सूतजी बोले - [ हे ऋषियो !] लक्ष्मीकान्त श्रीविष्णुके वचनसे सभी देवता सन्तुष्ट हो गये। उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर उन भगवान् से पुनः इस प्रकार कहा- ॥ 1॥
देवता बोले- हे देवदेव! हे महाविष्णो! हे सृजन - पालन-संहारके कारण! हे विष्णो! विन्ध्यपर्वतने सूर्यका मार्ग रोक दिया है। सूर्यकामार्ग अवरुद्ध हो जानेके कारण हमलोगोंको यज्ञभाग नहीं मिल पा रहा है। अतएव हे महाविभो अब हमलोग क्या करें तथा कहाँ जायँ ? ॥ 2-3 ॥
श्रीभगवान् बोले- हे उत्तम देवगण सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाली, आदिस्वरूपिणी तथा कुलकी अभिवृद्धि करनेवाली जो भगवती अम्बा हैं, उन्हींके उपासक परम तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी हैं। वे इस समय वाराणसीमें विद्यमान हैं वे अगस्त्यमुनि ही उस विन्ध्यगिरिके तेजको निरस्त करनेमें समर्थ होंगे। हे देवताओ मोक्षपद प्रदान करनेवाली उस काशीपुरीमें जाकर परम ओजस्वी द्विजश्रेष्ठ अगस्त्यजीको प्रसन्न करके याचना कीजिये ll 4-6 ॥
सूतजी बोले - [ हे मुनियो !] इस प्रकार भगवान् विष्णुसे आदेश प्राप्त करके वे सभी श्रेष्ठ देवता आश्वस्त होकर नम्रतापूर्वक काशीपुरीके लिये प्रस्थित हुए ॥ 7 ॥
क्षणभरमें पावन काशीपुरीमें पहुँचकर वे श्रेष्ठ देवगण मणिकर्णिकातीर्थमें भक्तिपूर्वक सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करके पुनः देवतर्पण तथा पितृतर्पण करनेके बाद विधिपूर्वक दान देकर मुनिवर अगस्त्यके परम पवित्र आश्रमपर आये, जो शान्तस्वभाववाले हिंसक पशुओंसे व्याप्त था; वहाँ नानाविध वृक्ष उगे हुए थे। वह आश्रम मयूर, सारस, हंस, चक्रवाक, महावराह, शूकर, व्याघ्र, सिंह, मृग, काले हिरन, गैंडा तथा शरभ आदि जन्तुओंसे परिपूर्ण था। सभी देवता परम कान्तिसे सम्पन्न मुनिवर अगस्त्यके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिर पड़े और बार-बार उन्हें प्रणाम करने लगे ॥ 8- 12 ॥
देवता बोले- हे द्विजगणों के स्वामी हे मान्य! हे पूज्य! हे भूसुर! हे वातापीका बल नष्ट करनेवाले तथा घटसे प्रकट होनेवाले आपको नमस्कार है, आपकी जय हो ॥ 13 ॥ हे लोपामुद्रापते हे श्रीमन्! हे वरुणसे आविर्भूत! हे सम्पूर्ण विद्याओंके भण्डार! हे शास्त्रयोनि अगस्त्यमुने। आपको नमस्कार है॥ 14॥ जिनके उदय होनेपर समुद्रोंका जल प्रसन्न तथा विमल हो जाता है, उन आपको नमस्कार स्वीकार हो ॥ 15 ॥काशपुष्पको विकसित करनेवाले, लंकावास (श्रीराम) - के परम प्रिय, जटासमूहसे सम्पन्न तथा शिष्योंसे निरन्तर आवृत आपको नमस्कार है ॥ 16 ॥ समस्त देवताओंसे स्तुत होनेवाले हे महामुने! हे गुणनिधे! वरिष्ठ, पूज्य तथा भार्यासहित आपको नमस्कार है, आपकी जय हो ॥ 17 ॥
हे स्वामिन्! आप हमपर अनुग्रह करें; हम आपकी शरणको प्राप्त हुए हैं। हे परमद्युते ! विन्ध्यगिरिद्वारा उत्पन्न किये गये दुःसह कष्टसे हमलोग बहुत पीड़ित हैं ॥ 18 ॥
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर परम धर्मनिष्ठ द्विजश्रेष्ठ अगस्त्यमुनि हँसते हुए प्रसन्नतासे युक्त वाणीमें कहने लगे - ॥ 19 ॥
मुनि बोले- हे देवताओ! आपलोग परम श्रेष्ठ, त्रिलोकीके स्वामी, लोकपाल, महान् आत्मावाले तथा निग्रह - अनुग्रह करनेमें सक्षम हैं ॥ 20 ॥
जो अमरावतीपुरीके स्वामी हैं, वज्र ही जिनका शस्त्र है, आठों सिद्धियाँ जिनके द्वारपर विराजमान रहती हैं तथा जो मरुद्गणोंके नायक हैं-वे ही ये इन्द्रदेव हैं ॥ 21 ॥
सर्वदा हव्यकव्यका वहन करनेवाले, वैश्वानर तथा कृशानु नामसे प्रसिद्ध और सभी देवताओंके मुखस्वरूप जो ये अग्निदेव हैं, उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है ? ॥ 22 ॥
हे देवताओ! हाथमें दण्ड लेकर सदा व्यस्त रहनेवाले, सभी प्राणियोंके कर्मोंके साक्षीस्वरूप तथा | राक्षसगणोंके अधिपति भयंकर यमदेवके लिये कौन सा कार्य सुकर नहीं है ? तथापि हे देवताओ! मेरे सामर्थ्यसे यदि आपका कोई कार्य सिद्ध होनेवाला हो तो आप उसे बताइये। हे देवगण! मैं उसे अवश्य करूँगा; इसमें सन्देह नहीं है ।। 23-24 ॥
मुनिवर अगस्त्यका वचन सुनकर वे श्रेष्ठ देवता आश्वस्त हो गये और अधीर होकर विनम्रतापूर्वक अपने कार्यके विषयमें बताने लगे-हे महर्षे! विन्ध्यपर्वतने | सूर्यका मार्ग निरुद्ध कर दिया है और तीनों लोकोंको आच्छादित कर रखा है, जिससे सर्वत्र हाहाकार मच गया है तथा सभी प्राणियोंमें अचेतनता उत्पन्न हो गयी है ।। 25-26 ॥हे मुने! आप अपने तपोबल तथा प्रतापसे उस विन्ध्यगिरिकी वृद्धिको रोक दीजिये। हे अगस्त्य ! आपके तेजसे वह अवश्य ही नम्र हो जायगा, इस समय आपको हमारा इतना ही कार्य सम्पन्न करना है ॥ 27 ॥