View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 5 - Skand 8, Adhyay 5

Previous Page 203 of 326 Next

भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय

श्रीनारायण बोले- हे देवर्षे ! अब आप द्वीप तथा वर्षके भेदसे देवताओंके द्वारा किये गये सम्पूर्ण भूमण्डलके विस्तारके विषयमें सुनिये। इस प्रसंगमें कहीं भी विस्तार न करके मैं संक्षेपमें ही वर्णन करूँगा। सर्वप्रथम एक लाख योजन परिमाणवाले जम्बूद्वीपका निर्माण हुआ यह अति विशाल द्वीप आकृतिमें जैसी कमलकी कर्णिका होती है, वैसा ही गोल है। इस द्वीपमें कुल नौ हजार योजनतक विस्तारवाले नौ वर्ष कहे गये हैं, जो चारों ओरसे घिरे हुए अतिविशाल रूपवाले आठ पर्वतोंसे अच्छी तरहसे विभाजित हैं ॥ 1-4 ॥धनुषके आकारकी भाँति दो वर्षोंको दक्षिण उत्तरतक फैला हुआ जानना चाहिये। वहीं चार और विशाल वर्ष हैं। इलावृत नामका वर्ष चौकोर है। यह इलावृत मध्यवर्ष भी कहा जाता है; जिसकी नाभि (मध्यभाग)-में एक लाख योजन ऊँचाईवाला सुवर्णमय सुमेरु नामक पर्वतराज विद्यमान है। यह पर्वत ही गोलाकार पृथ्वीरूप कमलकी कर्णिकाके रूपमें स्थित है। इस पर्वतका शिखरभाग बत्तीस हजार योजनके विस्तारमें है, इसका मूलभाग (तलहटी) सोलह हजार योजनतक पृथ्वीपर फैला है और इतने ही योजनतक पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट है ॥ 5-73 ॥

इलावृतके उत्तरमें उसकी सीमाके रूपमें नील, | श्वेत और श्रृंगवान्-ये तीन पर्वत कहे गये हैं ॥ 86 ॥

वे पर्वत रम्यक नामक वर्ष, दूसरे हिरण्मयवर्ष तथा तीसरे कुरुवर्षकी सीमा व्यक्त करते हैं ॥ 93 ॥

वे वर्ष आगेकी ओर फैले हुए हैं। दोनों ओरकी सीमा क्षार समुद्र है। वे दो हजार योजन विस्तारवाले हैं। वे क्रमशः एकसे एक पूर्वकी ओर दशांशमें बढ़ते गये हैं और उत्तरमें एक-एक दशांशका अन्तर चौड़ाईमें कम होता गया है। ये वर्ष अनेक नदियों तथा सरोवरोंसे युक्त हैं ॥ 10-113 ॥

इलावृतके दक्षिणमें निषध, हेमकूट और हिमालय नामक अत्यन्त सुन्दर तीन पर्वत पूर्वकी ओर फैले हुए हैं। वे दस हजार योजन ऊँचाईवाले कहे जाते हैं। हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष - इन तीनोंका विभागानुसार यथार्थ वर्णन किया गया है। ये तीनों पर्वत (निषध, हेमकूट और हिमालय) उक्त तीनों वर्षोंकी सीमा हैं ॥ 12 - 14 ॥

इलावृतके पश्चिममें माल्यवान् नामक पर्वत और पूर्वकी ओर श्रीयुक्त गन्धमादनपर्वत स्थित हैं। ये दोनों पर्वत नीलपर्वतसे लेकर निषधपर्वततक लम्बाईमें फैले हैं और चौड़ाईमें इनका विस्तार दो हजार योजन है। वे दोनों पर्वत केतुमाल और भद्राश्व–इन दोनों वर्षोंकी | सीमा निश्चित करते हैं ।। 15-16 ॥

मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद – ये चारों पर्वत | सुमेरुगिरिके पादके रूपमें कहे गये हैं। दस-दस हजार योजन ऊँचाईवाले ये पर्वत सभी ओरसे सुमेरुको सहारा दिये हुए चारों दिशाओंमें विराजमान हैं ॥ 17-183 ॥इन पर्वतोंपर आम, जामुन, कदम्ब तथा बरगदके वृक्ष स्थित हैं, जो इन पर्वतराजोंकी ध्वजाओंके रूपमें विराजमान हैं। इनमेंसे सभी वृक्ष ग्यारह सौ योजन ऊँचाईवाले हैं, इतना ही इनकी शाखाओंका विस्तार है और ये सौ योजन मोटाईवाले हैं ॥ 19-20 6 ॥

इन पर्वतोंपर दूध, मधु, ईखके रस और सुस्वादु जलसे परिपूर्ण चार सरोवर हैं; जिनमें स्नान, आचमन आदि करनेवाले देवता योग-सम्बन्धी महाशक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं ।। 213॥

वहाँ स्त्रियोंको सुख प्रदान करनेवाले नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राज और सर्वभद्र नामक चार देवोद्यान हैं। गन्धर्व आदि उपदेवताओंके द्वारा गायी जानेवाली महिमासे युक्त महाभाग देवतागण सुन्दर अंगनाओंके साथ वहाँ निवास करते हैं और स्वतन्त्र होकर सुखपूर्वक यथेच्छ विहार करते हैं । ll 22 - 24 ॥

मन्दराचलके शिखरपर विराजमान ग्यारह सौ योजन ऊँचे दिव्य आम्रवृक्षके फल अमृतमय पर्वत शिखरके समान विशाल, अत्यन्त स्वादिष्ट तथा कोमल होते हैं। उस वृक्षके ऊँचे शिरोभागसे गिरकर विदीर्ण हुए उन फलोंके सुस्वादु एवं लाल वर्णवाले रससे 'अरुणोदा' नामक नदी बन गयी। रम्य जलवाली यह नदी बड़े-बड़े देवताओं तथा दैत्योंद्वारा पूजी जाती है ॥ 25-27 ॥

हे महाराज ! उसी पर्वतपर पापनाशिनी भगवती 'अरुणा' प्रतिष्ठित हैं। लोग अनेकविध उपहारों तथा बलिसे समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली, पापोंका शमन करनेवाली तथा अभय प्रदान करनेवाली उन भगवतीका पूजन करते हैं। उनकी कृपादृष्टिमात्रसे वे कल्याण तथा आरोग्य प्राप्त कर लेते हैं । 28-29 ॥

ये आद्या, माया, अतुला, अनन्ता, पुष्टि, ईश्वरमालिनी, दुष्टनाशकरी और कान्तिदायिनी - इन नामोंसे भूमण्डलपर विख्यात हैं। इन्हींके पूजा-प्रभावसे जाम्बूनद नामक सुवर्ण उत्पन्न हुआ है । ll30-31 ॥

Previous Page 203 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन