श्रीनारायण बोले- हे महामुने! अब मैं भूत शुद्धिका प्रकार बता रहा हूँ। सर्वप्रथम मूलाधारसे उठकर सुषुम्नामार्गपर होती हुई ब्रह्मरन्ध्रतक देवी परदेवता कुण्डलिनी के पहुँचनेकी भावना करे तत्पश्चात् साधक हंसमन्त्रसे जीवका ब्रह्ममें संयोजन करके अपने शरीरमें पैरोंसे लेकर घुटनोंतकके भागमें चतुष्कोण (चौकोर), वज्रचिह्नसे युक्त, पीतवर्णवाले तथा 'लं' बीजसे अंकित पृथ्वीमण्डलकी कल्पना | करे ॥ 1-3 ॥
घुटनोंसे लेकर नाभितकके भागमें अर्धचन्द्रतुल्य आकृतिवाले, दो कमलोंसे युक्त, शुक्लवर्ण तथा 'वं' बीजमन्त्रसे अंकित जलमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ 4 ॥
इसके बाद नाभिसे लेकर हृदयतकके भागमें त्रिकोणाकार, स्वस्तिक चिह्नसे अंकित, रक्तवर्णवाले तथा 'र' बीजमन्त्रसे युक्त अग्निमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ 5 ॥
पुनः हृदयसे ऊपर भ्रूमध्यतकके भागमें गोल, छ: बिन्दुओंसे अंकित, धूम्रवर्णवाले तथा 'यं' बीजसे युक्त वायुमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ 6 ॥
इसके बाद भ्रूमध्यसे लेकर ब्रह्मरन्धतकके भागमें वृत्ताकार, स्वच्छ, परम मनोहर तथा 'हं' बीजसे अंकित आकाशमण्डलका ध्यान करना चाहिये ॥ 7 ॥इस प्रकारसे पंचभूतोंकी भावना करके प्रत्येकका अपने कारणरूप दूसरे भूतमें लय करे। पृथ्वीको जलमें, जलको अग्निमें अग्निको वायुमें, | वायुको आकाशमें विलीन करनेका ध्यान करके पुनः आकाशको अहंकारमें, अहंकारको महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वको प्रकृतिमें और मायारूपी प्रकृतिको आत्मामें विलीन करना चाहिये ॥ 8-9 ॥
इस प्रकार निर्मल ज्ञानसे सम्पन्न होकर अपने शरीरमें पापपुरुषकी कल्पना करनी चाहिये कि यह मेरी बायीं कुक्षिमें स्थित है, यह काले रंगका है तथा अँगूठेके परिमाणवाला है, ब्रह्महत्या ही इसका सिर है, स्वर्णकी चोरी ही इसके बाहु हैं, सुरापान ही इसका हृदय है, गुरुतल्प (गुरुपत्नीगमन) ही इसका कटिप्रदेश है, इन महापातकोंसे संसर्ग ही इसके दोनों चरण हैं, उपपातक इसका मस्तक है, यह ढाल तलवार लिये रहता है, यह कृष्णवर्णवाला है, सदा नीचेकी ओर मुख किये रहता है और अत्यन्त दुःसह है ॥ 10 - 12 ॥
तत्पश्चात् वायुबीज 'यं का स्मरण करते हुए पूरक प्राणायामसे वायुको भरकर उसके द्वारा इस पापपुरुषको सुखा देना चाहिये। पुनः 'रं' अग्निबीजमन्त्रके द्वारा अपने शरीरसे लगे हुए उस पापपुरुषको भस्म कर देना चाहिये ॥ 13 ॥
कुम्भकके जपसे दग्ध किये गये पापपुरुषकी भस्मको वायुबीज यं'के जपसे रेचक प्राणायामद्वारा बाहर निकाल देना चाहिये ॥ 14 ॥
तदनन्तर विद्वान् पुरुष अपने शरीरसे उत्पन्न हुए भस्मको सुधाबीज 'वं 'के उच्चारणसे उत्पन्न अमृतसे आप्लावित करे पुनः भू-बीजमन्त्र 'लं 'से उस द्रवीभूत भस्मको घनीभूत करके उसके सोनेके अण्ड जैसा बन जानेकी कल्पना करे ॥ 15 ॥
इसके बाद आकाशबीज 'हं'का जप करते हुए उस सुवर्ण-अण्डकी एक स्वच्छ दर्पणकी तरह कल्पना करके बुद्धिमान् साधकको उसमें मस्तकसे लेकर चरणपर्यन्त सभी अंगोंकी मानसिक रचना करनी चाहिये ॥ 16 ॥पुनः चित्तमें आकाश आदि पाँचों भूतोंकी कल्पना करे और 'सोऽहम्' मन्त्रके द्वारा आत्माको अपने हृदयकमलपर विराजित करे ॥ 17 ॥
तत्पश्चात् जीवको ब्रह्ममें संयोजित करनेवाली कुण्डलिनीको तथा परमात्माके संसर्गसे सुधामय जीवको हृदयरूपी कमलपर स्थापित करके मूलाधारमें | विराजनेवाली देवी कुण्डलिनीका [इस प्रकार ] ध्यान करना चाहिये ॥ 18 ॥
रक्तवर्णवाले जलका एक समुद्र है। उसमें एक पोत है, जिसपर एक अरुणवर्णका कमल खिला हुआ है। उस कमलपर विराजमान अपने छः करकमलोंमें त्रिशूल, इक्षुधनुष, रत्नमय पाश, अंकुश, पाँच बाण तथा रक्तपूरित खप्पर धारण करनेवाली, तीन नेत्रोंसे सुशोभित होनेवाली, स्थूल | वक्षःस्थलवाली तथा बालसूर्यके समान वर्णवाली प्राणशक्तिस्वरूपा पराभगवती कुण्डलिनी हमें सुख प्रदान करनेवाली हों ॥ 19 ॥
इस प्रकार परमात्मस्वरूपिणी प्राणशक्ति देवी कुण्डलिनीका ध्यान करके समस्त कार्योंमें अधिकार प्राप्त करनेके लिये विभूति धारण करना चाहिये ॥ 20 ॥
विभूति धारण करनेसे महान् फल प्राप्त होता है; श्रुति तथा स्मृतिके प्रमाणके अनुसार भस्मधारण अतीव उत्तम है। अब मैं विभूतिके विषयमें विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा ॥ 21 ॥