श्रीनारायण बोले- द्विजोंको 'अग्निरिति भस्म' आदि मन्त्रोंसे भस्मको श्रद्धापूर्वक शुद्ध करके अपने | ललाट आदिपर त्रिपुण्ड्ररूपमें धारण करना चाहिये ॥ 1 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य - ये सब द्विज कहे गये हैं। अतः द्विजोंको प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक त्रिपुण्ड् धारण करना चाहिये ॥ 2 ॥
हे ब्रह्मन् ! जिसका उपनयन हो गया है, उसीको द्विज कहा जाता है। अतः द्विजोंको श्रुतिविहित त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 3 ॥
जो मनुष्य भस्म - धारणका त्याग करके कुछ भी सत्कृत्य करता है, उसका सब किया हुआ न कियेके बराबर हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 4 ॥
बिना भस्म धारण किये गायत्रीमन्त्रका उपदेश सार्थक नहीं होता है, अतः अपने शरीरमें भस्म लगाकर ही गायत्रीजप करना चाहिये ॥ 5 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! गायत्रीको ही ब्राह्मणत्वका मूल कहा गया है। भस्म धारण न करनेपर कोई भी उस गायत्रीका उपदेश देनेका अधिकारी नहीं हो सकता है ॥ 6 ॥
हे मुने! उसी प्रकार जबतक अग्निहोत्रजनित भस्म ललाट आदि अंगोंमें धारण नहीं किया जाता, तबतक किसीको भी गायत्रीमन्त्र लेनेका अधिकार नहीं होता ॥ 7 ॥
किसीके भस्मरहित ललाटसे उसके ब्राह्मणत्वका अनुमान नहीं किया जा सकता है; इसीलिये हे ब्रह्मन्। मैंने भस्मको अत्यन्त पुण्यदायक हेतु बतलाया है ॥ 8 ॥
जिसके ललाटपर मन्त्रसे पवित्र किया गया श्वेत भस्म विद्यमान रहता है, वस्तुतः वही विद्वान् ब्राह्मण है; ऐसा मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ 9 ॥
हे ब्रह्मन् ! मणिसंग्रह करनेकी भाँति भस्मसंग्रह करनेमें जिसकी स्वाभाविक प्रीति रहती है, वस्तुतः | वही ब्राह्मण है; ऐसा मैं सत्य कह रहा है, किंतुमणिसंग्रह करनेकी भाँति भस्मसंग्रह करनेमें जिसकी स्वाभाविक प्रीति न हो तो ऐसा जान लेना चाहिये कि वह जन्म-जन्मान्तरमें निश्चित ही चाण्डाल रहा होगा ll 10-11 ॥
त्रिपुण्डधारण तथा भस्मोद्धलन आदिमें जिसकी सहज निष्ठा नहीं होती, उसे चाण्डाल समझना चाहिये, ऐसा मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ 12 ॥
जो लोग भस्म धारणका त्याग करके फल आदिका भक्षण करते हैं, वे सब घोर नरकको प्राप्त होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है (विभूति धारणका त्याग करके जो शिवकी पूजा करता है, वह भाग्यहीन शिवसे द्वेष करनेवाला होता है और वह द्वेष उसके लिये नरकप्रदायक होता है। भस्म न धारण करनेवाला मनुष्य सभी प्रकारके कमका अनधिकारी होता है।) विभूतिधारणका त्याग करके स्वर्णका तुलादान करनेवाला भी उस दानका फल प्राप्त नहीं कर पाता और वह अपने धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है ।। 13-14 ॥
जिस प्रकार यज्ञोपवीतसे विहीन द्विज सन्ध्या नहीं करते, उसी प्रकार भस्मविहीन रहनेपर भी द्विजोंको सन्ध्या नहीं करनी चाहिये ॥ 15 ॥
यज्ञोपवीतके च्युत हो जानेपर सन्ध्यामें गायत्री जप आदि करनेके लिये तथा उसी प्रकार व्रत-उपवास आदिमें किसीको प्रतिनिधिके रूपमें नियुक्त किया जा सकता है, किंतु विभूतिधारणमें कोई दूसरा व्यक्ति प्रतिनिधिके रूपमें नहीं हो सकता। यदि विभूतिधारणका परित्याग करके कोई द्विज सन्ध्या करता है तो वह पापका भागी होता है; क्योंकि वह उस समय सन्ध्या करनेका अधिकारी ही नहीं है जैसे अन्त्यजको वेदोंका श्रवण करनेसे पाप लगता है, उसी प्रकार भस्म न लगाकर सन्ध्या करनेवाले द्विजको भी पाप लगता है इसमें सन्देह नहीं है ।। 16-183 ॥
द्विजोंको सदैव यत्नपूर्वक श्रौताग्निजन्य या स्मार्ताग्निजन्य भस्म अथवा उनके अभाव में लौकिकाग्निजन्य भरम ही अत्यन्त समाहितचित्त होकर धारण करना चाहिये। भस्म चाहे जैसा हो, वह सदा पवित्र होता है। अतः दिजोंको चाहिये किवे सन्ध्या आदि कर्मोंमें उसे प्रयत्नके साथ धारण करें। भस्मनिष्ठ मनुष्यमें पाप प्रविष्ट नहीं हो सकते, अतः ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक सदा भस्म धारण किये रहना चाहिये ॥ 19-213 ॥
यदि कोई अपने दाहिने हाथकी तीनों मध्यकी अँगुलियों (तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका) से छः अंगुलतक अथवा इससे भी अधिक लम्बे परिमाणका | अथवा एक नेत्रसे लेकर दूसरे नेत्रतक लम्बा देदीप्यमान | त्रिपुण्ड भस्मसे अपने ललाटपर लगाये तो वह साक्षात् रुद्ररूप हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है अनामिका 1 अँगुलीको अकार, मध्यमाको उकार तथा तर्जनीको मकार कहा गया है। अतएव त्रिपुण्ड्र त्रिगुणात्मक है। तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका अँगुलियोंसे अनुलोमक्रमसे त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ 22-25 ॥
इस सम्बन्धमें आपसे एक प्राचीन इतिहासका वर्णन कर रहा हूँ। किसी समय तपस्वियोंके शिरोमणि ऋषि दुर्वासा अपने सर्वागमें भस्म धारण किये हुए तथा रुद्राक्षके आभूषण पहने हुए 'हे शिव! हे शंकर! हे सर्वात्मन्! हे श्रीमातः ! हे जगदम्बिके!'- इन नामोंका उच्च स्वरसे उच्चारण करते हुए पितृलोक गये हुए थे । 26-273 ॥
उन्हें देखकर कव्यवाट् (अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्वात्ता, बर्हिषद्, सोमपा) आदि पितरोंने उठकर अभिवादनके द्वारा तथा आसन आदि उपचारोंसे उनका अत्यधिक सम्मान किया। तब वे अनेक प्रकारकी कथाओंके माध्यमसे परस्पर वार्तालाप करने लगे ॥ 28-29 ॥
उसी समय कुम्भीपाकनरकमें पड़े हुए पापियोंका भयंकर चीत्कार हुआ। 'हाय! हमलोग मारे जा रहे हैं'-वे ऐसा बोल रहे थे। उनमें कुछ चिल्ला रहे थे 'हम मर गये', दूसरे कह रहे थे 'हम जल गये', कुछ चीत्कार कर रहे थे 'हम कट गये' तथा कुछ चिल्ला रहे थे 'हम छेदे जा रहे हैं'- इस प्रकार कहकर वे रुदन कर रहे थे ॥ 30-31 ॥
वह करुण - क्रन्दन सुनकर मुनिराज दुर्वासाके | मनमें बड़ी व्यथा हुई और उन्होंने उन पितृदेवोंसे पूछा कि यह किन लोगोंको ध्वनि है ? ॥ 32 ॥तब उन पितृदेवोंने कहा- हे मुने! यहींपर संयमनी नामक एक विशाल पुरी है। यहाँ पापियोंको उनके कर्मोंका भोग प्रदान करनेवाले यमराज रहते हैं ॥ 33 ॥
हे अनघ ! साक्षात् कालरूप तथा कृष्णवर्णवाले अनेक भयानक दूतोंके साथ यमराज उस पुरीमें स्वामीके रूपमें निवास करते हैं ॥ 34 ॥
उस पुरीमें पापियोंको उनके कुकर्मका भोग प्रदान करनेवाले छियासी कुण्ड हैं, जो भयंकर रूपवाले दूतोंसे सदा घिरे रहते हैं ॥ 35 ll
उनमें सबसे मुख्य कुम्भीपाक नामक एक विशाल कुण्ड है। उस नरककुण्डमें मिलनेवाली यातनाओंका वर्णन कोई भी सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं कर सकता ॥ 363 ॥ हे मुने! जो शिव तथा विष्णुके द्रोही हैं और देवीके निन्दक हैं, वे लोग इसी कुण्डमें गिरते हैं ॥ 373 ॥ जो वेदके निन्दक हैं एवं सूर्य, गणेश तथा ब्राह्मणोंके द्रोही हैं, हे मुने! वे लोग इसी कुण्डमें गिरते ।। 383 ॥ जो लोग स्वेच्छाचारी हैं तथा जो तप्तमुद्रासे अंकित हैं तथा जो त्रिशूल धारण करते हैं, हे मुने ! वे इसी 'कुम्भीपाक' नरककुण्डमें गिरते हैं ॥ 393 ॥
जो लोग माता, पिता, गुरु, श्रेष्ठजनों, पुराणों तथा स्मृतियोंके निन्दक हैं और धर्मको दूषित करनेवाले हैं, हे मुने! वे लोग इसी कुण्डमें पड़ते हैं ॥ 403 ॥ [हे मुने!] सुननेमें अत्यन्त दारुण तथा महाभयानक यह ध्वनि उन्हीं लोगोंकी है। हमलोग यह ध्वनि नित्य सुनते रहते हैं, जिसके सुननेसे वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ॥ 41 ॥
उन पितृगणोंकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उन पापियोंको देखनेकी इच्छासे वहाँसे उठकर चल दिये और शीघ्र ही कुम्भीपाक नरककुण्डके पास पहुँच गये ॥423॥
[ श्रीनारायण कहते हैं- ] हे मुने! मुख झुकाकर जब दुर्वासामुनि नीचेकी ओर देखने लगे, उसी समय उस कुण्डमें स्थित पापियोंको स्वर्गसे भी | अधिक सुखका अनुभव होने लगा ॥ 433 ॥उनमेंसे कुछ हँसने लगे, कुछ गाने लगे तथा कुछ नाचने लगे। सुख-वृद्धिके कारण उन्मत्त होकर वे परस्पर क्रीडा करने लगे ॥ 443 ॥
मृदंग, मुरज, वीणा, ढक्का तथा दुन्दुभिकी कोयलसदृश पंचम स्वरसे युक्त मधुर ध्वनियाँ उत्पन्न होने लगीं और वासन्ती लताके पुष्पोंके सम्पर्कसे सुगन्धित हवाएँ बहने लगीं ॥ 45-46 ॥
यह देखकर मुनि दुर्वासा आश्चर्यचकित हो गये और यमदूत भी अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये। वे यमदूत सर्वज्ञ धर्मराजके पास शीघ्र पहुँचकर उनसे कहने लगे - हे महाराज ! हे विभो ! अभी-अभी एक अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटी है। कुम्भीपाकमें स्थित पापियोंको स्वर्गसे भी अधिक सुख प्राप्त हो रहा है। हे विभो ! यह कैसे हो गया, इसका कारण हम नहीं जानते। हे देव! इस घटनासे हम सभी लोग चकित हैं और आपके पास आये हुए हैं ।। 47-49 ।।
दूतोंकी वह बात सुनकर धर्मराज शीघ्र ही उठ खड़े हुए और एक विशाल महिषपर आरूढ होकर उस कुम्भीपाक नरककुण्डके लिये प्रस्थित हुए, वे पापी पड़े हुए थे ॥ 50 जहाँ उन्होंने अपने दूतोंद्वारा वह सन्देश अमरावती (इन्द्रपुरी) - में भेज दिया। उस सन्देशको सुनकर देवराज इन्द्र भी देवताओंके साथ वहाँ आ गये। इसी प्रकार ब्रह्मलोकसे ब्रह्मा, वैकुण्ठलोकसे विष्णु तथा अपने-अपने लोकोंसे समस्त दिक्पाल अपने गणों सहित वहाँ आ गये ॥ 51-52॥
वे सभी कुम्भीपाकको इधर-उधरसे घेरकर खड़े हो गये। उन्होंने वहाँपर स्थित जीवोंको स्वर्गसे भी अधिक सुखी देखा। विस्मयमें पड़े हुए वे सभी देवता उसका कारण नहीं जान पाये। वे कहने लगे 'अहो! यह कुण्ड तो पाप भोगनेके निमित्त है। जब यहाँपर ऐसा सुख प्राप्त हो रहा है तो फिर लोगोंको पापसे क्या भय रहेगा? परमेश्वरके द्वारा बनायी गयी | वेदमर्यादा कैसे विनष्ट हो गयी ? भगवान्ने अपने ही संकल्पको मिथ्या कैसे कर दिया? यह तो आश्चर्य है, यह तो आश्चर्य है'- ऐसा कहते हुए वे सभी | देवता उदास हो गये; वे उस घटनाका कारण नहीं जान सके ॥ 53-563 ॥इसी बीच भगवान् विष्णु देवताओं आदिसे मन्त्रणा करके कुछ देवगणोंके साथ शंकरजीके निवास स्थानपर गये । वहाँपर उन्होंने पार्वतीके साथ विराजमान, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर, परम रमणीय अंगोंवाले, लावण्यकी खान, अद्भुत, सदा सोलह वर्षको अवस्थावाले, अनेकविध अलंकारोंसे सुशोभित, विविध गणोंसे घिरे हुए तथा परा शिवाको प्रमुदित करते हुए चतुर्वेदस्वरूप चन्द्रशेखर भगवान् शिवको देखा और उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट वाणीमें उस आश्चर्यजनक घटनाको बताया- 'हे देव! हम इस घटनाका कुछ भी कारण नहीं समझ पा रहे हैं। हे देव! इसका जो कारण हो, उसे आप बताइये; क्योंकि हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं' ॥ 57-613 ॥
तब विष्णुका कथन सुनकर प्रसन्न मुखारविन्दकाले भगवान् शिवने मेघके समान गम्भीर वाणीमें यह मधुर वचन कहा - 'हे विष्णो! उसका कारण सुनिये।' इस विषयमें कोई आश्चर्य नहीं है। यह भस्मकी महिमा है। भस्मसे क्या नहीं हो सकता है ? ॥ 62-636 ॥
शैवसम्मत होकर अर्थात् भस्म तथा त्रिपुण्ड्र आदि धारण करके दुर्वासामुनि कुम्भीपाक देखने गये थे हे हरे! वे मुख झुकाकर नीचे की ओर देखने लगे, तभी उनके ललाटपर स्थित भस्मके कुछ कण दैवयोगसे वायुके प्रभावसे उस कुण्डमें गिर पड़े। उसीसे यह सारी घटना हुई है; यह तो भस्मकी ही महिमा है । ll 64-65 ॥
अबसे यह कुम्भीपाक पितृलोकमें निवास करनेवालोंके लिये तीर्थ बन जायगा, जिसमें स्नान करके सुख प्राप्त होगा; इसमें सन्देह नहीं है। आजसे उन्हींके नामसे यह 'पितृतीर्थ' नामवाला होगा। हे श्रेष्ठ! आप वहाँपर मेरे लिंग तथा देवीकी मूर्तिकी स्थापना करें, जिससे पितृलोकमें रहनेवाले हमारी पूजा कर सकें। तीनों लोकोंमें जितने तीर्थ हैं, उनमें यह श्रेष्ठ तीर्थ होगा। वहाँपर स्थापित पित्रीश्वरीकी पूजामात्रसे तीनों लोकोंकी पूजा हो जायगी ।। 66 - 69 llश्रीनारायण बोले- हे नारद! महादेवजीकी यह बात सुनकर विष्णुजीने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर वे देवताओंके पास चले गये। वहाँ पहुँचकर भगवान् विष्णुने शंकरजीद्वारा बतायी गयी समस्त बातें उनसे कहीं, जिसपर वे सभी देवता सिर हिलाकर ' साधु-साधु' – ऐसा कहने लगे ॥ 70-71 ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता भस्मके माहात्म्यकी प्रशंसा करने लगे और हे परंतप ! कुम्भीपाकके तीर्थ हो जानेसे पितरोंको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ 72 ॥
देवताओंने उस तीर्थके तटपर शिवलिंग तथा | देवीको मूर्तिकी विधिपूर्वक स्थापना की और प्रतिदिन पूजन करने लगे ॥ 73 ॥
अपने पापकर्मोंका फल भोगनेके लिये उस कुण्डमें जितने भी जीव थे, वे सब विमानपर आरूढ़ होकर कैलासमण्डलको चले गये। वे इस समय भी वहाँ भद्रगण नामसे निवास करते हैं; और फिर वहाँसे दूर अन्य स्थानपर 'कुम्भीपाक' निर्मित हुआ और उसी दिनसे देवताओंने भस्म तथा त्रिपुण्ड्रधारी शैवोंका कुम्भीपाक नरककुण्ड जाना निरुद्ध कर दिया ।। 74-753 ।।
इस प्रकार मैंने आपसे भस्मके उत्तम माहात्म्यका सारा वर्णन कर दिया है मुने! इस भस्मसे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है ॥ 763 ॥
हे मुनिशार्दूल! वैष्णवशास्त्रोंके अवलोकनसे प्राप्त ज्ञानके अनुसार अब अधिकार-भेदसे ऊर्ध्वपुण्ड्रकी विधिका भी वर्णन करूँगा ॥ 773 ॥ ॥
हे मुने! अँगुलिके नापसे दिव्य ऊर्ध्वपुण्ड्रके प्रमाण, उसके रंग, उसके मन्त्र, उसके देवता तथा उसके फलोंका वर्णन करूंगा ll 78 ॥
इसके लिये पर्वतकी चोटी, नदीके तट, विशेष रूपसे शिवक्षेत्र, समुद्रके तट, वल्मीक (बाँबी) और तुलसीके वृक्षकी जड़-इन्हीं स्थानोंकी मिट्टियोंको लेना चाहिये, इसके अतिरिक्त अन्य मिट्टियाँ नहीं लेनी चाहिये ।। 79-80 ॥
श्यामवर्णकी मिट्टी शान्तिदायिनी कही गयी है तथा रक्तवर्णकी मिट्टी वशमें करनेवाली होती है। इसी | प्रकार पीली मिट्टी श्रीदायिनी तथा श्वेत मिट्टी धर्मकी ओर प्रवृत्त करनेवाली कही गयी है ॥ 81 ॥अँगूठा पुष्टि देनेवाला कहा गया है। मध्यमा अँगुली आयु प्रदान करनेवाली है। अनामिका नित्य अन्न देनेवाली तथा तर्जनी मुक्तिदायिनी कही गयी है। अँगुलिभेदसे इन्हीं से ही ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाये तथा लगाते समय नखोंसे स्पर्श न करे। दीपककी बत्तीकी लौके आकारका, बाँसके पत्तेके आकारका, कमलकी कलीकी आकृतिका, मत्स्यके आकारका, कछुएके आकारका अथवा शंखके आकारका ऊर्ध्वपुण्ड्र प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये ।। 82-84 ll
दस अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड्र उत्तम कोटिमें उत्तम कहा जाता है। नौ अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड्र उत्तम कोटिमें मध्यम तथा आठ अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड्र उत्तम कोटिमें कनिष्ठ होता है ॥ 85 ॥
इसी प्रकार सात, छः तथा पाँच अंगुल परिमाणवाला मध्यम कोटिका ऊर्ध्वपुण्ड्र भी [क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ ] - तीन प्रकारका कहा गया है और चार, तीन तथा दो अंगुल परिमाणवाला कनिष्ठ कोटिका ऊर्ध्वपुण्ड्र भी [क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ ] तीन प्रकारका होता है ॥ 86 ll
ललाटके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'केशव', उदरके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'नारायण', हृदयके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'माधव' तथा कण्ठके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'गोविन्द' जानना चाहिये। उदरके दाहिने पाश्र्श्वमें धारित ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'विष्णु' कहा जाता है। उदरके वाम पार्श्वके ऊर्ध्व पुण्ड्रको 'मधुसूदन, कर्णदशके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'त्रिविक्रम', वाम कुक्षिके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'वामन', बायें बाहुके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'श्रीधर' दाहिने कानके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'इषीकेश' पीठके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'पद्मनाभ ककुदेशके ऊर्ध्वपुण्ड्रको 'दामोदर' इन बारह नामोंसे तथा मूर्धाके ऊर्ध्वपुण्ड्रको वासुदेवके रूपमें समझकर उन उन स्थानोंपर उन-उन देवताओंका स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार प्रातः कालीन तथा सायंकालीन पूजन तथा हवनके समय शान्तचित्त होकर इन नामोंका उच्चारण करके विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना चाहिये ।। 87-91 ॥कोई भी अपवित्र, अनाचारी अथवा मनसे भी निरन्तर पापकर्मका चिन्तन करनेवाला मनुष्य अपने सिरपर ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण कर लेनेमात्रसे पवित्र हो जाता है ॥ 92 ॥
ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करनेवाले चाण्डाल मनुष्यकी भी मृत्यु चाहे कहीं भी हो, वह विमानमें स्थित होकर मेरे लोक पहुँचकर प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 93 ॥
विशुद्ध आत्मावाले तथा मेरे स्वरूपको जाननेवाले महाभाग्यशाली ऐकान्तिक वैष्णवजन भगवान् विष्णुके चरणके आकारवाले तथा बीचमें रिक्त स्थानसे युक्त ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करते हैं। इसी प्रकार एकमात्र मेरे चरणोंके प्रति परायणता रखनेवाले परम ऐकान्तिक भक्त निर्मल, शूलकी आकृतिवाले ऊर्ध्वपुण्ड्रको हल्दीके चूर्णसे धारण करते हैं ।। 94-95 ॥
अन्य वैष्णवजनोंको भक्तिपूर्वक दीपककी बत्तीकी तरह, कमलकी तरह अथवा बाँसके पत्तेकी आकृतिके सदृश तथा रेखाओंके मध्य रिक्तस्थान रहित ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना चाहिये। साधारण वैष्णव गृहस्थ अच्छिद्र (रेखाओंके बीच रिक स्थानसे रहित) अथवा सच्छिद्र (रेखाओंके बीच रिक्त स्थानयुक्त) कोई भी त्रिपुण्ड्र धारण कर सकते हैं। अच्छिद्र ऊर्ध्वपुण्ड्र लगानेसे उन्हें पाप नहीं लगता है किंतु प्रपन्न ऐकान्तिक तथा परम ऐकान्तिक वैष्णवोंको अच्छिद्र ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करनेपर महान् पाप लगता है ॥ 96-98 ॥
जो वैष्णव दण्डके आकारके, सुन्दर, | रेखाओंके बीचमें रिक्त स्थान छोड़कर पूर्वोक 'केशव' आदिके साथ 'नमः' जोड़कर विभिन्न अंगोंमें विमल ऊर्ध्वपुण्ड्रोंको धारण करता है, वह उन-उन स्थानोंपर मानो मेरा विशाल मन्दिर ही बनाता है ।। 99-100 ॥
ऊर्ध्वपुण्डके मध्य विशाल तथा अत्यन्त मनोहर रिक्त स्थानमें शाश्वत विष्णुजी लक्ष्मी के साथ विराजमान होकर आनन्दित होते हैं ॥ 101 ॥
जो अधम द्विज रेखाओंके बीचमें रिक्तस्थान छोड़े बिना ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करता है, वह उस स्थानपर विराजमान विष्णु तथा लक्ष्मीका तिरस्कार करता है ॥ 102 ॥जो मूर्ख अच्छिद्र (रेखाओंके बीच रिक्त स्थानरहित) ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करता है, वह क्रमशः इक्कीस नरकोंको प्राप्त होता रहता है ॥ 103 ॥
स्पष्ट तथा सीधी रेखाओंवाले, बीचमें रिक्त स्थानवाले, दण्ड, कमल, दीपककी लौ अथवा मत्स्यकी आकृतिवाले ऊर्ध्वपुण्ड्रोंको धारण करना चाहिये ॥ 104 ॥
द्विजको शिखा और यज्ञोपवीतकी भाँति ऊर्ध्वपुण्ड धारण करना चाहिये हे महामुने। इसे धारण किये बिना किये गये समस्त कर्म निष्फल हो जाते हैं। अतः बुद्धिमान् ब्राह्मणको समस्त कर्मों में त्रिशूलके आकारका गोल अथवा चौकोर ऊर्ध्वपुण्ड् धारण करना चाहिये ॥ 105-106 ॥
वेदनिष्ठ ब्राह्मणको अर्धचन्द्रके आकारका तिलक नहीं लगाना चाहिये। जन्मसे ब्राह्मणजातिमें उत्पन्न तथा वैदिकपन्धके अनुयायी व्यक्तिको भूलकर भी अपने ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्रके अतिरिक्त अन्य पुण्ड्र नहीं धारण करना चाहिये। श्रौत तिर्यक् त्रिपुण्ड छोड़कर प्रसिद्धि अथवा शारीरिक कान्ति आदिकी प्राप्ति के लिये वैष्णवशास्त्रादिमें वर्णित दूसरे प्रकारके पुण्ड्र वैदिक व्यक्तिको भूलकर भी नहीं धारण करने चाहिये ll 107 - 109 ॥
ललाटपर भस्मसे तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण न करके अज्ञानवश अन्य प्रकारका त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाला वैदिक ब्राह्मण नरकगामी होता है। एकमात्र वेदमार्गका अनुयायी व्यक्ति यदि अज्ञानवश भी भिन्न प्रकारका पुण्ड्र शरीरपर धारण कर लेता है तो वह नरकमें अवश्य ही पड़ता है; इसमें संशय नहीं है ।। 110-111 ॥
वैदिक धर्मावलम्बी मनुष्यको अपने शरीरपर किसी प्रकारका चिह्न नहीं करना चाहिये। वैदिक धर्मका पालन करनेवालोंके लिये एकमात्र वैदिक चिह्न त्रिपुण्ड्र ही है। अश्रौत धर्ममें निष्ठ लोगोंके लिये अश्रौत चिह्न बताया गया है ॥ 1123 ॥
वेदोंमें जो-जो देवता वर्णित हैं, उनके चिह्न वैदिक ही हैं। अनौतन्त्रमें निष्ठा रखनेवाले जो लोग हैं, उनके चिह्न अश्रीत ही हैं। 1133 ॥भवबन्धनसे मुक्ति प्रदान करनेवाले वेदसिद्ध महादेवजी भक्तोंके उपकारके लिये श्रौत चिह्न (भस्म - त्रिपुण्ड्र ) धारण करते हैं ॥ 1143 ॥
वेदसिद्ध भगवान् विष्णुका भी वैदिक चिह्न ही है, इसके अतिरिक्त दूसरा नहीं। विशेष अवतारोंमें भी उनका चिह्न वही [भस्म - 1 - त्रिपुण्ड्र ] रहता है ॥ 1153॥
सर्वांग भस्म लगाने तथा त्रिपुण्ड्र धारण करनेको वैदिक चिह्न समझना चाहिये। ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि अश्रौत चिह्न हैं, तिर्यक् त्रिपुण्ड्र अश्रौत नहीं है ॥ 116 ॥
एकमात्र वेदमार्गका अनुगमन करनेवालेको वेदोक्त पद्धतिसे भस्मद्वारा ललाटपर तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। जो भगवान् नारायणके शरणागत हो तथा उनके परमपदका अभिलाषी हो, उसे गन्ध द्रव्य-युक्त जलसे अपने ललाटपर शूलकी आकृति धारण करनी चाहिये ॥ 117-118 ॥