श्रीनारायण बोले- जो मनुष्य शरीरमें भस्म धारण | करनेवालेको प्रसन्नतापूर्वक धन देता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 1 ॥ सभी श्रुतियाँ, स्मृतियाँ एवं समस्त पुराण भी विभूतिके माहात्म्यका वर्णन करते हैं, अतएव द्विजको विभूति धारण करना चाहिये ॥ 2 ॥
जो तीनों सन्ध्याओं (प्रातः, मध्याह्न एवं सायं) के समय श्वेत भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ 3 ॥जो योगी तीनों सन्ध्याओंको करते समय पैरोंके तलवेसे लेकर मस्तकपर्यन्त सभी अंगोंमें नित्य भस्म लगाता है ( भस्मस्नान करता है), वह शीघ्र ही योगस्थिति प्राप्त कर लेता है ॥ 4 ॥ भस्मस्नानसे मनुष्य अपने कुलका उद्धार करनेवाला हो जाता है। भस्मस्नान जलस्नानको अपेक्षा असंख्य गुना फलदायी होता है ॥ 5 ॥ सभी तीर्थों का सेवन करनेसे जो पुण्य होता है तथा जो फल मिलता है, वह फल केवल भस्मस्नानसे ही प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ 6 ॥ मनुष्य चाहे जितने भी महापातकों अथवा उप पातकोंसे युक्त हो; केवल भस्मस्नान उसके सभी पापोंको उसी प्रकार दग्ध कर देता है, जैसे अग्नि ईंधनको ॥ 7 ॥
'भस्मस्नानसे बढ़कर पवित्र कोई दूसरा स्नान नहीं है' ऐसा शिवजीने कहा है और शिवजीने ही सर्वप्रथम स्वयं भस्मस्नान किया था ॥ 8 ॥
उसी समयसे कल्याणकी इच्छावाले ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनिगण सभी कर्मोंमें तत्परतापूर्वक भस्मस्नान करने लगे ॥ 9 ॥
अतएव जो मनुष्य यह आग्नेय नामक शिरः स्नान करता है, वह इसी शरीरसे साक्षात् रुद्रस्वरूप हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ 10 ॥ जो लोग भस्म धारण किये हुए व्यक्तिको देखकर आनन्दित होते हैं; वे देवताओं, दैत्यों तथा महर्षियोंसे नित्य पूजित होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 11 अपने शरीरके सभी अंगोंमें भस्म धारण किये हुए व्यक्तिको देखकर जो मनुष्य [श्रद्धा के साथ] उठ जाता है, उसे देखकर देवराज इन्द्र भी दण्डवत् प्रणाम करते हैं ॥ 12 ॥
हे मुने! जो लोग भस्म धारण करके अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करते हैं, उनके लिये वह भी भक्ष्य हो जाता है इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये ll 13 ll
जो जलमें स्नान करनेके अनन्तर श्रद्धापूर्वक नित्य भस्मस्नान करता है, वह ब्रह्मचारी हो अथवा गृहस्थ हो अथवा वानप्रस्थी हो, सभी पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है। यतियोंके लिये भस्मके द्वारा अग्निस्नानको विशिष्ट कहा गया है। ll 14-15 llजलस्नानकी अपेक्षा भस्मस्नान श्रेष्ठ होता है; इसीसे आई (प्रकृति-बन्धन) का नष्ट होना सम्भव है। आर्द्रको 'प्रकृति' समझना चाहिये और इस प्रकृतिको ही 'बन्धन' कहा गया है। अतएव इस प्रकृतिरूप बन्धनको काटनेके लिये भस्मसे स्नान करना चाहिये। हे ब्रह्मन् ! तीनों लोकोंमें भस्मके समान कुछ भी नहीं है ॥ 16-17 ॥
पूर्व कालमें देवताओंने अपनी रक्षाके लिये; अपने कल्याणके लिये और पवित्रताके लिये भस्मको स्वीकार किया था। हे मुने। सबसे पहले शिवजीने भस्म प्राप्त करके इसे देवी पार्वतीको दिया था ॥ 18 ॥ अतएव जो मनुष्य इस आग्नेय शिरः स्नानको करता है, वह सांसारिक बन्धनोंसे विमुक्त होकर शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ 19 ॥
ज्वर, राक्षस, पिशाच, पूतनारोग, कुष्ठ, गुल्मरोग, सभी प्रकारका भगंदर रोग, अस्सी प्रकारके वातरोग, चौंसठ प्रकारके पित्तरोग, एक सौ पाँच प्रकारके कफरोग, बाघ आदि जन्तुओंका भय, चोरोंका भय और अन्य प्रकारके दुष्टग्रह- ये सब भस्मस्नानसे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सिंहके द्वारा हाथी विनष्ट कर दिये जाते हैं । ll 20-216 ॥
जो मनुष्य शुद्ध तथा शीतल जल मिलाकर भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है। (जो कोई भी मनुष्य भस्मसे त्रिपुण्ड धारण करता है, वह पापोंसे मुक होकर ब्रह्मलोकको जाता है; इसमें संशय नहीं है)। ललाटपर विधिपूर्वक इस अग्निवीर्यरूपी भस्मको धारण करनेसे यह मनुष्यके भालपर अंकित यमकी लिपिको भी निश्चितरूपसे मिटा देता है। कण्ठके ऊपरी भागसे किया गया पाप भी उसके धारणसे नष्ट हो जाता है । ll 22-24 ॥
कण्ठद्वारा अभक्ष्य पदार्थोंके भोगजनित पाप कण्ठपर भस्म धारण करनेसे, बाहुद्वारा किया गया पाप दोनों बाहुओं पर भस्म लगानेसे तथा मनद्वारा किये गये पाप वक्षःस्थलपर भस्म धारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं। नाभिपर भस्म लगानेसे लिंगजनित पाप तथा गुदापर भस्म लगानेसे गुदेन्द्रियजनित पाप मिट जाताहै। हे ब्रह्मन् । दोनों पार्श्वमें भस्म धारण करनेसे परनारीका आलिंगन आदि करनेसे लगा हुआ पाप विनष्ट हो जाता है । ll 25-26 ॥
सर्वत्र तीन तिर्यक् रेखावाला (त्रिपुण्डू) भस्म प्रशस्त माना गया है। जिसने त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया, उसने मानो ब्रह्मा, विष्णु, महेश; तीनों अग्नि (गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि); तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) और तीनों लोकोंको धारण कर लिया ॥ 273 ॥ भस्म धारण करनेवाला विद्वान् द्विज महापातक जन्य दोषोंसे शीघ्र ही मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है 283 ॥
भस्म धारण करनेवाले मनुष्यके दोष भस्मकी अग्निके सम्पर्कसे नष्ट हो जाते हैं। भस्म-स्नानसे विशुद्ध आत्मावाला व्यक्ति आत्मनिष्ठ कहा गया है ॥ 296 ॥
अपने सर्वांग भस्म लगानेवाला, भस्मसे प्रदीप्त त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाला तथा भस्मपर ही शयन करनेवाला पुरुष 'भस्मनिष्ठ' कहा गया है ॥ 303 ॥ भूत, प्रेत, पिशाच आदि बाधाएँ तथा अति दुःसह रोग भस्म धारण करनेवालेके पाससे भाग जाते हैं; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 313 ॥
इस भस्मको ब्रह्मका भास करानेसे 'भसित', पापका भक्षण करनेके कारण 'भस्म', मनुष्योंको भूति (ऐश्वर्य तथा सिद्धियाँ आदि) प्रदान करनेसे 'भूति' तथा रक्षा करनेके कारण 'रक्षा' कहा गया है ॥ 32 ॥
त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए मनुष्यको अपने सम्मुख देखकर भूत-प्रेत आदि भयभीत होकर काँपने लगते हैं और वे शीघ्र ही उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे भगवान् रुद्रके स्मरणमात्रसे पाप दग्ध हो जाते हैं । ll 33-34 ॥
हजारों प्रकारके दुष्कृत्योंको करके भी जो मनुष्य भस्मसे स्नान करता है, उसके उन सभी कुकर्मोंको भस्म उसी प्रकार जला डालता है; जैसे अग्नि अपने तेजसे वनको भस्म कर देती है ॥ 35 ॥ जो द्विज घोर पाप करके भी यदि मृत्युके समय भस्मस्नान कर लेता है, वह तत्काल समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 36 ॥भस्मस्नान करके शुद्ध आत्मावाला, क्रोधको जीत लेनेवाला तथा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण कर लेनेवाला मनुष्य मेरे सांनिध्यमें आकर पुनः जन्म-मरणके बन्धनमें नहीं पड़ता ॥ 37 ॥ सोमवती अमावास्याके दिन भस्मसे अनुलिप्त देहवाला व्यक्ति पूजित हुए भगवान् शिवका दर्शन करके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 38 ॥ दीर्घ आयुकी इच्छा रखनेवाले, विपुल ऐश्वर्यकी अभिलाषा रखनेवाले अथवा मोक्षकी कामना करनेवाले विद्वान् द्विजको भस्म और ब्रह्मा, विष्णु, शिवके स्वरूपवाले परम पवित्र त्रिपुण्ड्रको नित्य धारण करना चाहिये ॥ 393 ॥
भयंकर राक्षस, प्रेत तथा जो भी अन्य क्षुद्र जन्तु हैं, वे सभी त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए मनुष्यको देखकर भाग जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 403 ॥ शौच आदि कार्योंसे निवृत्त होकर स्वच्छ जलमें | स्नान करनेके पश्चात् मस्तकसे लेकर पैरके तलवेतक भस्म धारण करना चाहिये ॥ 413 ॥
जलका स्नान केवल बाह्य मलको धोनेवाला है, किंतु पवित्र भस्मस्नान बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके मलोंको नष्ट करनेवाला है। अतः जलस्नानका परित्याग करके भी भस्मस्नानके लिये तत्पर होना चाहिये; इसमें संशय नहीं है ।। 42-43 ll
हे मुने! भस्मस्नानके बिना किया गया कृत्य न किये हुएके बराबर हो जाता है, यह सत्य है। यह वेदोक्त भस्मस्नान ही ' आग्नेयस्नान' कहा जाता है 44 भीतर तथा बाहरसे शुद्ध होनेपर ही मनुष्य शिवपूजाका फल प्राप्त कर सकता है। जो जलस्नान है वह तो केवल बाह्य मलका नाश करता है, किंतु वह भस्मस्नान प्राणीके बाहरी तथा भीतरी दोनों प्रकारके मलोंको बड़ी तीव्रतापूर्वक विनष्ट कर देता है ॥ 453 ॥ हे मुने! नित्य करोड़ों बार श्रद्धापूर्वक जलस्नान करके भी कोई मनुष्य बिना भस्मस्नान किये पवित्र आत्मावाला नहीं हो सकता ॥ 463 ॥
भस्मस्नानका जो माहात्म्य है, उसे तात्त्विकरूपसे या तो वेद जानते हैं और या समस्त देवताओंके शिखामणिस्वरूप भगवान् महादेव जानते हैं ॥ 473 ॥जो मनुष्य भस्मस्नान किये बिना ही वैदिक कर्म करता है, वह वस्तुतः उस कर्मकी चौथाई कलाके बराबर भी फल नहीं प्राप्त करता ॥ 483 ॥ जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक विधि-विधान से भस्मस्नान करता है, एकमात्र वही समस्त कर्मोंका अधिकारी है; वेदोंमें ऐसा प्रतिपादित किया गया है ॥ 493 ॥
यह वेदप्रतिपादित भस्मस्नान पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाला है। जो अज्ञानवश भस्मस्नान नहीं करता, वह महापातकी होता है ll 503 ll
द्विजगण असंख्य बार जलस्नान करके जो पुण्य प्राप्त करते हैं, उसका अनन्तगुना पुण्य केवल भस्मस्नानसे ही उन्हें मिल जाता है ॥ 51 तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) में प्रयत्न पूर्वक भस्मस्नान करना चाहिये। भस्मस्नान श्रौतकर्म कहा गया है, अतः इसका परित्याग करनेवाला पतित हो जाता है ॥ 523 ॥
मल-मूत्र आदिका त्याग करनेके पश्चात् प्रयत्नके साथ भस्मस्नान करना चाहिये, अन्यथा इसे न करनेवाले मनुष्य पवित्र नहीं होंगे ॥ 533 ॥
विधिपूर्वक शौच आदि कृत्य करनेके बाद भी बिना भस्मस्नानके कोई द्विज पवित्र अन्तःकरणवाला नहीं हो सकता और वह किसी कृत्यको सम्पादित करनेका अधिकारी भी नहीं हो सकता है ॥ 543 ॥ अपान वायु निकलनेपर, जम्हाई आनेपर दस्त हो जानेपर तथा श्लेष्मा (कफ) निकलनेपर प्रयत्नपूर्वक भस्मस्नान करना चाहिये ॥ 553 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ यह मैंने श्रीभस्मस्नानके मात्र एक अंशका वर्णन आपसे किया है। अब मैं भस्मस्नानसे प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें पुनः बताऊँगा, सावधान | मनसे सुनिये ll 56-57 ॥