ऋषिगण बोले- हे महाभाग ! हमें इस कथानकमें | महान् अद्भुत संशय है। हे महामते ! वेदों, शास्त्रों, | पुराणों तथा बुद्धिमान् लोगोंकी सदासे यह अवधारणा रही है कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शम्भु—ये तीनों देवता सनातन हैं और इस ब्रह्माण्डमें इनसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है ॥ 1-2 ॥
ब्रह्मा जगत्का सृजन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शंकर प्रलयकालमें संहार करते हैं। ये तीनों ही इसमें कारण हैं ॥ 3 ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश – ये तीनों देवता एक ही
मूर्तिके तीन स्वरूप हैं। ये लोग क्रमशः रज, सत्त्व और
| तम-गुणोंसे युक्त होकर अपना-अपना कार्य करते हैं ॥ 4 ॥
उन तीनोंमें माधव, पुरुषोत्तम, आदिदेव जगन्नाथ श्रीहरि श्रेष्ठ हैं और वे सभी कार्य सम्पादित करनेमें समर्थ हैं। अनुपम तेजवाले विष्णुसे बढ़कर सर्वसमर्थ अन्य कोई भी नहीं है। उन जगत्पति विष्णुको योगमायाने विवश करके भला कैसे सुला दिया ? ।। 5-6 ॥
उस समय उन विष्णुकी चेतना कहाँ चली गयी और उनके जीवनकी चेष्टा कहाँ लुप्त हो गयी ? हे महाभाग ! यह महान् सन्देह उपस्थित है; आप इस | विषयमें यथोचित बतानेकी कृपा करें ॥ 7 ॥ जिस शक्तिके विषयमें आप पहले बता चुके हैं कि उसने भगवान् विष्णुको भी पराभूत कर दिया था, वह कौन-सी शक्ति है ? वह शक्ति कहाँसे उद्भूत हुई, शक्तिसम्पन्न कैसे हुई तथा उसका स्वरूप क्या है ? हे सुव्रत ! यह सब हमें स्पष्टरूपसे बतलाइये ॥ 8 ॥
जो विष्णु हैं वे तो सबके ईश्वर, वासुदेव, जगत्के गुरु, परमात्मा, परम आनन्दस्वरूप तथा सच्चिदानन्दकी साक्षात् मूर्ति हैं; सब कुछ करनेमें समर्थ, सबका पालन करनेवाले, सभी चराचरका सृजन करनेवाले, रजोगुणसे रहित, सर्वव्यापी और पवित्र हैं। वे परात्पर विष्णु निद्राकी परतन्त्रतामें कैसे आबद्ध हो गये ? ।। 9-10 ॥
हे परन्तप ! हमें इस प्रकारका आश्चर्यजनक सन्देह है। हे सूत ! हे व्यासशिष्य! हे महामते! आप अपने ज्ञानरूपी खड्गसे हमारे इस सन्देहको नष्ट कर दीजिये ॥ 11 ॥
सूतजी बोले- हे मुनिजन! इस चराचर जगत्में कौन ऐसा है, जो इस शंकाका समाधान कर सके, जबकि ब्रह्माके पुत्र सनकादि मुनि तथा नारद, कपिल आदि भी इस विषयमें मोहित हो जाते हैं ? हे मुनिश्रेष्ठ! हे महाभाग ! तब इस जटिल समस्याके समाधानमें मैं क्या कहूँ ? ।। 12-13 ।।
देवताओं में भगवान् विष्णु ही सर्वव्यापी एवं | सभी भूतोंके रक्षक कहे गये हैं। उन्हींसे इस चराचर समस्त विराट् संसारकी सृष्टि हुई है ॥ 14 ॥
वे सभी देवता परात्पर परमात्माको नमस्कार करके नारायण, हृषीकेश, वासुदेव, जनार्दनरूपमें उनकी उपासना करते हैं ॥ 15 ॥ कुछ लोग महादेव, शंकर, शशिशेखर, त्रिनेत्र,पंचवक्त्र, शूलपाणि और वृषभध्वजके रूपमें उन्हींकी उपासना करते हैं ॥ 16 ॥
सभी वेदोंमें भी त्रियम्बक (त्र्यम्बक), कपर्दी,
पंचवक्त्र, गौरीदेहार्धधारी, कैलासवासी, सर्वशक्ति
समन्वित, भूतगणोंसे सेवित एवं दक्षयज्ञविध्वंसक आदि
नामोंसे उनका गुणगान किया गया है ।। 17-18 ॥ हे महाभागो ! वैदिक विद्वान् लोग सूर्य आदि नामोंसे भी नित्य प्रातः, सायं तथा मध्याह्नकालमें | सन्ध्या करते समय विविध प्रकारको स्तुतियोंसे उन्हींकी प्रार्थना करते हैं ॥ 19 ॥
सभी वेदोंमें सूर्योपासना श्रेष्ठ कही गयी है तथा | उन महात्माका नाम 'परमात्मा' कहा गया है। वेदोंमें सर्वत्र वेदज्ञोंद्वारा अग्निदेवकी भी स्तुति की गयी है। वहाँ त्रिलोकेश इन्द्र, वरुण तथा अन्यान्य देवताओंकी भी स्तुति की गयी है ॥। 20-21 ॥
जिस प्रकार गंगा अनेक धाराओंमें विद्यमान रहकर | प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार महर्षियोंद्वारा भगवान् विष्णु सभी देवताओं में विद्यमान बताये गये हैं ॥ 22 ॥
मनीषी विद्वानोंने तीन प्रकारके मुख्य प्रमाण बताये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और तीसरा शब्दप्रमाण । अन्य (न्याय) के पण्डित चार प्रमाण मानते हैं प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्दप्रमाण। परंतु अन्य (मीमांसाके) विद्वान् लोग अर्थापत्तिको लेकर पाँच प्रमाण मानते हैं ।। 23-24 ॥
पौराणिक विद्वान् सात प्रमाण बताते हैं-इन प्रमाणोंसे भी जो दुर्ज्ञेय है, वह है- परब्रह्म ॥ 25 ॥
इसलिये इस विषयमें बुद्धि, शास्त्र एवं निश्चयात्मिका युक्तिसे बार-बार विचार करके अनुमान करना चाहिये। साथ ही सन्मार्गका अनुसरण करनेवाले दृष्टान्तद्वारा इस प्रत्यक्ष विज्ञानका चिन्तन बुद्धिमान् मनुष्यको सर्वदा करते रहना चाहिये ।। 26-27 ॥
प्रायः सभी पुराण तथा विद्वान् ऐसा कहते हैं कि ब्रह्मामें सृष्टि करनेकी शक्ति, विष्णुमें पालन करनेकी शक्ति, शिवमें संहार करनेकी शक्ति, सूर्यमें प्रकाश करनेकी शक्ति तथा शेष और कच्छपमें पृथ्वीको धारण करनेकी शक्ति स्वभावतः विद्यमान रहती है ।। 28-29 ।।
इस प्रकार एकमात्र वे आद्याशक्ति ही स्वरूपभेद से | सभीमें व्याप्त रहती हैं। वे ही अग्निमें दाहकत्त्व शक्ति तथा वायुमें संचारशक्ति हैं ॥ 30 ॥
कुण्डलिनी शक्तिके बिना शिव भी 'शव' बन जाते हैं। विद्वान् लोग शक्तिहीन जीवको निर्जीव एवं असमर्थ कहते हैं ॥ 31 ॥
अतएव हे मुनिजनो ! ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सभी पदार्थ इस संसार में शक्तिके बिना सर्वथा हेय हैं; क्योंकि स्थावर-जंगम सभी जीवोंमें वह शक्ति ही काम करती है। यहाँतक कि शक्तिहीन पुरुष शत्रुपर विजयी होने, चलने-फिरने तथा भोजन करनेमें भी सर्वथा असमर्थ रहता है ।। 32-33 ॥
वह सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली आदिशक्ति ही 'ब्रह्म' कहलाती है। बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह अनेक प्रकारके यत्नोंद्वारा सम्यक् रूपसे उसकी उपासना करे तथा उसका चिन्तन करे ॥ 34 ॥
भगवान् विष्णुमें सात्त्विकी शक्ति रहती है, जिसके बिना वे अकर्मण्य हो जाते हैं। ब्रह्मामें राजसी शक्ति है, वे भी शक्तिहीन होकर सृष्टिकार्य नहीं कर सकते और शिवमें तामसी शक्ति रहती है, जिसके बलपर वे संहार कृत्य सम्पादित करते हैं। इस विषयपर मनसे बार-बार विचार करके तर्क-वितर्क करते रहना चाहिये ॥ 35-36
शक्ति ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकी रचना करती है, सबका पालन करती है और इच्छानुसार इस चराचर जगत्का संहार करती है ॥ 37 ॥
उसके बिना विष्णु, शिव, इन्द्र, ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य और वरुण कोई भी अपने-अपने कार्यमें किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ 38 ॥
वे देवगण शक्तियुक्त होनेपर ही अपने-अपने कार्योंको सम्पादित करते रहते हैं। प्रत्येक कार्य कारणमें वही शक्ति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है ।। 39 ।।
मनीषी पुरुषोंने शक्तिको सगुणा और निर्गुणा भेदसे दो प्रकारका बताया है। सगुणा शक्तिकी उपासना आसक्तजनों और निर्गुणा शक्तिकी उपासना अनासक्तजनोंको करनी चाहिये ॥ 40 ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पदार्थोंकी स्वामिनी वे ही निर्विकार शक्ति हैं। विधिवत् पूजा करनेसे वे सब प्रकारके मनोरथ पूर्ण करती हैं 41
सदा मायासे घिरे हुए अज्ञानी लोग उस महाशक्तिको जान नहीं पाते। यहाँतक कि कुछ विद्वान् पुरुष उन्हें जानते हुए भी दूसरोंको भ्रममें डालते हैं। कुछ मन्दबुद्धि पण्डित अपने उदरकी पूर्तिके लिये कलिसे प्रेरित होकर अनेक प्रकारके पाखण्ड करते हैं ।। 42-43 ।। हे महाभागो ! इस कलिमें बहुत प्रकारके अवैदिक तथा भेदमूलक धर्म उत्पन्न होते हैं; दूसरे युगों में नहीं होते ॥ 44 ॥
स्वयं भगवान् विष्णु भी अनेक वर्षोंतक कठोर तप करते हैं और ब्रह्मा तथा शिवजी भी ऐसा ही करते हैं। ये तीनों देवता निश्चित ही किसीका ध्यान करते | हुए कठिन तपस्या करते रहते हैं ॥ 45 ॥
इसी प्रकार अपनी इच्छाओंकी पूर्तिके लिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश- ये तीनों ही देवता अनेक प्रकारके यज्ञ सदा करते हैं। वे उन पराशक्ति, ब्रह्म नामवाली परमात्मिका देवीको नित्य एवं सनातन मानकर सर्वदा मनसे उन्हींका ध्यान करते हैं ।। 46-47 ।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! सब शास्त्रोंका यही निश्चय जानना चाहिये कि दृढनिश्चयी विद्वानोंके द्वारा वे आदिशक्ति ही सदा सेवनीय हैं ॥ 48 ॥
यह गुप्त रहस्य मैंने कृष्णद्वैपायनसे सुना है। जिसे उन्होंने नारदजीसे, नारदजीने अपने पिता ब्रह्माजीसे और ब्रह्माजीने भी भगवान् विष्णुके मुखसे सुना था ॥ 49 ॥
इसलिये विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि वे न तो किसी अन्यकी बात सुनें और न मानें तथा दृढप्रतिज्ञ | होकर सर्वदा शक्तिकी ही उपासना करें ॥ 50 ॥
शक्तिहीन असमर्थ पुरुषका व्यवहार तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है [कि वह कुछ कर नहीं पाता ] इसलिये सर्वव्यापिनी आदिशक्ति जगज्जननी भगवतीको ही जाननेका प्रयत्न करना चाहिये ॥ 51 ॥