नारद बोले- हे भगवन्! हे भूतभव्येश ! हे नारायण! हे सनातन! आपने भगवतीके परम विस्मयकारक एवं श्रेष्ठ चरित्रका वर्णन किया। साथ ही आपके द्वारा असुरद्रोही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके निमित्त माता भगवतीके उत्तम प्राकट्य तथा देवीकी पूर्ण कृपासे उनकी अधिकार प्राप्तिका वर्णन भी किया गया ।। 1-2 ।।
हे प्रभो! अब मैं उस आचारके विषयमें सुनना चाहता हूँ, जिससे भगवती अपने भक्तोंपर सदा प्रसन्न होती हैं तथा उनका पालन-पोषण करती हैं, उसे बताइये ॥ 3 ॥
श्रीनारायण बोले- हे तत्त्वोंके ज्ञाता नारद! | जिस सदाचारके अनुष्ठानसे देवी सर्वदा प्रसन्न रहती हैं, उसकी विधिके विषयमें अब आप क्रमसे सुनिये ll 4 ll
प्रातः काल उठकर द्विजको प्रतिदिन जिस आचारका पालन करना चाहिये; अब मैं द्विजोंका उपकार करनेवाले उस आचारका भलीभाँति वर्णन करूंगा ॥ 5 ॥
द्विजको सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्तपर्यन्त नित्य, नैमित्तिक तथा अनिन्द्य काम्य कर्मोंसे युक्त होकर सत्कर्मोंमें संलग्न रहना चाहिये ॥ 6 ॥
पिता, माता, पुत्र, पत्नी तथा बन्धु बान्धव कोई भी [परलोकमें] आत्माके सहायतार्थ उपस्थित नहीं रहते; केवल धर्म ही उपस्थित होता है। अतः आत्मकल्याणके लिये समस्त साधनोंसे धर्मका नित्य संचय करना चाहिये। धर्मके ही साहाय्यसे मनुष्य दुस्तर अन्धकारको पार कर लेता है ।। 7-8 llआचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है - ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियों में कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे ।। 9 ।।
मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सन्तानें प्राप्त करता है तथा आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है। यह आचार पापको नष्ट कर देता है ॥ 10 ॥
आचार मनुष्योंका परम धर्म है तथा उनके लिये | कल्याणप्रद है। सदाचारी व्यक्ति इस लोकमें सुखी रहकर परलोकमें भी सुख प्राप्त करता है ॥ 11 ॥ मोहसे भ्रमित चित्तवाले तथा अज्ञानान्धकारमें भटकनेवाले लोगोंके लिये यह आचार धर्मरूपी महान् दीपक बनकर उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखाता है ॥ 12 ॥ आचारसे श्रेष्ठता प्राप्त होती है, आचारसे ही सत्कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है और सत्कर्मसे ज्ञान उत्पन्न होता है-मनुका यह प्रसिद्ध वचन है ॥ 13 ॥
यह आचार सभी धर्मोसे श्रेष्ठ तथा परम तप है। उसीको ज्ञान भी कहा गया है। उसीसे सब कुछ सिद्ध कर लिया जाता है ॥ 14 ॥
द्विजश्रेष्ठ होकर भी जो इस लोकमें आचारसे रहित है, वह शूद्रकी भाँति बहिष्कारके योग्य है; | क्योंकि जैसा शूद्र है वैसा ही वह भी है ॥ 15 ॥
आचार शास्त्रीय तथा लौकिक-भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। अपना कल्याण चाहनेवालेको इन दोनों ही आचारोंका सम्यक् पालन करना चाहिये और उनसे कभी भी विरत नहीं होना चाहिये ll 16 ll
हे मुने। सभी मनुष्योंको ग्रामधर्म, जातिधर्म, देशधर्म तथा कुलधमौका भलीभाँति पालन करना चाहिये, उनका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये 17 ॥
दुराचारी पुरुष लोकमें निन्दित होता है, दुःख प्राप्त करता है और रोगसे सदा ग्रस्त रहता है ॥ 18 ॥
जो अर्थ तथा काम धर्मसे रहित हों, उनका त्याग कर देना चाहिये। साथ ही लोकविरुद्ध धर्मको भी छोड़ देना चाहिये; क्योंकि वह परिणाममें दुःखदायी होता है ॥ 19 ॥नारदजी बोले - हे मुने! जगत्में तो शास्त्रोंका बाहुल्य है; ऐसी स्थितिमें कुछ भी कैसे निश्चित किया जाय। धर्ममार्गका निर्णय करनेवाले कितने प्रमाण हैं; यह मुझे बताइये ॥ 20 ॥
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] श्रुति तथा स्मृति दोनों नेत्र हैं तथा पुराणको हृदय कहा गया है। इन तीनोंमें जो भी कहा गया है, वही धर्म है, इसके अतिरिक्त कहीं भी नहीं ॥ 21 ॥
इन तीनोंमें जहाँ परस्पर विरोध हो, वहाँ श्रुतिको प्रमाण मानना चाहिये। इसी प्रकार स्मृति तथा पुराणमें विरोध होनेपर स्मृति श्रेष्ठ है ॥ 22 ॥
श्रुतिमें जहाँ दो वचनोंमें परस्पर विरोध हो तो वहाँ वे दोनों ही वचन धर्म हैं। यदि स्मृतिमें द्वैध स्थिति हो जाय तो प्रसंगानुसार पृथक्-पृथक् विषय कल्पित कर लेने चाहिये ॥ 23 ॥
पुराणोंमें कही-कहीं तन्त्र भी सूक्ष्मरूपसे व्याख्यायित किये गये हैं। जिसे धर्म बताया गया है, | उसीको धर्मरूपसे ग्रहण करना चाहिये, किसी अन्यको किसी भी तरह नहीं ॥ 24 ॥
यदि तन्त्रका वचन वेदविरोधी नहीं है तो उसकी प्रामाणिकतामें सन्देह नहीं है, किंतु श्रुतिसे जो प्रत्यक्ष विरुद्ध हो, वह वचन प्रमाण नहीं हो सकता ॥ 25 ॥ वेद ही पूर्णरूपसे धर्म-मार्गके प्रमाण हैं। उस वेदराशिसे विरोध न रखनेवाला जो कुछ भी है, वही प्रमाण है; दूसरा नहीं ॥ 26 ॥
वेद-प्रतिपादित धर्मको छोड़कर जो अन्यको प्रमाण मानकर व्यवहार करता है, उसे दण्डित करनेके लिये यमलोकमें नरककुण्ड स्थित हैं। अतएव | सभी प्रयत्नोंसे वेदोक्त धर्मका ही आश्रय लेना चाहिये। स्मृति, पुराण, तन्त्र, शास्त्र तथा अन्य ग्रन्थ-इनके वेदमूलक होनेकी स्थितिमें ही वे प्रमाण होते हैं; इसके विपरीत वे कभी भी प्रमाण नहीं हो सकते ।। 27-283 ॥
जो लोग इस लोक में मनुष्योंको निन्दित शास्त्रोंका उपदेश करते हैं, वे मुख नीचे तथा पैर ऊपर किये हुए नरकसागर जायँगे ॥ 293 ॥स्वेच्छाचारी, पाशुपतमार्गावलम्बी, लिंगधारी, तप्त मुद्रासे अंकित तथा वैखानस मत माननेवाले जो भी लोग हैं, वेदमार्गसे विचलित होनेके कारण वे सभी नरक जाते हैं ।। 30-31 ॥
अतएव मनुष्यको सदा वेदोक सद्धर्मका ही पालन करना चाहिये। उसे सावधान होकर बार-बार विचार करना चाहिये कि आज मैंने कौन-कौन-सा कार्य किया, क्या दिया, क्या दिलाया अथवा वाणीसे कैसा सम्भाषण किया? यह भी सोचना चाहिये कि अत्यन्त दारुण सभी पातकों तथा उपपातकोंमें कहीं मेरी प्रवृत्ति तो नहीं हो गयी ।। 32-33 ॥
रात्रिके चौथे प्रहरमें [उठकर] ब्रह्मध्यान करना चाहिये। जंघाओंपर पैरको ऊपरकी ओर करके (पद्मासनमें बैठे, बाय जंघापर दाहिना पैर उत्तान करके रखना चाहिये। हनु (ढुड्डी) को वक्षःस्थलसे लगाकर नेत्रोंको बन्द करके सहज भावमें स्थित होकर बैठना चाहिये, दाँतोंका दाँतोंसे स्पर्श नहीं करना चाहिये ।। 34-35 ।।
जिह्वाको तालुके समीप अचल स्थितिमें रखे, मुँह बन्द किये रहे, शान्तचित्त रहे, इन्द्रियसमूहोंपर नियन्त्रण रखे तथा बहुत नीचे आसनपर स्थित न हो। दो बार अथवा तीन बार प्राणायाम करना चाहिये। तत्पश्चात् दीपकस्वरूप जो प्रभु हृदयमें अवस्थित हैं, उनका ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार विद्वान् व्यक्तिको अपने हृदयमें परमात्माके विराजमान रहनेकी धारणा करनी चाहिये 36-373 ॥
, सधूम (श्वाससहित ), विधूम (श्वासरहित), सगर्भ ( मन्त्र जपसहित), अगर्भ ( मन्त्ररहित), सलक्ष्य (इष्टदेवके ध्यानसहित) और अलक्ष्य (ध्यानरहित ) - यह छः प्रकारका प्राणायाम होता है। प्राणायाममें | वायुका नियमन किया जाता है, अतएव इस प्राणायामको ही योग कहा गया है ।। 38-39 ॥
यह प्राणायाम भी रेचक, पूरक तथा कुम्भक भेदोंवाला कहा गया है। रेचक, पूरक तथा कुम्भक संज्ञक प्राणायाम वर्णत्रयात्मक है, इसीको प्रणव कहा गया है। उस प्रणवमें तन्मय हो जाना ही प्राणायाम है ॥ 403 ॥इडा नाड़ीसे वायुको ऊपर खींचकर उदरमें पूर्णरूपसे स्थित कर लेनेके अनन्तर पुनः दूसरी (पिंगला) नाड़ीसे धीरे-धीरे सोलह मात्रामें उस वायुको निकालना चाहिये। हे मुने! इस प्रकार यह सधूमप्राणायाम कहा गया है । 41-42 ॥
मूलाधार, लिंग, नाभि, हृदय, कंठ तथा ललाट (भ्रूमध्य) - में क्रमशः चतुर्दल, षड्दल, दशदल, द्वादशदल, षोडशदल तथा द्विदल कमल विद्यमान हैं। मूलाधारचक्रमें वँ, शँ, षँ, सँ वर्णों; स्वाधिष्ठानचक्रमें बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ वर्णों; मणिपूरकचक्रमें डँ, ढ, ण, तँ, थ, द, ध, नँ, पँ, फँ वर्णों अनाहतचक्रमें कँ, खँ, गँ, घ, ङ, चँ, छ, ज, झ, ञ, टैं, ठँ वर्णों; विशुद्धाख्यचक्र (कण्ठदेश) में सभी सोलह स्वरों तथा आज्ञाचक्रमें हँ, क्षं वर्णोंवाले द्विदल पद्ममें विराजमान तत्त्वार्थयुक्त उन ब्रह्मस्वरूप सभी वर्णोंको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ 43 ॥
जिसके चित्तमें एक बार भी अरुणकमलासना, पद्मरागके पुंजके समान वर्णवाली, शिवलिंगसे अंकित, कमलतन्तुके समान सूक्ष्म स्वरूपवाली, सूर्य-अग्नि चन्द्र (-रूपी नेत्रों) से आलोकित मुखमण्डल और उन्नत स्तनोंसे सुशोभित जगदम्बाका निवास हो जाता है, वही मुक्त है ॥ 44 ॥
वे भगवती ही स्थिति हैं, वे ही गति हैं, वे ही यात्रा हैं, वे ही मति हैं, वे ही चिन्ता हैं, वे ही स्तुति हैं और वे ही वाणी हैं। मैं सर्वात्मा देवता हूँ और मेरे द्वारा की गयी स्तुति ही आपकी समस्त अर्चना है, मैं स्वयं देवीरूप हूँ, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। मैं ही ब्रह्म हूँ, मुझमें शोक व्याप्त नहीं हो सकता और मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ-ऐसा अपनेको समझना चाहिये ॥ 45-46 ॥
प्रथम प्रयाणके समय अर्थात् मूलाधारसे ब्रह्मरन्ध्रकी ओर (जाते समय विद्युत् सदृश प्रकाशमान, प्रतिप्रयाणमें अमृतसदृश प्रतीतिवाली तथा अन्तिम प्रयाणमें सुषुम्ना नाड़ीमें संचरित होनेवाली आनन्दस्वरूप भगवती कुण्डलिनीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ 47 ॥तत्पश्चात् अपने ब्रह्मरन्ध्रमें ईश्वररूप उन गुरुका ध्यान करना चाहिये और मानसिक उपचारोंसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । पुनः साधकको संयतचित्त होकर इस मन्त्रसे गुरुकी प्रार्थना करनी चाहिये 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥' गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही देवता हैं, गुरु ही महेश्वर शिव हैं और गुरु ही परब्रह्म हैं; उन श्रीगुरुको नमस्कार
है ।। 48-49 ॥