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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 9 - Skand 11, Adhyay 9

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भस्म - धारण ( शिरोव्रत )

श्रीनारायण बोले- जो द्विजातिगण शिरोव्रत (मस्तकपर भस्म धारण करनेके नियम ) - का पालन करते हैं, उन्हींको अज्ञानको नष्ट करनेवाली पराविद्याके विषयमें बताना चाहिये ॥ 1 ॥

जो लोग भलीभाँति श्रद्धापूर्वक शिरोव्रतका पालन नहीं करते, उनके लिये श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें प्रतिपादित सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है ॥ 2 ॥हे विद्वन्! ब्रह्मा आदि देवता शिरोव्रतके सदाचारसे ही देवत्वको प्राप्त हुए हैं; इसमें कोई अन्य हेतु नहीं था ॥ 3 ॥

प्राचीन कालके महर्षियोंने शिरोव्रतका माहात्म्य प्रतिपादित किया है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा समस्त देवता भी भस्म धारण करते थे ॥ 4 ॥ जो मनुष्य विधिपूर्वक इस शिरोतका अनुष्ठान करता है, वह सभी प्रकारके पातकोंसे युक्त होनेपर भी उन सभी पातकोंसे मुक्त हो जाता है-विद्वानोंने ऐसा कहा है ll 5 ll

अथर्ववेदके शिरोभागमें इस व्रतका उल्लेख होनेसे यह शिरोव्रत नामवाला है। इसके विषयमें जो वर्णन वहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। यह पुण्य से ही प्राप्त होता है ॥ 6 ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! विभिन्न शाखाओंमें इस व्रतके भिन्न-भिन्न नाम कहे गये हैं, किंतु नामभेद होनेपर भी यही एक व्रत सभी शाखाओंमें वर्णित है ॥ 7 ॥ सभी शाखाओंमें मात्र एक शिव नामक सत् चित्-घनरूपवाला पदार्थ है और इस पदार्थ (तत्त्व) का ज्ञान तथा शिरोव्रत भी वैसा ही है ॥ 8 ॥

सभी प्रकारकी विद्याओंमें पारंगत होनेपर भी यदि कोई मनुष्य शिरोव्रतसे विहीन है, तो वह सभी धर्मोसे विहीन है; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ 9 ॥

यह शिरोव्रत पापरूपी वनको दग्ध करनेवाला तथा समस्त विद्याओंका साधन है, अतः इसका सम्यक् पालन करना चाहिये ॥ 10 ॥

आथर्वण श्रुति अत्यन्त सूक्ष्म है तथा सूक्ष्म अर्थका प्रकाशन करनेवाली है। उसमें इस शिरोव्रतके विषयमें जो कहा गया है, उसका भलीभाँति प्रेमपूर्वक नित्य आचरण करना चाहिये ॥ 11 ॥

'अग्निरिति भस्म' आदि इन छः आथर्वण मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए शरीरके सभी अंगोंमें शुद्ध भस्म लगाना चाहिये, यह शिरोव्रत कहा गया है ॥ 12 ॥

सभी सन्ध्याकालोंमें इस शिरोव्रतको तबतक करना चाहिये, जबतक ब्रह्मविद्याका उदय न हो। | उसकी विद्या उत्तम है ॥ 13 ॥बारह वर्षतक या एक वर्षतक या छः मासतक या तीन मासतक अथवा कम-से-कम बारह दिनोंतक संकल्पके साथ इस शिरोव्रतका पालन करना चाहिये ॥ 14 ॥

शिरोव्रतके स्नातकको जो गुरु ब्रह्मविद्याका उपदेश नहीं देता, वह अत्यन्त निर्दयी होता है और उसकी विद्याका नाश हो जाता है ॥ 15 ॥

जिस प्रकार भगवान् सर्वेश्वर कोमलचित्त तथा परम कारुणिक होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेवाला गुरु भी साक्षात् मुनि तथा दयावान् होता है ॥ 16 ॥

जो मनुष्य हजारों जन्म-जन्मान्तरोंमें निरन्तर धर्माचरण करते रहते हैं, उन्होंके हृदयमें शिरोव्रतके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, दूसरोंके हृदयमें कभी भी नहीं; अपितु उनके हृदयमें अज्ञानकी अधिकताके कारण विद्वेष उत्पन्न होता है। अतएव विद्वेषभावनासे युक्त मनुष्यको आत्मबोध नहीं हो पाता ॥ 17-18 ॥

हे विद्वन्! ब्रह्मविद्याके उपदेशके सच्चे अधिकारी वे ही हैं जो शिरोव्रतमें स्नातक हो चुके हैं, अन्य लोग नहीं ॥ 19 ll

जिन द्विजोंने आदरपूर्वक इस पाशुपत शिरोव्रतका अनुष्ठान किया है, उन्हींको ब्रह्मविद्याका उपदेश करना चाहिये- ऐसा वेदोंका आदेश है॥ 20 ll

देहाभिमानी पशुतुल्य पशुतुल्य प्राणियोंको इस शिरोव्रतके पालनसे अपने पशुत्वका नाश करना चाहिये। वेदान्तशास्त्रका ऐसा निश्चय है कि इस व्रतके द्वारा पशुत्वनाशसे कोई हिंसाजन्य पाप भी नहीं होता ॥ 21 ॥

जाबालश्रुतिके अवलम्बियोंद्वारा आदरपूर्वक त्रिपुण्ड धारणका विधान बताया गया है। गृहस्थाश्रमका आचरण करनेवालेको त्रियम्बक मन्त्र अथवा तारकमन्त्र (ॐ) के साथ 'नमः शिवाय' मन्त्रका उच्चारण करके प्रतिदिन आदरपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। संन्यासीको ॐ कारके साथ हंसमन्त्रका तीन बार उच्चारण करके प्रतिदिन त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये- ऐसा जाबालोपनिषद्का कथन है। गृहस्थ तथा वानप्रस्थको त्रियम्बक मन्त्रसे अथवाप्रणवसहित पंचाक्षरमन्त्रसे त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालेको 'मेधावी0' इत्यादि मन्त्रसे प्रतिदिन त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 22-25 ॥

भस्ममें जल मिलाकर त्रिपुण्ड्र धारण करना | चाहिये। विधिपूर्वक त्रिपुण्ड्र भस्म लगानेसे ही ब्राह्मणका ब्राह्मणत्व प्रकट होता है। अतः उसे प्रतिदिन तिरछी रेखाओंवाला त्रिपुण्ड्र अपने ललाटपर धारण करना चाहिये। (शिवजीद्वारा अपने शरीरमें भस्म धारण करनेके कारण उनके अनुयायियोंको भी भस्म धारण करना युक्तियुक्त है ) । ब्राह्मणको प्रतिदिन त्रिपुण्ड्रधारणव्रतका विधिपूर्वक पालन करना चाहिये। आदिब्राह्मणस्वरूप ब्रह्माजीने भी भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण किया था, अतः ब्राह्मणको सदा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 26-28 ॥

वेदप्रतिपादित भस्मसे शरीरमें अनुलेपन करना चाहिये तथा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये और नित्य शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये, भूलकर परित्याग नहीं करना चाहिये ॥ 29 ॥

हे महामुने! संन्यास आश्रममें स्थित व्यक्तिको तारक मन्त्रके साथ त्रियम्बकमन्त्र और प्रणव (ॐ) के साथ पंचाक्षरमन्त्रका उच्चारण करते हुए अपने ललाट, हृदयदेश तथा दोनों भुजदण्डोंपर नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 30-31 ॥

ब्रह्मचारीको त्र्यायुषमन्त्रसे अथवा मेधावी0 इत्यादि मन्त्रसे गौण भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। निरन्तर सेवाकार्यमें तत्पर शूद्रको 'शिवाय नमः' मन्त्रसे श्रद्धापूर्वक अपने पूरे शरीरमें भस्म लगाना चाहिये तथा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। हे मुने! हे सुव्रत इसी प्रकार अन्य सभी लोगोंको भी बिना मन्त्रका उच्चारण किये ही अपने शरीरमें भक्तिपूर्वक भस्म लगाना चाहिये तथा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 32-34॥

सम्पूर्ण शरीरमें भस्म लगाना तथा मस्तकपर तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करना सभी धर्मोंमें श्रेष्ठ है। अतः उसका प्रतिदिन पालन करना चाहिये ॥ 35 ॥अग्निहोत्रजन्य भस्म तथा विरजाग्निजन्य भस्मको अत्यन्त आदरपूर्वक लेकर उसे किसी शुद्ध पात्रमें रखकर पुनः दोनों हाथ तथा पैर धोकर दो बार आचमन करके हाथमें भस्म लेकर एकाग्रचित्त हो धीरे-धीरे पाँच ब्रह्ममन्त्रों (सद्योजातं प्रपद्यामि आदि) - का उच्चारण करना चाहिये। तत्पश्चात् तीन बार प्राणायाम करके 'अग्निरिति भस्म' आदि [छः आथर्वण मन्त्रों तथा बृहज्जाबालोपनिषद्के तेजो भस्मेति ] कुल सात मन्त्रोंसे उसे तीन बार अभिमन्त्रित करना चाहिये। तदनन्तर 'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतम्' ऐसा उच्चारण करके शिवजीका ध्यानकर उन सात मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये। इस श्वेत भस्मको पूरे शरीरमें लगाकर मनुष्य पापसे रहित तथा विशुद्ध हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ।। 36-393 ॥

तत्पश्चात् जगत्के स्वामी जलाधिपति महाविष्णुका ध्यान करके भस्ममें जल मिलाकर पुनः 'अग्निरिति' आदि मन्त्रोंके द्वारा उसका संस्कार करके साम्ब सदाशिवका ध्यानकर उस भस्मको ऊर्ध्व मस्तकपर लगा लेना चाहिये। उस भस्ममें शिवजीकी भावना करके सभी आश्रमोंके लोगोंको अपने-अपने आश्रमके लिये विहित मन्त्रोंका उच्चारणकर ललाटपर, वक्षःस्थलपर तथा कन्धेपर उस ब्रह्मस्वरूप श्वेत भस्मसे मध्यमा अनामिका तथा अँगूठेसे अनुलोम-विलोमक्रमसे प्रतिदिन तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) में भक्तिपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 40 - 43 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग