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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 23 - Skand 9, Adhyay 23

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भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना

श्रीनारायण बोले- हे नारद! तत्त्वज्ञानके पूर्ण विद्वान् शिवजी सम्पूर्ण बातें सुनकर अपने गणों साथ स्वयं संग्राम-भूमिमें गये 1 ॥

शिवजीको देखकर उस शंखचूड़ने तत्काल विमानसे उतरकर परमभक्तिपूर्वक पृथ्वीपर मस्तक टेककर दण्डवत् प्रणाम किया ॥ 2 ॥

उन्हें प्रणाम करके वह बड़े वेगसे रथपर चढ़ गया और शीघ्रतापूर्वक कवच धारणकर उसने अपना दुर्वह धनुष उठा लिया ॥ 3 ॥

हे ब्रह्मन् ! भगवान् शिव तथा दानव शंखचूड़का वह युद्ध पूरे सौ वर्षोंतक होता रहा। वे एक-दूसरेको न तो जीत पाते थे और न एक-दूसरेसे पराजित ही हो रहे थे ll 4 ॥

कभी अपना शस्त्र रखकर भगवान् शिव वृषभपर | विश्राम करने लगते और कभी शस्त्र रखकर दानव शंखचूड़ रथपर ही विश्राम करने लगता था ॥ 5 ॥

असंख्य दानवोंका संहार हुआ। साथ ही रणमें देवपक्षके जो योद्धा मारे गये थे, उन्हें भगवान् शिवने पुनः जीवित कर दिया ॥ 6 ॥ इसी बीच एक परम आतुर बूढ़े ब्राह्मणदेवता रणभूमिमें आकर दानवेन्द्र खड़से कहने लगे ॥

वृद्ध ब्राह्मण बोले- हे राजेन्द्र ! मुझ ब्राह्मणको भिक्षा प्रदान कीजिये। इस समय आप सम्पूर्ण सम्पदाओंको देनेमें समर्थ है, अतः मेरे मनमें जो अभिलषित है, उसे दीजिये। इस समय पहले आप मुझ निरीह, वृद्ध तथा तृषित ब्राह्मणको देनेके लिये सत्यप्रतिज्ञा कीजिये, तब बादमें मैं अपनी अभिलाषा बताऊँगा ॥ 8-9 ॥

इसपर प्रफुल्लित मुख तथा नेत्रोंवाले राजेन्द्र शंखचूड़ने 'हाँ-हाँ, ठीक है' – ऐसा कहा। तत्पश्चात् वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी श्रीहरिने अत्यधिक मायाके साथ कहा 'मैं तुम्हारा कवच चाहता हूँ' ॥ 10 ॥उनकी बात सुनकर शंखचूड़ने कवच दे दिया | और भगवान् श्रीहरिने उसे ले लिया। तत्पश्चात् वे शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मायापूर्वक उस तुलसीमें अपने तेजका आधान किया ॥ 11 ॥

उसी समय शंकरजीने श्रीहरिका दिया हुआ त्रिशूल शंखचूड़पर चलानेके लिये हाथमें ले लिया। वह त्रिशूल ग्रीष्म ऋतुमें मध्याह्नकालीन सूर्य और प्रलयाग्निकी शिखाके समान तेजवान् था, किसीसे भी रोका न जा सकनेवाला, प्रचण्ड, अव्यर्थ तथा शत्रुघाती वह त्रिशूल तेजमें भगवान् विष्णुके चक्रके समान था, वह सभी शस्त्रास्त्रोंका सारस्वरूप था, वह भयंकर त्रिशूल शिव तथा केशवके अतिरिक्त अन्य लोगोंके लिये दुर्वह तथा भयंकर था। वह लम्बाई में हजार धनुषके बराबर तथा चौड़ाईमें सौ हाथकी मापवाला था, वह त्रिशूल साक्षात् सजीव ब्रह्मस्वरूप ही था, वह नित्यस्वरूप था, उसे सभी लोग देख नहीं सकते थे । ll 12 - 15 ॥

हे नारद! भगवान् शंकरने सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका संहार करने में समर्थ उस त्रिशूलको अपनी लीलासे हाथपर सँभालकर शंखचूड़पर फेंक दिया ॥ 16 ॥

[तब सभी रहस्य समझकर] राजा शंखचूड़ अपना धनुष त्यागकर तथा बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्तिके साथ श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान करने लगा ॥ 17 ॥

वह त्रिशूल कुछ समयतक चक्कर काटकर दानव शंखचूड़के ऊपर जा गिरा। उस त्रिशूलने रथसमेत शंखचूड़को लीलापूर्वक जलाकर भस्म कर दिया ॥ 18 ॥

तदनन्तर शंखचूड़ने किशोर अवस्था तथा दिव्य रूपवाले एक गोपका वेष धारण कर लिया। वह दो भुजाओंसे सुशोभित था, उसके हाथमें मुरली थी तथा वह रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत था। वह उसी समय गोलोकसे आये हुए तथा करोड़ों गोपोंसे घिरे हुए एक सर्वोत्तम रत्ननिर्मित विमानपर आरूढ़ होकर गोलोक चला गया । 19-20 ॥हे मुने। वहाँ पहुँचकर उसने वहाँके वृन्दावनमें रासमण्डलके मध्य विराजमान श्रीकृष्ण और राधाके चरणकमलमें भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ 21 ॥

उस सुदामागोपको देखकर उन दोनोंके मुख तथा नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे और उन्होंने अत्यन्त प्रेमके साथ उसे अपनी गोदमें बैठा लिया ॥ 22 ॥ तदनन्तर वह त्रिशूल वेगपूर्वक आदरके साथ श्रीकृष्णके पास लौट आया। शंखचूड़की हड्डियोंसे शंखजातिको उत्पत्ति हुई। वही शंख अनेक प्रकारके रूपोंमें निरन्तर विराजमान होकर देवताओंकी पूजामें पवित्र माना जाता है। अत्यन्त प्रशस्त, पवित्र तथा तीर्थजलस्वरूप शंखजल केवल शंकरजीको छोड़कर अन्य देवताओंके लिये परम प्रीतिदायक है। जहाँ शंखकी ध्वनि होती है, वहाँ लक्ष्मीजी स्थिररूपसे सदा विराजमान रहती हैं ।। 23-25 ॥

जो शंखके जलसे स्नान कर लेता है, उसने मानो समस्त तीर्थोंमें स्नान कर लिया। शंख भगवान् श्रीहरिका अधिष्ठानस्वरूप है जहाँ शंख रहता है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं, वहींपर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं तथा उस स्थानसे सारा अमंगल दूर भाग जाता है, किंतु स्त्रियों और विशेषरूपसे शूद्रोंके द्वारा की गयी शंखध्वनियोंसे भयभीत तथा रुष्ट होकर लक्ष्मीजी उस स्थानसे अन्य देशको चली जाती हैं ॥ 26-27 ॥

दानव शंखचूड़को मारकर शिवजी भी वृषभपर सवार होकर अपने गणक साथ प्रसन्नतापूर्वक शिवलोक चले गये। देवताओंने अपना राज्य प्राप्त कर लिया और वे परम आनन्दित हो गये। स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व तथा किन्नर गाने लगे, भगवान् शिवके ऊपर निरन्तर पुष्प वृष्टि होने लगी और देवता तथा श्रेष्ठ मुनीश्वर आदि उन शिवजीकी प्रशंसा करने लगे ॥ 28-30 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन