श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैंने अरुणोदा नामक जिस नदीका वर्णन किया है, वह मन्दरपर्वतसे निकलकर इलावृतके पूर्व भागमें प्रवाहित होती है ॥ 1 ॥
भगवतीकी अनुचरी स्त्रियों तथा यक्षों और गन्धर्वोकी पत्नियोंके अरुणोदाके जलमें स्नान करनेसे उनके शरीरकी दिव्य गन्धसे उसका जल सुवासित हो जाता है। उस सुगन्धको लेकर बहता हुआ पवन चारों ओरकी दशयोजनपर्यन्त भूमिको सुगन्धित कर देता है ॥ 23 ॥
इसी प्रकार पर्वतकी अधिक ऊँचाईसे गिरनेके कारण हाथीके शरीरके समान विशाल आकारवाले गुठलीरहित जम्बूफलोंके फटनेसे निकले हुए रसके द्वारा जम्बू नामक नदी बन गयी। वह मेरुमन्दरसे | पृथ्वीतलपर गिरती हुई इलावृतवर्षसे दक्षिणकी ओर प्रवाहित होने लगी । 3-43 ॥
जम्बूफलके स्वादसे सन्तुष्ट होनेवाली भगवती 'जम्ब्वादिनी' नामसे विख्यात हैं । वहाँके देवता, नाग, ऋषि, राक्षस तथा अन्य लोगोंके लिये सभी प्राणियोंपर दया करनेवाली ये भगवती मान्य तथा पूजाके योग्य हैं। ये स्मरण करनेवाले पापियोंको पवित्र कर देनेवाली तथा उनके रोगोंको नष्ट कर देनेवाली हैं। देवताओंकी भी वन्दनीया इन भगवतीका कीर्तन करनेसे विघ्नोंका नाश हो जाता है। कोकिलाक्षी, कामकला, करुणा, कामपूजिता, कठोरविग्रहा, धन्या, नाकिमान्या, गभस्तिनी - इन नामोंका उच्चारण करके मनुष्योंको सदा देवीका जप करना चाहिये ।। 5-83 ॥
जम्बूनदीके तटोंपर विद्यमान जो मिट्टी है, वह जम्बू-रससे सिक्त होकर और पुनः सूर्य तथा वायुके सम्पर्क से सुवर्ण बन जाती है। उसीसे विद्याधरों और | देवताओंकी स्त्रियोंके अनेक उत्तम आभूषण बने हैं, वह जाम्बूनद सुवर्ण देवनिर्मित कहा गया है। सदा अपनी स्त्रियोंकी कामना पूर्ण करनेवाले देवतागण उसी सुवर्णसे मुकुट, करधनी और केयूर आदिका निर्माण करते हैं । ll 9-113 ॥कदम्बका एक विशाल वृक्ष सुपार्श्वपर्वतपर विराजमान बताया गया है। उसके कोटरोंसे जो पाँच धाराएँ निकली हुई बतायी गयी हैं, वे सुपार्श्वगिरिके शिखरपर गिरकर पृथ्वीतलपर आयीं। वे पाँचों मधुधाराएँ | इलावृतवर्षके पश्चिमभागमें प्रवाहित होती हैं। इनका सेवन करनेवाले देवताओंके मुखकी सुगन्धि लेकर प्रवाहित होता हुआ पवन चारों ओर सौ योजनतककी भूमिको सुवासित कर देता है ॥ 12-143 ॥
भक्तोंका काम सिद्ध करनेवाली महादेवी धारेश्वरी वहाँ वास करती हैं। देवपूज्या, महोत्साहा, कालरूपा, महानना, कर्मफलदा, कान्तारग्रहणेश्वरी, करालदेहा, कालांगी और कामकोटिप्रवर्तिनी - इन नामोंसे सर्वसुरेश्वरी भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ 15 - 17 ॥
इसी प्रकार कुमुदपर्वतके ऊपर शतबल नामसे प्रसिद्ध जो वट-वृक्ष है, उसकी शाखाओंसे नीचे गिरते हुए रससे बहुतसे नद हो गये हैं; कुमुदगिरिके शिखरसे नीचेकी ओर गिरनेवाले वे सभी नद दूध, दही, मधु, घी, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन तथा आभूषण आदिके द्वारा सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। वे इलावृतवर्षके उत्तरभागकी सम्पूर्ण भूमिको आप्लावित किये रहते हैं ॥ 18-193 ॥
इन्हींके तटपर देवताओं और दानवोंद्वारा नित्य उपासित भगवती मीनाक्षी प्रतिष्ठित हैं। नीलाम्बरा, रौद्रमुखी, नीलालकयुता, अतिमान्या, अतिपूज्या, मत्तमातंगगामिनी, मदनोन्मादिनी, मानप्रिया, मानप्रियान्तरा, मारवेगधरा, मारपूजिता, मारमादिनी, मयूरवरशोभाढ्या तथा शिखिवाहनगर्भभू-इन नामोंसे युक्त पदोंके द्वारा स्वर्गवासी देवताओंको अभीष्ट फल तथा वर प्रदान करनेवाली देवीकी वन्दना करनी चाहिये। सदा परब्रह्मसे सांनिध्य रखनेवाली वे भगवती मीनाक्षी जप तथा ध्यान करनेवाले प्राणियोंको सम्मान प्रदान करती हैं । ll 20-24 ॥
उन नदोंका जल पीनेसे चैतन्य प्राप्त करनेवाले प्राणियोंके शरीरपर झुर्रियों तथा केशोंकी सफेदीके लक्षण कभी नहीं दिखायी पड़ते। थकान, पसीने आदिमें दुर्गन्धि, जरा, रोग, भय, मृत्यु, भ्रम, शीत एवं उष्ण वायु-विकार, मुखपर उदासी एवं अन्य आपत्तियाँकभी नहीं उत्पन्न होती हैं और जीवनपर्यन्त प्राणीको सुख मिलता है और वह सुख पूर्णरूपसे निरन्तर बढ़ता ही रहता है॥ 25–27॥
हे नारद! अब मैं उस सुमेरु नामक सुवर्णमय पर्वतके अवान्तर पर्वतोंका वर्णन करूँगा । इस | पर्वतसे पृथक् बीस पर्वत हैं, जो कर्णिकाके समान हैं। उनके मूलभागमें सुमेरुपर्वत है और उसको चारों ओरसे घेरकर वे सभी पर्वत पुष्पके केसरके रूपमें विराजमान हैं। उनके नाम ये हैं- शृण्वत, कुरंग, कुरग, कुसुम्भ, विकंकत, त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, अरुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद - ये बीस पर्वत हैं ॥ 28-32 ॥