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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 18 - Skand 11, Adhyay 18

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भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान

नारदजी बोले - हे मानद ! अब मैं श्रीदेवीकी विशेष पूजाका विधान सुनना चाहता हूँ, जिसके करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ 1 ॥

श्रीनारायण बोले- हे देवर्षे! समस्त आपदाओंको दूर करनेवाले तथा साक्षात् भुक्ति मुक्ति प्रदान करनेवाले श्रीमाताके पूजनका क्रम मैं बता रहा हूँ; आप इसे सुनिये ॥ 2 ॥

वाक्संयमीको सर्वप्रथम आचमन करके संकल्प करनेके बाद भूतशुद्धि आदि करनी चाहिये पुन: पहले मातृकान्यास करके षडंगन्यास करना चाहिये ॥ 3 ॥

तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शंखकी स्थापना करके कलश स्थापन करनेके अनन्तर अस्त्र मन्त्र समस्त पूजाद्रव्योंका प्रोक्षण करे। इसके बादगुरुसे आदेश प्राप्त करके पूजा आरम्भ करनी चाहिये। पहले पीठ-पूजन करके बादमें देवीका ध्यान करना चाहिये ॥ 4-5 ॥

भगवतीको भक्ति तथा प्रेमसे युक्त होकर आसन आदि उपचार अर्पण करनेके पश्चात् पंचामृत तथा रस आदिसे उन्हें स्नान कराना चाहिये। जो मनुष्य पौण्ड्र नामक गन्नैके रससे भरे हुए सौ कलशद्वारा भगवती महेश्वरीको स्नान कराता है, वह पुनः जन्म ग्रहण नहीं करता ॥ 6-7 ॥

इसी प्रकार जो पुरुष वेदका पारायण करके आमके रससे तथा ईखके रससे जगदम्बिकाको स्नान कराता है, लक्ष्मी तथा सरस्वती उसके घरका त्याग कभी नहीं करतीं। जो श्रेष्ठ मानव वेदपारायण करते हुए द्राक्षारससे भगवती महेश्वरीका अभिषेक करता है, वह अपने कुटुम्ब सहित उस रसमें विद्यमान रेणुओंकी संख्याके बराबर वर्षोंतक देवीलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 8-10 ॥

वेद पारायण करते हुए जो पुरुष कर्पूर, अगुरु, केसर, कस्तूरी और कमलके जलसे भगवतीको स्नान कराता है; उसके सैकड़ों जन्मोंके अर्जित पाप भस्म हो जाते हैं जो पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते हुए दुग्धसे पूर्ण कलशोंसे देवीको स्नान कराता है, वह क्षीरसागरमें कल्पपर्यन्त निरन्तर वास करता है जो उन भगवतीको दधिसे स्नापित करता है, वह दधिकुल्या नदीका स्वामी होता है ॥ 11-13 ॥

इसी प्रकार जो मनुष्य मधुसे, घृतसे तथा | शर्करासे भगवतीको स्नान कराता है, वह मधुकुल्या आदि नदियोंका अधिपति होता है ll 14 ll

भक्तिमें तत्पर होकर हजार कलशोंसे देवीको स्नान करानेवाला मनुष्य इस लोकमें सुखी होकर परलोकमें भी सुखी होता है ॥ 15 ll

भगवतीको एक जोड़ा रेशमी वस्त्र प्रदान करके वह पुरुष वायुलोकमें जाता है। इसी प्रकार रत्नोंसे निर्मित आभूषण प्रदान करनेवाला निधिपति हो जाता है ॥ 16 ॥

देवीको कस्तूरीकी बिन्दीसे सुशोभित केसरका चन्दन, ललाटपर सिन्दूर तथा उनके चरणोंमें महावर अर्पित करनेसे वह व्यक्ति इन्द्रासनपर विराजमान होकर दूसरे देवेन्द्रके रूपमें सुशोभित होता है ll 173 llसाधुपुरुषोंने पूजाकर्ममें प्रयुक्त होनेवाले अनेक प्रकारके पुष्पोंका वर्णन किया है; यथोपलब्ध उन पुष्पोंको देवीको अर्पण करके मनुष्य स्वयं कैलासधाम प्राप्त कर लेता है ॥ 183 ॥

जो मनुष्य पराशक्ति जगदम्बाको अमोघ बिल्वपत्र अर्पित करता है, उसे कभी किसी भी परिस्थितिमें दुःख नहीं होता है ॥ 193॥

तीन पत्तेवाले बिल्वदलपर लाल चन्दनसे यत्नपूर्वक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुन्दर अक्षरोंमें मायाबीज (ह्रीं) तीन बार लिखे। मायाबीज जिसके आदिमें हो, भुवनेश्वरी इस नामके साथ चतुर्थी विभक्तिका उच्चारण करके उसके अन्तमें 'नमः' जोड़कर (ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः) इस मन्त्रसे महादेवी भगवतीके चरणकमलमें परम भक्तिपूर्वक वह कोमल बिल्वपत्र समर्पित करे। जो इस प्रकार भक्तिपूर्वक करता है, वह मनुत्व प्राप्त कर लेता है और जो अत्यन्त कोमल तथा निर्मल एक करोड़ बिल्वपत्रोंसे भुवनेश्वरीकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका अधिपति होता है । 20 - 233 ॥

अष्टगन्धसे चर्चित एक करोड़ नवीन तथा सुन्दर कुन्द- पुष्पोंसे जो उनकी पूजा करता है, वह निश्चितरूपसे प्रजापतिका पद प्राप्त करता है। इसी प्रकार अष्टगन्धसे चर्चित एक करोड़ मल्लिका तथा मालतीके पुष्पोंसे भगवतीकी पूजाके द्वारा वह चतुर्मुख ब्रह्मा हो जाता है ॥ 24-253 ॥

हे मुने! इसी तरह दस करोड़ उन्हीं पुष्पोंसे भगवतीका अर्चन करके मनुष्य विष्णुत्व प्राप्त कर लेता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। अपना विष्णुपद प्राप्त करनेके लिये भगवान् विष्णुने भी पूर्वकालमें यह व्रत किया था। सौ करोड़ पुष्पोंसे देवीकी पूजा करनेवाला मनुष्य सूत्रात्मत्व (सूक्ष्म ब्रह्मपद) अवश्य ही प्राप्त कर लेता है। भगवान् विष्णुने भी पूर्व कालमें प्रयत्नपूर्वक भक्तिके साथ सम्यक् प्रकारसे इस व्रतको अनुष्ठित किया था; उसी व्रतके प्रभावसे वे हिरण्यगर्भ हुए ॥ 26-283 ॥

जपाकुसुम, बन्धूक और दाडिमका पुष्प भी देवीको अर्पित किया जाता है-ऐसी विधि कही गयीहै। इसी प्रकार अन्य पुष्प भी श्रीदेवीको विधिपूर्वक अर्पित करने चाहिये उसके पुण्यफलकी सीमा के ईश्वर भी नहीं जानते ॥ 29-306 ॥

जिस-जिस ऋतुमें जो-जो पुष्प उपलब्ध हो सकें, सहस्रनामकी संख्याके अनुसार उन पुष्पोंको प्रमादरहित होकर प्रत्येक वर्ष भगवतीको समर्पित करना चाहिये। जो भक्तिपूर्वक ऐसा करता है, वह महापातकों तथा उपपातकोंसे युक्त होनेपर भी सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। 31-323 ॥

हे मुने! ऐसा श्रेष्ठ साधक देहावसानके पश्चात् श्रेष्ठ देवताओंके लिये भी दुर्लभ श्रीदेवीके चरणकमलको प्राप्त कर लेता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ 333 ॥

कृष्ण अगुरु, कर्पूर, चन्दन, सिल्हक (लोहबान), घृत और गुग्गुलसे संयुक्त धूप महादेवीको समर्पित करना चाहिये, जिससे मन्दिर भूषित हो जाय इससे प्रसन्न होकर देवेश्वरी तीनों लोक प्रदान कर देती हैं ।। 34-353 ।।

देवीको कर्पूर-खण्डोंसे युक्त दीपक निरन्तर अर्पित करना चाहिये; ऐसा करनेवाला उपासक सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं करना चाहिये। समाहितचित्त होकर एक सौ अथवा हजार दीपक देवीको प्रदान करने चाहिये ।। 36-37॥

देवीके सम्मुख पर्वतकी आकृतिके रूपमें नैवेद्यराशि स्थापित करे जिसमें लेा, चोष्य, पेय तथा परसोंवाले पदार्थ हों। अनेक प्रकारके दिव्य, स्वादिष्ट तथा रसमय फल एवं अन्न स्वर्णपात्रमें रखकर भगवतीको निरन्तर अर्पित करे ।। 38-39 ।।

श्रीमहादेवीके तृप्त होनेपर तीनों लोक तृप्त हो | जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् उन्हींका आत्मरूप है; जिस प्रकार रज्जुमें सर्पका आभास मिथ्या है, उसी प्रकार जगत्का आभास भी मिथ्या है ॥ 40 ॥

तत्पश्चात् अत्यन्त पवित्र गंगाजल भगवतीको पीनेके लिये निवेदित करे और कर्पूर तथा नारियल जलसे युक्त कलशका शीतल जल भी देवीको समर्पित करे ॥ 41 ॥तत्पश्चात् कर्पूरके छोटे-छोटे टुकड़ों, लवंग तथा इलायचीसे युक्त और मुखको सुगन्धि प्रदान करनेवाला ताम्बूल अत्यन्त भक्तिपूर्वक देवीको अर्पित करे, जिससे देवी प्रसन्न हो जायँ। इसके बाद मृदंग, वीणा, मुरज ढक्का तथा दुन्दुभि | आदिकी ध्वनियोंसे अत्यन्त मनोहर गीतोंसे; वेद पारायणोंसे; स्तोत्रोंसे तथा पुराण आदिके पाठसे | जगत्को धारण करनेवाली भगवतीको सन्तुष्ट करना चाहिये ।। 42-44 ॥

तदनन्तर समाहितचित्त होकर देवीको छत्र तथा दो चैवर अर्पण करे उन श्रीदेवीको नित्य राजोचित उपचार समर्पित करना चाहिये ॥ 45 ॥

अनेक प्रकारसे देवीकी प्रदक्षिणा करे तथा उन्हें नमस्कार करे और जगद्धात्री जगदम्बासे बार-बार क्षमाप्रार्थना करे ॥ 46 ॥

एक बारके स्मरणमात्रसे जब देवी प्रसन्न हो जाती हैं तब इस प्रकारके पूजनोपचारोंसे वे प्रसन्न हो जायें तो इसमें कौन-सा आश्चर्य है ? ॥ 47 ॥

माता स्वाभाविक रूपसे पुत्रपर अति करुणा करनेवाली होती है, फिर जो माताके प्रति भक्तिपरायण है, उसके विषयमें कहना ही क्या ? ॥ 48 ll

इस विषय में मैं राजर्षि बृहद्रथसे सम्बद्ध एक रोचक तथा भक्तिप्रदायक सनातन पौराणिक आख्यानका वर्णन आपसे करूँगा ॥ 49 ॥

हिमालयपर किसी जगह एक चक्रवाक पक्षी रहता था। वह अनेकविध देशोंका भ्रमण करता हुआ काशीपुरी पहुँच गया ॥ 50 ॥

वहाँ वह पक्षी प्रारब्धवश अनाथकी भाँति अन्न कणोंके लोभसे लीलापूर्वक भगवती अन्नपूर्णाके दिव्य धाममें जा पहुँचा ॥ 51 ॥

आकाशमें घूमते हुए वह पक्षी मन्दिरकी एक | प्रदक्षिणा करके मुक्तिदायिनी काशीको छोड़कर किसी अन्य देशमें चला गया ॥ 52 ॥

कालान्तरमें वह मृत्युको प्राप्त हो गया और स्वर्ग चला गया। वहाँ एक दिव्य रूपधारी युवक | होकर वह समस्त सुखोंका भोग करने लगा ॥ 53 ॥इस प्रकार दो कल्पतक वहाँ सुखोपभोग करनेके बाद वह पुनः पृथ्वीलोकमें आया। क्षत्रियोंके कुलमें उसने सर्वोत्तम जन्म प्राप्त किया और पृथ्वीमण्डलपर बृहद्रथ नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह महान् यज्ञनिष्ठ, धर्मपरायण, सत्यवादी, इन्द्रियजयी, त्रिकालज्ञ, सार्वभौम, संयमी और शत्रु- राज्योंको जीतनेवाला राजा हुआ । उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था, जो पृथ्वीपर दूसरोंके लिये दुर्लभ है ॥ 54-56 ॥

जनश्रुतिके माध्यमसे उसके विषयमें सुनकर मुनिगण वहाँ आये। उन नृपेन्द्रसे आतिथ्य सत्कार पाकर वे आसनोंपर विराजमान हुए ॥ 57 ॥ तत्पश्चात् सभी मुनियोंने पूछा- हे राजन् ! हमलोगोंको इस बातका महान् सन्देह है कि किस पुण्यके प्रभावसे आपको पूर्वजन्मकी स्मृति हो जाती है और किस पुण्यके प्रभावसे आपको तीनों कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान) का ज्ञान है? आपके उस ज्ञानके विषयमें जाननेके लिये हमलोग आपके पास आये हुए हैं। आप निष्कपट भावसे यथार्थरूपमें उसे हमें बतायें ।। 58-593 ।।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! उनकी यह बात सुनकर परम धार्मिक राजा अपने त्रिकालज्ञानका सारा रहस्य बताने लगे ॥ 60 ॥

हे मुनिगणो! आपलोग मेरे इस ज्ञानका कारण सुनिये। मैं पूर्वजन्ममें चक्रवाक पक्षी था। नीच योनिमें जन्म लेनेपर भी मैंने अज्ञानपूर्वक भगवती अन्नपूर्णाकी प्रदक्षिणा कर ली थी। हे सुव्रतो! उसी पुण्यप्रभावसे मैंने दो कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास किया और उसके बाद इस जन्ममें भी मुझमें त्रिकालज्ञता विद्यमान है ॥ 61-63 ॥

जगदम्बाके चरणोंके स्मरणका कितना फल होता है-इसे कौन जान सकता है ? उनकी महिमाका स्मरण करते ही मेरी आँखोंसे निरन्तर अश्रु गिरने लगते हैं ॥ 64 ॥ किंतु उन कृतघ्न तथा पापियोंके जन्मको धिक्कार है, जो सभी प्राणियोंकी जननी तथा अपनी उपास्य भगवतीकी आराधना नहीं करते ॥ 65 ॥न तो शिवकी उपासना नित्य है और न तो विष्णुकी उपासना नित्य है। एकमात्र परा भगवतीकी उपासना ही नित्य है; क्योंकि श्रुतिद्वारा वे नित्या कही गयी हैं ॥ 66 ॥

इस सन्देहरहित विषयमें मैं अधिक क्या कहूँ! भगवतीके चरणकमलोंकी सेवा निरन्तर करनी चाहिये ॥ 67 ॥

इन भगवतीसे बढ़कर इस धरातलपर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। अतः सगुणा अथवा निर्गुणा किसी भी रूपमें उन परा भगवतीकी उपासना करनी चाहिये ॥ 68 ॥ श्रीनारायण बोले- उन धार्मिक राजर्षिका यह वचन सुनकर प्रसन्न हृदयवाले वे सभी मुनि अपने अपने स्थानपर चले गये ॥ 69 ॥

वे भगवती जगदम्बा इस प्रकारके प्रभाववाली हैं तथा उनकी पूजाका कितना फल होता है - इस विषयमें न कोई पूछनेमें समर्थ है और न कोई बताने में समर्थ है ॥ 70 ॥

जिनका जन्म सफल होनेको होता है, उन्हीं लोगों के मनमें देवीके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। जो लोग वर्णसंकर जन्मवाले हैं, उनके मनमें देवीके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती ॥ 71 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग