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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 5 - Skand 6, Adhyay 5

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भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना

व्यासजी बोले- हे राजन् तब सभी तत्त्वोंके ज्ञाता माधव भगवान् विष्णु समस्त देवताओंको चिन्तासे व्याकुल तथा अत्यन्त प्रेमविह्वल देखकर कहने लगे ॥ 1 ॥

विष्णु बोले हे देवगण! आप सबने मौन धारण क्यों कर रखा है ? आप सब अपने दुःखका सत्-असत् जो भी कारण हो बतायें, जिसे सुनकर मैं उसे दूर करनेका उपाय करूँगा ll 2 ll

देवता बोले- हे विभो। तीनों लोकोंमें कौन सी वस्तु आपसे अज्ञात है, आप हमारा सारा कार्य [भली प्रकारसे] जानते हैं; तो क्यों बार-बार पूछ रहे हैं? ॥ 3 ॥

पूर्वकालमें आपने वलिको बाँध लिया था और इन्द्रको देवताओंका राजा बनाया था; आपने वामन शरीर धारणकर तीनों लोकोंको अपने चरणोंसे नाप लिया था ॥ 4 ॥

हे विष्णो! आपने ही अमृत छीनकर दैत्योंका नाश किया था; आप सभी देवताओंकी समस्त विपत्तियोंको दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ 5 ॥

विष्णु बोले- हे श्रेष्ठ देवताओ! आपलोग भयभीत न हों। मैं उस वृत्रासुरके वधका सुसंगत उपाय जानता है, उसे मैं बताऊँगा, जिससे आपलोगोंको सुख होगा ॥ 6 ॥

अपनी बुद्धिसे, बलसे, धनसे या जिस किसी भी उपायसे मुझे आपलोगोंका हित अवश्य करना है ॥ 7 ॥

मित्रों और विशेषरूपसे शत्रुओंके प्रति [ प्रयोगहेतु] तत्त्वदर्शियोंने साम, दान, दण्ड, भेद-ये चार उपाय बताये हैं ॥ 8 ॥

वृत्रासुरकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने इसे वरदान दिया है और उस वरदानके प्रभावसे | यह दुर्जय हो गया है ॥ 9 ॥त्वष्टाके द्वारा उत्पन्न किया गया यह वृत्रासुर
समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया है। शत्रुओंके
राज्यको जीत लेनेवाला वह अपनी शक्तिसे अधिक
प्रबल हो गया है ॥ 10 ॥

हे देवताओ! बिना सामनीतिके प्रयोगके वह वृत्रासुर देवताओंके लिये दुःसाध्य है, अतः पहले इसे प्रलोभन देकर वशमें करना चाहिये, तत्पश्चात् मार डालना चाहिये ॥ 11 ॥

हे गन्धर्वगण जहाँ वह बलवान् वृत्रासुर रहता है, वहाँ तुमलोग जाओ और उसपर सामनीतिका प्रयोग करो; तभी उसपर विजय प्राप्त कर सकोगे ॥ 12 ॥ वहाँ जाकर अनेक शपथें खाकर सन्धिके द्वारा उसे विश्वासमें ले करके और पुनः मित्रताकर बादमें उस प्रबल शत्रुको मार डालना चाहिये ॥ 13 ॥ हे श्रेष्ठ देवगण! मैं अदृश्य रूपमें इन्द्रके श्रेष्ठ आयुध वज्रमें प्रवेश कर जाऊँगा और उनकी सहायता करूँगा ll 14 ॥

हे देवताओ! अब आपलोग समयकी प्रतीक्षा करें, वृत्रासुरकी आयुके क्षीण होनेपर ही उसकी मृत्यु होगी, अन्य किसी भी प्रकारसे नहीं ।। 15 ।। हे गन्धर्वगण! तुमलोग वेष बदलकर ऋषियोंके साथ उसके पास जाओ और वचनबद्धतापूर्वक इन्द्रके साथ उसकी मित्रता करा दो ॥ 16 ॥

जिस प्रकारसे उसका विश्वास दृढ़ हो जाय, | वैसा ही आप सबको करना चाहिये। मैं सुदृढ़ तथा आवरणयुक्त वज्रमें गुप्तरूपसे प्रवेश कर जाऊँगा ॥ 17 ॥ जब वृत्रासुरको पूर्ण विश्वास हो जाय तभी इन्द्र उस शत्रुका वध करेंगे। उसके वधका अन्य कोई उपाय नहीं है। वे इन्द्र विश्वासघात करके मेरी सहायतासे वज्रद्वारा पीछेसे उस पापीको मार डालेंगे। इस दुष्ट शत्रुके साथ शठता करनेमें दोष नहीं है। अन्यथा वह बलवान् वीरधर्मसे नहीं मारा जा सकेगा। पूर्वकालमें मैंने भी वामनरूप धारणकर बलिको वंचित किया था और मोहिनीरूप धारणकर सभी दैत्योंको छला था ॥ 18 - 203 ।।

हे देवताओ। अब आप सब लोग एक साथ | देवी भगवती शिवाकी शरणमें जायें और भावपूर्वकस्तोत्रों और मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करें। वे भगवती योगमाया आपलोगोंकी सहायता करेंगी ॥ 21-22 ॥

हम सभी उन सात्त्विकी, परा प्रकृति, सिद्धिदात्री, कामनास्वरूपिणी, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली और दुराचारियोंके लिये दुर्लभ देवीकी सदा बन्दना करते हैं ॥ 23 ॥

इन्द्र भी उनकी आराधना करके युद्धमें शत्रुको मार डालेंगे। वे मोहिनी महामाया उस दानव वृत्रासुरको मोहित कर देंगी। तब मायासे मोहित वृत्रासुर सुगमतापूर्वक मारा जा सकेगा। उन पराम्बाके प्रसन्न होनेपर सब कुछ साध्य हो जायगा। अन्यथा किसीकी भी कामनाकी पूर्ति नहीं होगी। वे भगवती सबकी अन्तर्यामिस्वरूपिणी और सभी कारणोंकी भी कारण हैं। इसलिये हे श्रेष्ठ देवगण! शत्रुके विनाशके लिये सात्त्विक भावोंसे युक्त होकर उन प्रकृतिस्वरूपा जगज्जननीका परम आदरपूर्वक भजन कीजिये ।। 24 - 27 ॥

पूर्वकालमें मैंने भी पाँच हजार वर्षोंतक अत्यन्त भीषण युद्ध करके मधु-कैटभका वध किया था। उस समय मैंने उन पराप्रकृतिकी स्तुति की थी, तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं। तत्पश्चात् उनके द्वारा मोहित दोनों दैत्योंको मैंने उलपूर्वक मार डाला था। मोहित किये गये विशाल भुजाओंवाले वे दोनों दानव अत्यन्त मदोन्मत्त थे। इसीलिये आपलोग भी उसी प्रकार भावपूर्वक उन पराप्रकृतिका भजन कीजिये। हे देवगण! वे सब प्रकारसे कार्यको सिद्धि करेंगी ॥ 28-306 ॥

इस प्रकार भगवान् विष्णुसे परामर्श प्राप्त करके वे मन्दार वृक्षोंसे सुशोभित सुमेरुपर्वतके शिखरपर चले गये। वे देवता वहाँ एकान्तमें बैठकर ध्यान, जप और तप करके जगत्का सृजन पालन-संहार करनेवाली, भक्तोंके लिये कामधेनुस्वरूपा एवं संसारके क्लेशोंका नाश करनेवाली पराम्बा भगवतीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ 31-33 ॥

देवता बोले- हे देवि! हे दीनोंके कष्ट दूर करनेवाली है परमार्थतत्त्वस्वरूपिणि। हमपर प्रसन्न हों, वृत्रासुरके द्वारा सताये गये, युद्धमें अत्यन्त पीड़ित किये गये तथा आपके चरणकमलकी शरणमें सदासे | पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा कीजिये 34 ॥हे माता! आप समस्त विश्वकी जननी हैं, शत्रुद्वारा उपस्थित किये गये इस संकटमें पड़े हुए हम सबका आप पुत्रोंके समान परिपालन कीजिये। आपसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अज्ञात नहीं है, तो आप असुरोंके द्वारा पीड़ित देवताओंकी उपेक्षा क्यों कर रही हैं? ॥35॥

आपने ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकीकी रचना की है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके ही संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं। आपके भृकुटि विलासमात्रसे वे [सृजन, पालन तथा संहार] समस्त कार्य करते हैं और यथेच्छ विहार करते हैं: वे भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ 36 ॥

हे देवि ! माता प्रत्यक्ष अपराधवाले अपने दुःखी पुत्रोंकी भी कष्टसे सब प्रकारसे रक्षा करती है यह रीति आपके ही द्वारा निर्मित है; तब हे करुणरसकी समुद्रस्वरूपिणि! आप अपने चरणोंकी शरणमें पड़े हुए हम निरपराध देवताओंका पालन क्यों नहीं कर रही हैं ? 37 ॥

हे जननि! यदि आप सोचती हों कि मेरे चरणकमलोंकी आराधनासे राज्य प्राप्त करके देवता मेरी भक्ति छोड़कर वैभव-सुखोंके भोगमें आसक्त हो जायँगे और इन्हें मेरे कृपाकटाक्षकी आवश्यकता नहीं रह जायगी तो ऐसा सामान्यतः होता ही है, फिर भी जन्म देनेवाली माता अपने पुत्रके प्रति ऐसी भावना रखे यह रीति कहीं देखी नहीं गयी ॥ 38 ॥

हे जननि आपका भजन त्यागकर हमलोग जो भोगमें निमग्न हैं- इसमें हमारे चित्तमें अपना दोष नहीं प्रतीत होता; क्योंकि मोहकी रचना आपने ही की है और वह हमलोगोंको मोहित कर देता है। ऐसी परिस्थिति में हे करुणामय स्वभाववाली! आप हमपर दया क्यों नहीं करतीं ? ।। 39 ।।

हे जननि पूर्वकालमें आपने हमलोगोंके कल्याणार्थ सभीके लिये भयकारी महिषरूप धारण करनेवाले बलवान् दैत्यराजका वध किया था। हे | माता। भय प्रदान करनेवाले वृत्रासुरका भी वध आप क्यों नहीं करतीं ? ॥ 40 ॥शुम्भ और उसके बलवान् भाई निशुम्भ-उन दोनों भाइयोंको आपने मार डाला था और उनके अनुचरोंका भी वध कर दिया था। उसी प्रकार हे | दयासे आर्द्रहृदयवाली! अत्यन्त बलशाली, उन्मत्त तथा दुष्ट वृत्रासुरको भी मार डालिये। आप इसे विमोहित कर दें, जिससे यह भी उनकी तरह न हो सके। हे माता! असुरोंके द्वारा अत्यधिक पीड़ित किये गये तथा भयसे व्याकुल हम देवताओंका अब आप ही पालन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें ऐसा कोई नहीं है जो देवताओंका दुःख दूर कर सके और अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण कष्टके समूहको नष्ट कर सके ।। 41-42 ॥

यदि वृत्रासुरपर आपकी अत्यधिक दया हो तो भी आप हमलोगोंके लिये संतापकारक इस दुष्टको शीघ्र ही मार डालिये। हे भवानि ! अपने बाणोंसे इसको पवित्र करती हुई आप पापसे इसका उद्धार कर दीजिये, अन्यथा यह दुष्टबुद्धि वृत्रासुर नरक प्राप्त करेगा ॥ 43 ॥

जिन दानवोंको युद्धमें आपने बाणोंद्वारा मारकर पवित्र बना दिया, वे नन्दनवनको प्राप्त हो गये। हे दयार्द्र स्वभाववाली ! क्या आपने नरकमें गिरनेके भयसे उन शत्रुओंकी रक्षा नहीं की? तो फिर आप वृत्रासुरको क्यों नहीं मारती हैं ॥ 44 ॥

हम यह जानते हैं कि वह आपका सेवक नहीं, शत्रु ही है; क्योंकि वह दुष्ट पापबुद्धि हम सबको सदैव सताया करता है। आपके चरणकमलोंकी भक्तिमें रत हम देवताओंको पीड़ित करनेवाला वह (वृत्रासुर) आपका भक्त कैसे हो सकता है ? ॥ 45 ॥

हे जननि ! हे अम्ब! हम आज आपकी पूजा कैसे करें; क्योंकि पुष्पादि [पूजोपचार] तो आपके द्वारा ही बनाये गये हैं। मन्त्र, हमलोग तथा अन्य सब कुछ आपकी पराशक्तिके ही रूप हैं, अतः हे भवानि ! हम केवल आपके चरणोंकी शरण ले सकते हैं ॥ 46 ॥

वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो भवसागरसे पार उतारनेवाले पोतसदृश आपके चरणकमलका निरन्तर भक्तिभावसे भजन करते हैं और राग, मोह आदि विकारोंसे रहित मोक्षकामी योगी भी मनसे जिसका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ 47 ॥समस्त वेदोंमें पारंगत वे यज्ञकर्ता भी निश्चय ही धन्य हैं, जो हवनके समय देवताओंको तृप्ति देनेवाली स्वाहा और पितरोंको तृप्ति देनेवाली स्वधाके रूपमें आपका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ 48 ॥

आप ही मेधा हैं, आप ही कान्ति हैं, आप ही शान्ति हैं और मनुष्योंका महान् मनोरथ पूर्ण करनेवाली प्रख्यात बुद्धि भी आप ही हैं। समस्त ऐश्वर्यकी रचना करके आप इस त्रिलोकीमें कृपा करके अपनी आराधना करनेवालेको वैभव प्रदान करती रहती हैं ॥ 49 ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर वे भगवती प्रकट हो गयीं। उन्होंने सुन्दर रूप धारण कर रखा था, वे कोमल विग्रहवाली थीं और समस्त आभूषणोंसे सुसज्जित थीं ॥ 50 ॥

वे पाश, अंकुश, वर और अभयमुद्रासे सुशोभित चार भुजाओंसे युक्त थीं, उनकी कमरमें बँधी हुई करधनीके घुँघरू बज रहे थे ॥ 51 ॥ उन कान्तिमयी भगवतीकी ध्वनि कोयलके समान थी, उनके हाथोंके कंकण और चरणोंके नूपुर बज रहे थे। उनके मस्तकपर अर्धचन्द्रसे मण्डित रत्नमुकुट सुशोभित हो रहा था ॥ 52 ॥

वे मन्द मन्द मुसकरा रही थीं, उनका मुख कमलके समान सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे विभूषित थीं तथा पारिजातके पुष्प नालकी भाँति | उनके शरीरकी कान्ति रक्तवर्ण थी ॥ 53 ॥

वे लाल रंगके वस्त्र धारण किये हुए थीं और उनके शरीरपर रक्त चन्दन अनुलिप्त था। करुणारसकी सागर वे भगवती प्रसन्न मुख-मण्डलसे शोभा पा रही थीं। वे समस्त शृंगार-वेषसे विभूषित थीं। वे देवी द्वैतभाव के लिये अरणीस्वरूपा, परा, सब कुछ जाननेवाली, सबकी रचना करनेवाली, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा, सभी वेदान्तोंद्वारा प्रतिपादित और सच्चिदानन्दरूपिणी हैं। उन देवीको अपने सम्मुख स्थित देखकर देवताओंने उन्हें प्रणाम किया। तब उन | प्रणत देवताओंसे भगवती अम्बिकाने कहा-आपलोग मुझे अपना कार्य बतायें ॥ 54- 563 ॥देवता बोले- आप देवताओंके लिये अत्यन्त दुःखदायी इस शत्रु वृत्रासुरको विमोहित कर दीजिये । उसे आप ऐसा विमोहित कर दें, जिससे वह देवताओं पर विश्वास करने लगे और हमारे आयुधमें इतनी शक्ति भर दीजिये, जिससे यह शत्रु मारा जा सके ।। 57-58 ॥

व्यासजी बोले- तब 'तथास्तु' – ऐसा कहकर भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं और देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने भवनोंको चले गये ॥ 59 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना