-दुःखका भोग करता है ॥ 3-4 ॥

पुनः अपने उन संस्कारोंके प्रभावसे वह सदा नानाविध कर्मोंमें प्रवृत्त रहता है, अनेक प्रकारके शरीर धारण करता है और सुखों तथा दुःखोंका भोग करता है। घटीयन्त्रकी भाँति इस जीवको कभी भी विश्राम नहीं मिलता। अज्ञान ही उसका कारण है; उसी अज्ञानसे कामना और पुनः क्रियाओंका प्रादुर्भाव होता है ।। 5-6 ।।अतः अज्ञानके नाशके लिये मनुष्यको निश्चितरूपसे प्रयत्न करना चाहिये। अज्ञानका नष्ट हो जाना ही जीवनकी सफलता है। अज्ञानके नष्ट हो जानेपर पुरुषार्थकी समाप्ति तथा जीवन्मुक्त दशकी उपलब्धि हो जाती है। विद्या ही अज्ञानका नाश करनेमें पूर्ण समर्थ है ॥ 7-8 ॥

हे गिरे अज्ञानसे ही कर्म होता है, इसलिये कर्मका अज्ञानसे विरोध नहीं है। अज्ञानके नाश हो जानेसे कर्म और उपासना आदिका अभाव हो जायगा, प्रत्युत आशारूपी अज्ञानके नाश हो जानेपर कर्मका अभाव हो जायगा। अनर्थकारी कर्म बार-बार होते रहते हैं। उसीसे राग, उसीसे द्वेष और फिर उसीसे महान् अनर्थकी उत्पत्ति होती है। अतः मनुष्यको पूर्ण प्रयत्नके साथ ज्ञानका अर्जन करना चाहिये। 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि' इस श्रुतिवचनके अनुसार कर्म भी आवश्यक है। साथ ही ज्ञानसे ही कैवल्यपदकी प्राप्ति सम्भव है, अतः मोक्षके लिये कर्म और ज्ञान दोनोंका समुच्चय आवश्यक है, साथ ही हितकारक कर्म ज्ञानकी सहायता करता है-ऐसा कुछ लोग कहते हैं, किंतु उन दोनों (ज्ञान तथा कर्म) के परस्पर विरोधी होनेसे वैसा सम्भव नहीं है ॥ 9-123 ॥

ज्ञानसे हृदयग्रन्थिका भेदन होता है और हृदय ग्रन्थिमें कर्म उत्पन्न होता है। फिर उन दोनों (ज्ञान और कर्म) में परस्पर विरोधभाव होनेसे वे एक स्थानपर उसी तरह नहीं रह सकते, जैसे अन्धकार और प्रकाशका एक साथ रहना सम्भव नहीं है ॥ 13-14 ॥

हे महामते ! इसलिये समस्त वैदिक कर्म जो चित्तकी शुद्धिके लिये होते हैं, उन्हें प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। शम, दम, तितिक्षा, वैराग्य और सत्त्वका प्रादुर्भाव - इनकी प्राप्तितक ही कर्म आवश्यक हैं, इसके बाद नहीं ॥ 15-16 ll

तदनन्तर ज्ञानी मनुष्यको चाहिये कि वह संन्यासी होकर श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरुका आश्रय ग्रहण करे और पुनः सावधान होकर निष्कपट भक्तिके साथ प्रतिदिन वेदान्तका श्रवण करे। साथ ही 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यके अर्थका वह नित्य चिन्तन करे; क्योंकि तत्त्वमसि आदि वाक्य जीव और ब्रह्मकी एकताके बोधक हैं। ऐक्यका बोध हो जानेपर मनुष्य निर्भय होकर मेरा रूप बन जाता है ॥ 17-19 ॥हे पर्वत! वाक्यार्थमें पदार्थज्ञान कारण होता है, | अतः पहले पदार्थका ज्ञान होता है, उसके बाद | वाक्यार्थकी प्रतीति होती है। हे पर्वत! 'तत्' पदके वाच्यार्थके रूपमें मैं ही कही गयी हूँ। 'त्वम्' पदका वाच्यार्थ जीव ही है, इसमें कोई संशय नहीं है। विद्वान् पुरुष 'असि' पदसे 'तत्' और 'त्वम्'- इन दोनों पदोंकी एकता बतलाते हैं ॥ 20-21 ॥

इन दोनों पदोंके वाच्यार्थ परस्पर विरोधी होनेसे इन पदार्थोंकी एकता सम्भव नहीं है, अतः श्रुतिप्रतिपादित इन 'तत्' और 'त्वम्'- दोनों पदोंके वाच्यार्थ में विशेषण रूपसे सन्निविष्ट सर्वज्ञत्व और अल्पज्ञत्व धर्मका भागत्यागलक्षणाके द्वारा त्याग करके केवल चैतन्यांशको ग्रहण करनेसे उनकी एकता सम्भव होती है। उनके ऐक्यका इस प्रकार बोध हो जानेपर स्वगत भेद समाप्त होकर अद्वैत बुद्धिका उदय हो जाता है । ll 22-23 ll

'वह यही देवदत्त है'- इस वाक्यार्थमें देवदत्त और तत् पदके अभेद-बोधके लिये जैसे लक्षणा आवश्यक है, वैसी ही लक्षणा यहाँ समझनी चाहिये। स्थूलादि देहमें जीवका जो स्वरूपाध्यास है, उसकी निवृत्ति हो जानेपर वह जीव ब्रह्म ही हो जाता है ॥ 24 ॥

पंचीकरणसे युक्त पाँच महाभूतोंसे रचित यह स्थूल शरीर सभी कर्मोंके भोगोंका आश्रय है। यह | देह वृद्धत्व एवं रोगसे संयुक्त होनेवाला | हे पर्वतराज! मायामय होनेके कारण ही यह मिथ्याभूत देह सत्य प्रतीत होता है। यह स्थूल शरीर भी मेरी आत्माकी ही उपाधि है ।। 25-26 ॥

यह जो पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण, मन तथा बुद्धिसे युक्त है तथा अपंचीकृत भूतोंसे उत्पन्न है, उसे विद्वानोंने सूक्ष्म शरीर कहा है। सुख दुःखका बोध करनेवाला यह सूक्ष्म शरीर आत्माकी दूसरी उपाधि है । 27-28 ॥

हे पर्वतराज ! अनादि, अनिर्वचनीय और अज्ञानमूलक जो यह कारण शरीर है, वही आत्माके तीसरे शरीरके रूपमें प्रतीत होता है। तीनों उपाधियों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर)- का विलय हो जानेपर केवल परमात्मा ही शेष रह जाता है। इन तीनों देहोंके भीतर पंचकोश | सदा स्थित रहते हैं। पंचकोशका परित्याग कर देनेपरब्रह्ममें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, जो 'नेति नेति' आदि श्रुतिवाक्योंके द्वारा सम्बोधित किया जाता है और जिसे मेरा ही रूप कहा जाता है ।। 29-31 ॥

यह आत्मा न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है। यह होकर फिर कभी हुआ भी नहीं। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता है ॥ 32 ॥ यदि कोई मारनेवाला आत्माको मारनेमें समर्थ मानता है और यदि कोई मारा जानेवाला व्यक्ति अपनेको मरा हुआ मानता है तो वे दोनों ही आत्मस्वरूपको नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा न तो मारता है और न तो मारा जाता है ॥ 33 ॥

यह आत्मा अणुसे भी सूक्ष्म है और महान्से भी महान् है। यह आत्मा (परमात्मा) इस जीवात्माके हृदयरूप गुफा (बुद्धि) में निहित रहनेवाला है। संकल्प-विकल्परहित और चिन्तामुक्त साधक ही परमात्माकी उस महिमाको परब्रह्म परमेश्वरकी कृपासे देख पाता है ॥ 34 ॥

जीवात्माको रथका स्वामी और शरीरको रथ समझिये। बुद्धिको सारथि और मनको ही लगाम समझिये || 35 ॥

विद्वान्लोग इन्द्रियोंको घोड़े, विषयोंको उन घोड़ोंके विचरनेका मार्ग बतलाते हैं और शरीर, इन्द्रिय तथा मन इनके साथ रहनेवाले जीवात्माको भोक्ता कहते हैं ll 36 ॥

जो मनुष्य सदा अज्ञानी, असंयतचित्त और अपवित्र रहता है; वह उस परम पदको नहीं प्राप्त कर पाता और बार-बार संसारमें जन्म लेता रहता है। किंतु जो सदा ज्ञानशील, संयतचित्त और पवित्र रहता है; वह तो उस परम पदको प्राप्त कर लेता है, जहाँसे लौटकर पुनः जन्म धारण नहीं करना पड़ता । ll37-38 ॥

जो मनुष्य विवेकयुक्त बुद्धिरूप सारथिसे सम्पन्न और मनरूप लगामको वशमें रखनेवाला है, वह संसारमार्गसे पार जो मेरा परम पद है; उसे प्राप्त कर लेता है ।। 39 ।।इस प्रकार [वेदान्त-] श्रवण तथा मननके द्वारा | अपने यथार्थ स्वरूपका निश्चय करके बार-बार गम्भीर चिन्तन-मननके द्वारा मुझ परमात्मस्वरूपिणी भगवतीकी भावना करनी चाहिये ॥ 40 ॥

मन्त्र और अर्थके स्वरूपके सम्यक् ध्यानके लिये सर्वप्रथम योगाभ्यासमें प्रतिष्ठित होकर देवी प्रणव नामक मन्त्रके तीनों अक्षरोंकी अपने भीतर भावना करनी चाहिये ।। 41 ।।

'हकार' स्थूलदेह, 'रकार' सूक्ष्मदेह और ईकार कारणदेह है। 'ह्रीं' यह चतुर्थरूप स्वयं मैं हूँ। इस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि समष्टि | शरीरमें भी क्रमशः तीनों बीजोंको समझकर समष्टि और व्यष्टि-इन दोनों रूपोंकी एकताका चिन्तन करे ।। 42-43 ।।

समाधिकालके पूर्व ही आदरपूर्वक इस प्रकारकी भावना करके पुनः उसके बाद दोनों नेत्र बन्दकर मुझ भगवती जगदीश्वरीका ध्यान करना चाहिये ।। 44 ।।

उस समय साधकको चाहिये कि वह किसी गुफा अथवा शब्दरहित एकान्त स्थानमें आसीन होकर विषयभोगोंकी कामनासे रहित, दोषमुक्त तथा ईर्ष्याशून्य रहते हुए और नासिकाके भीतर विचरणशील प्राण तथा अपान वायुको समान स्थितिमें करके निष्कपट भक्तिसे सम्पन्न होकर विश्वात्मारूप हकारको रकारमें समाविष्ट करे अर्थात् हकारवाच्य स्थूलदेहको रकारवाच्य सूक्ष्म देहमें लीन करे, तैजस देवस्वरूप रकारको ईकारमें समाविष्ट करे अर्थात् रकारवाच्य तैजस सूक्ष्मदेहको ईकारवाच्य कारणदेहमें लीन करे और प्राज्ञस्वरूप ईकारको ह्रींकारमें समाविष्ट करे अर्थात् ईकारवाच्य कारणदेहको ह्रींकारवाच्य ब्रह्ममें लीन करे ।। 45-47 ॥

तब वाच्य-वाचकसे रहित, समस्त द्वैतभावसे परे अखण्ड सच्चिदानन्दकी भावना अपने शिखास्थान (सहस्रार) में करे। हे राजन्! इस प्रकारके ध्यानसे | श्रेष्ठ पुरुष मेरा साक्षात्कार करके मेरे ही रूपवाला हो जाता है; क्योंकि दोनोंमें सदा एकता सिद्ध है। इसयोगरीतिसे मुझ परमात्मरूप परात्पर भगवतीका दर्शन करके साधक तत्क्षण कर्मसहित अपने अज्ञानका नाश करनेवाला हो जाता है ॥ 48-50 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति