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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 12 - Skand 11, Adhyay 12

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भस्म न धारण करनेपर दोष

श्रीनारायण बोले- हे देवर्षे! अब रहस्य तथा विधानके साथ भस्म लगानेसे प्राप्त होनेवाले | समस्त फलके विषयमें सुनिये। यह भस्मोद्धलन सभी कामनाओंको सफल करनेवाला है ॥ 1 ॥

कपिला गायका स्वच्छ गोमय भूमिपर गिरनेके पूर्व ही हाथोंसे ग्रहण कर ले। वह न गीला हो, न कठोर हो, न दुर्गन्धयुक्त हो और न बासी हो। यदि गोबर पृथ्वीपर गिर पड़ा हो तो ऊपर तथा नीचेका भाग छोड़कर बीचका अंश लेना चाहिये। तत्पश्चात् उसे पिण्डके आकारका बनाकर मूलमन्त्रसे अभिमन्त्रित करके शिवाग्निमें डाल देना चाहिये ॥ 2-3 ॥

जल जानेपर भस्मको निकालकर तथा उसे किसी शुद्ध वस्त्रसे छानकर एक सुन्दर, पवित्र, सुदृढ़, स्वच्छ, सम्यक् प्रक्षालित किये गये तथा प्रोक्षित भस्मपात्रमें रख ले। मन्त्रवेत्ताको चाहिये कि मूलमन्त्रका उच्चारण करके ही भस्मको पात्रमें रखे। भस्म रखनेके लिये किसी धातु (सोना, ताँबा आदि), काष्ठ, मिट्टी, वस्त्र अथवा किसी अन्य सुन्दर तथा शुद्ध पदार्थका भस्मपात्र बनाना चाहिये। अथवा किसी अति शुद्ध रेशमी वस्त्रसे बने पात्रमें धनकी | तरह भस्मको सुरक्षित रखना चाहिये ll 4- 6 ॥कहीं प्रस्थान करते समय भस्मपात्र या तो स्वयं लिये रहे अथवा साथ चलनेवाला अनुचर (सेवक) इसे लिये रहे। इसे न किसी अयोग्य व्यक्तिके हाथमें दे और न तो किसी अपवित्र स्थानपर ही रखे ॥ 7 ॥

शरीरके नीचेके अंग (पैर आदि ) से भस्मको न तो स्पर्श करे, न तो उसे फेंके और न तो लाँघे | उस पात्रसे भस्म निकालकर अभिमन्त्रित करनेके बाद ही उसे धारण करना चाहिये ॥ 8 ॥

विभूतिधारणकी जो विधि स्मृतिग्रन्थोंमें बतायी गयी है, मैंने उसीका वर्णन किया है। जिसके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्य शिवतुल्य हो जाता सन्देह नहीं है ॥ 9 ॥ इसमें भगवान् शिवकी सन्निधिमें वैदिक शिवभक्तोंद्वारा बनाये गये भस्मको ही परम श्रद्धाके साथ ग्रहण करना चाहिये और उसे माँगकर उसकी पूजा करनी चाहिये। तन्त्रशास्त्रमें कही गयी विधिसे तान्त्रिक पूजकोंद्वारा | निर्मित किया गया भस्म तान्त्रिकोंके लिये ग्राह्य है, वैदिकोंके लिये नहीं। वैदिकोंको चाहिये कि वे शूद्रों, | कापालिकों तथा पाखण्डियोंद्वारा ग्राह्य तथा जिस किसीको भी दिये जानेवाले भस्मको ग्रहण न करें। | सभीको अत्यन्त श्रद्धापूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये और मनसे भी भस्मका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। श्रुतिके द्वारा इसका विधान किया गया है, अतः भस्मका त्याग करनेवाला पतित हो जाता है। द्विजको भक्तिपूर्वक मन्त्रोच्चारणके साथ त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये तथा शरीरपर भस्मका अनुलेपन करना चाहिये। इसका परित्याग करनेवालेका पतन हो जाता है ।। 10-133 ॥

जो लोग भक्तिपूर्वक सभी अंगोंमें भस्म नहीं | लगाते तथा त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते, करोड़ों जन्मों में भी इस संसारसे उनकी मुक्ति नहीं हो सकती ॥ 143 ॥

हे मुनिवर ! जिस मनुष्यने विहित मार्गसे भस्म धारण नहीं किया; हे मुने! आप उसके जन्मको सूअरके जन्मकी भाँति निरर्थक समझिये ॥ 153 ॥

जिन मनुष्योंका शरीर बिना त्रिपुण्ड्रके रहता है, उनका शरीर श्मशानके तुल्य होता है, पुण्यात्मा व्यक्तियोंको ऐसे शरीरपर दृष्टितक नहीं डालनी चाहिये ॥ 163 ॥भस्मरहित मस्तकको धिक्कार है, शिवालयविहीन ग्रामको धिक्कार है, शिव-अर्चनसे विमुख व्यक्तिके - जन्मको धिक्कार है तथा शिवका आश्रय प्रदान न करानेवाली विद्याको धिक्कार है ।। 173 ॥

जो लोग त्रिपुण्ड़की निन्दा करते हैं, वे वस्तुतः शिवकी ही निन्दा करते हैं और जो लोग भक्तिपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करते हैं, वे मानो साक्षात् शिवजीको ही धारण करते हैं ।। 183 ॥

जिस तरह अग्निहोत्र किये बिना ब्राह्मण सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार भस्मरहित होकर किया गया शिवार्चन शोभा नहीं देता, चाहे वह सभी पूजनोपचारोंके साथ ही क्यों न किया गया हो ॥ 19 ॥

जो लोग श्रद्धापूर्वक अपने सर्वागमें भस्म नहीं लगाते तथा त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते, उनके द्वारा पूर्वमें किया गया समस्त सत्कर्म भी विपरीत हो जाता है ॥ 203 ॥

वेदमन्त्रके साथ ही भस्मसे त्रिपुण्ड धारण करना चाहिये। वेदोचित आचारके बिना त्रिपुण्ड धारण करना स्मार्तोंके लिये अनर्थकारी होता है ॥ 213 ॥ जो त्रिपुण्ड धारण नहीं करता, उसके द्वारा किया गया कृत्य न किये हुएके समान, सुना गया • वेदवचन न सुने हुएके समान तथा अधीत शास्त्र अध्ययन न किये हुएके समान हो जाता है ॥ 223 ॥

जो त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता उसके यज्ञ, दान, वेदाध्ययन, तपश्चरण, व्रत तथा उपवास- ये सभी व्यर्थ हो जाते हैं॥ 233 ॥

जो मनुष्य भस्मधारणका त्याग करके मुक्तिकी अभिलाषा रखता है, वह मानो विषपान करके अपनेको अमर करना चाहता है ॥ 243 ॥ सृष्टिकर्ताने मस्तककी सृष्टिके बहाने ही

त्रिपुण्ड्र धारण करना बतला दिया है; इसीलिये उन्होंने मस्तकको तिरछा तथा ऊँचा बनाया है, गोल नहीं ॥ 256 ॥

सभी देहधारियोंके ललाटपर तिरछी रेखाएँ स्पष्ट रूपसे दिखायी पड़ती हैं, फिर भी मूर्ख मनुष्य त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करते ॥ 263 ॥ब्राह्मण बिना तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण किये जो कुछ भी अनुष्ठान करता है, वह न तो ध्यान है, न तो मोक्ष है, न तो ज्ञान है और न तप ही है ॥ 273 ॥

जिस तरह शुद्र वेदके अध्ययनका अधिकारी नहीं है, उसी प्रकार बिना त्रिपुण्ड्र धारण किये ब्राह्मण शिवकी पूजाका अधिकारी नहीं है॥ 283 ॥

पूर्व दिशाकी ओर मुख करके पूर्ववत् हाथ-पैर धोकर आचमन करके प्राणायाम करनेके अनन्तर संकल्प करके भस्म-स्नान करना चाहिये ॥ 293 ॥

अग्निहोत्रजन्य शुद्ध भस्म लेकर ईशान मन्त्रसे अपने मस्तकपर भस्म धारण करना चाहिये। इसके बाद उस भस्मको लेकर तत्पुरुष मन्त्रसे मुखपर, अघोर मन्त्रसे हृदयपर, वामदेव मन्त्रसे गुह्यस्थलपर तथा सद्योजात मन्त्रसे दोनों पैरोंपर भस्म लगाना चाहिये। तत्पश्चात् प्रणव मन्त्रसे शरीरके सभी अंगोंमें भस्म लगाना चाहिये। महर्षियोंके द्वारा इसे आग्नेय स्नान कहा गया है। बुद्धिमान् व्यक्तिको अपने सभी कर्मोकी समृद्धिके लिये यह आग्नेयस्नान सबसे पहले करना चाहिये ॥ 30 - 333 ॥

तदनन्तर हाथ-पैर धोकर यथाविधि आचमन करके विधिपूर्वक 'सद्योजात' आदि पंच ब्रह्ममन्त्रोंका उच्चारण करके निर्मित भस्मसे ललाट, हृदयदेश तथा गलेमें तिरछा त्रिपुण्ड्र धारण करे। इस प्रकार धारण किया गया यह त्रिपुण्ड्र सभी कर्मोंमें पवित्रता प्रदान करनेवाला होता है। शूद्रोंको अन्त्यजोंके हाथका भस्म कभी नहीं लगाना चाहिये। अग्निहोत्र-जन्य भस्म लगाकर ही कोई शुभ कर्म करना चाहिये; अन्यथा किये गये सभी कर्म कभी भी फलीभूत नहीं होते ॥ 34-37॥

जो व्यक्ति त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता; उसका सत्य, शौच, जप, होम, तीर्थ तथा देवपूजन आदि यह सब व्यर्थ हो जाता है ॥ 38 ॥

जो विप्रश्रेष्ठ शुद्ध मनसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है तथा रुद्राक्ष पहनता है; वह रोग, पाप, व्याधि, दुर्भिक्ष तथा चोर आदिको विनष्ट कर देता है। वह परब्रहाका सांनिध्य प्राप्त कर लेता है, जहाँसे पुनः लौटकर नहीं आता। वह श्राद्धमें पंतिपावन ब्राह्मण माना जाता है तथा ब्राह्मणों और देवताओंद्वारा भी पूजित होता है ।। 39-40 ।।श्राद्ध, यज्ञ, जप, होम, वैश्वदेव तथा देवताओंके पूजन आदिमें जो त्रिपुण्ड्र धारण किये रहता है, वह पवित्र आत्मावाला मनुष्य मृत्युको भी जीत लेता है। अब मैं भस्म धारण करनेका और भी माहात्म्य आपसे कह रहा हूँ ॥ 41 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग