व्यासजी बोले- [हे महाराज जनमेजय !] ब्रह्मलोकसे ऊपरके भागमें जो सर्वलोक सुना गया है, वही मणिद्वीप है; जहाँ भगवती विराजमान रहती हैं ॥ 1 ॥
चूँकि यह सभी लोकोंसे श्रेष्ठ है, इसलिये इसे सर्वलोक कहा गया है। पूर्वकालमें मूलप्रकृतिस्वरूपिणी पराम्बा भगवतीने सबसे प्रारम्भमें अपने निवासहेतु स्वेच्छासे इसका निर्माण किया था। यह लोक कैलास, वैकुण्ठ और गोलोकसे भी महान् तथा उत्तम है। समस्त लोकोंसे श्रेष्ठ होनेके कारण यह सर्वलोक कहा गया है। तीनों लोकोंमें उसके समान सुन्दर स्थान कहीं नहीं है॥ 2-4 ॥
हे सत्तम! वह मणिद्वीप तीनों जगत्का छत्रस्वरूप तथा सांसारिक सन्तापका नाश करनेवाला है और सभी ब्रह्माण्डोंका भी छायास्वरूप वही है ॥ 5 ॥
उस मणिद्वीपके चारों ओर अनेक योजन विस्तारवाला तथा परिमाणमें उतना ही गहरा अमृतका सागर विद्यमान है, जो पवनके आघातसे उठी हुई सैकड़ों तरंगों से परिपूर्ण, रत्नमयी स्वच्छ बालुकासे युक्त, मत्स्य और शंखोंसे सम्पन्न, तरंगोंके परस्पर संघर्षसे उत्पन्न बड़ी-बड़ी लहरोंद्वारा विकीर्ण शीतल जल-कणोंसे शोभायमान और अनेक प्रकारकी ध्वजाओंसे युक्त नानाविध आवागमनवाले पोतोंसे मण्डित है ।। 6-8 ॥
उस सुधासागरके चारों ओर तटोंपर रत्नमय वृक्ष विराजमान हैं। उसके उत्तर तरफ लौहधातुकी बनी हुई सात योजन विस्तारवाली एक गगनस्पर्शी महान् चहारदीवारी है ll 93 llउसमें अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहारमें दक्ष तथा नानाविध युद्धकलाओंमें पारंगत बहुत-से रक्षक सभी ओर आनन्दपूर्वक निवास करते हैं ॥ 103 ॥
हे राजन्! उस परकोटेमें चार द्वार तथा सैकड़ों द्वारपाल हैं। भगवतीमें भक्ति रखनेवाले अनेक गणोंसे वह चारों ओरसे घिरा हुआ है। जो देवता भगवती जगदीश्वरीके दर्शनार्थ आते हैं, उनके गण तथा वाहन यहाँ रहते हैं ॥ 11-123 ॥
यह सैकड़ों विमानोंकी घरघराहट तथा घंटा ध्वनिसे सदा परिपूर्ण रहता है। घोड़ोंकी हिनहिनाहट तथा उनके खुरोंके आघातकी ध्वनिसे दिशाएँ बधिर सी हो जाती हैं। हे राजन् ! किलकिलाहटकी ध्वनि करते हुए तथा हाथमें बेंत लिये हुए देवी-गणोंके द्वारा ताडित देवताओंके सेवक वहाँ सदा विराजमान रहते हैँ ।। 13-14ll
हे राजन् ! उस कोलाहलमें कोई किसीकी बात नहीं सुन पाता। अनेक प्रकारकी ध्वनियोंसे मिश्रित उस स्थानपर अत्यधिक चेष्टा करनेपर ही किसीकी बात सुनी जा सकती है। हे राजन्! वहाँ स्थान स्थानपर मीठे जलसे परिपूर्ण सरोवर और रत्नमय वृक्षोंसे युक्त अनेक प्रकारके उद्यान सुशोभित हो रहे हैँ l ll 15-163 ॥
उस परकोटेके आगे कांस्य धातुसे बना हुआ उससे भी विशाल दूसरा मण्डलाकार परकोटा है, जिसका शिखर आकाशको छूता रहता है। यह परकोटा पहले परकोटेसे तेजमें सौ गुना अधिक है ।। 17-18 ।।
गोपुर और द्वारसे शोभा पानेवाला यह प्राकारमण्डल अनेक वृक्षोंसे युक्त है। वृक्षोंकी जितनी जातियाँ होती हैं, वे सब वहाँपर हैं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलोंसे | लदे रहते हैं तथा वे नये-नये पल्लवों और उत्तम सुगन्धसे सदा परिपूर्ण रहते हैं ॥ 19-20 ॥
कटहल, मौलसिरी, लोध, कर्णिकार, शीशम, देवदारु, कचनार, आम, सुमेरु, लिकुच, हिंगुल, | इलायची, लौंग, कट्फल, पाटल, मुचुकुन्द, फलिनी,जघनेफल, ताल, तमाल, साल, कंकोल, नागभद्र, नागकेसर, पीलु, साल्व, कर्पूरशाखी, अश्वकर्ण, हस्तिकर्ण, तालपर्ण, दाडिम, गणिका, बन्धुजीव, जम्भीरी नीबू, कुरण्डक, चम्पा, बन्धुजीव, धतूरा, कालागुरु, चन्दन, खजूर, जूही, तालपर्णी, ईख, क्षीरवृक्ष, खैर, इमली, भेलावा, बिजौरा नीबू, कुटज तथा बिल्वके वृक्ष वहाँ सुशोभित रहते हैं। तुलसी तथा मल्लिकाके वन भी वहाँ विद्यमान हैं। हे राजन्! अनेक जातिवाले वृक्षोंके वन तथा उपवन यहाँ शोभायमान हैं, जो सैकड़ों बावलियोंसे युक्त हैं ॥ 21-28 ॥
कोयलोंकी मीठी ध्वनिसे युक्त, भौंरोके गुंजारसे भूषित तथा शीतल छाया प्रदान करनेवाले वे सभी उत्तम वृक्ष निरन्तर रसस्राव करते रहते हैं। अनेक ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले वे वृक्ष अनेक प्रकारके पक्षियोंसे सदा युक्त रहते हैं। वे अनेकविध रस प्रवाहित करनेवाली नदियोंसे सर्वदा सुशोभित रहते हैं। कबूतर, तोता, मैना तथा हंस आदि पक्षियोंके पंखोंसे निकली हुई वायुसे वहाँके वृक्ष सदा हिलते रहते हैं। सुगन्धि-मिश्रित पवनसे परिपूर्ण वह वन इधर-उधर दौड़ती हुई हरिणियोंके समूहोंसे सदा शोभा प्राप्त करता है। नाचते हुए मोरोंकी सुखदायक केका-ध्वनियोंसे मुखरित वह दिव्य वन सदा मधुका स्राव करता रहता है ।। 29-33 ॥
उस कांस्यके प्राकारके आगे ताम्रकी चहारदीवारी बतायी गयी है, जो आकारमें चौकोर तथा ऊँचाईमें सात योजन परिमाणवाली है। हे राजन् ! उन दोनों प्राकारोंके मध्यमें एक कल्पवाटिका कही गयी है, जिसके वृक्षोंके पुष्प तथा पत्ते सुवर्ण-सदृश आभावाले हैं और बीज तथा फल रत्नके समान हैं। वहाँ चारों ओर दस योजनतक सुगन्ध फैली रहती है ।। 34-36 ॥
हे राजन् ! वसन्त ऋतु उस वनकी सदा सुरक्षा करता रहता है। पुष्पके भूषणसे विभूषित, पुष्प-छत्रसे सुशोभित तथा पुष्पके आसवका सेवन करके मदमत्त वह वसन्त पुष्पके सिंहासनपर विराजमान रहता है। मधुश्री तथा माधव श्री नामक मुसकानयुक्त मुखवाली उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं, जो सदा पुष्पोंके गुच्छोंकाकन्दुक बनाकर क्रीडा करती रहती हैं। वह अत्यन्त रम्य वन चारों ओर मधुकी धारा प्रवाहित करता रहता है ॥ 37-39 ॥
पुष्पों की गन्धको लेकर प्रवाहित होनेवाली वायुके द्वारा वहाँका दस योजनपर्यन्त स्थान सदा सुवासित रहता है। इस प्रकार वह दिव्य वन वसन्तलक्ष्मीसे संयुक्त, कामियोंके कामको उद्दीप्त करनेवाला, मतवाले कोकिलोंकी ध्वनिसे मुखरित तथा अपनी अंगनाओंसहित गान-लोलुप दिव्य गन्धर्वोंसे सदा सुशोभित रहता है ।। 40-41 ।।
उस ताम्रके परकोटेके आगे एक सीसेका परकोटा है; इसकी भी ऊँचाई सात योजन कही गयी है। है राजन्! इन दोनों प्राकारोंके मध्यमें सन्तान नामक वाटिका है। वहाँके पुष्पोंकी सुगन्धि चारों ओर दस योजनतक फैली रहती है। सुवर्णकी आभावाले खिले हुए फूल तथा अमृत तुल्य मधुर रसोंसे परिपूर्ण मधुर फल वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं ॥ 42-44॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उस वाटिकाका नायक ग्रीष्मऋतु है। शुकश्री तथा शुचिश्री नामवाली उसकी दो प्रिय | भार्याएँ हैं । सन्तापसे व्याकुल प्राणी उस वाटिकाके वृक्षोंकी छायामें सुखपूर्वक स्थित रहते हैं। अनेक सिद्धों तथा देवताओंसे वह प्राकार सदा समन्वित रहता है । 45-46 ॥
हे राजन् ! पुष्प मालाओंसे विभूषित होकर अपने करकमलोंमें ताड़का पंखा लिये और अपने अंगोंमें चन्दन लगाये तथा शीतल जलका सेवन करनेवाली अनेक विलासिनी अंगनाओंके द्वारा वह प्राकार नित्य सुशोभित रहता है ॥ 473 ॥
हे राजन् ! उस सीसेके प्राकारके भी आगे परिमाणमें सात योजन लम्बा पीतलकी धातुसे निर्मित एक सुन्दर परकोटा है ॥ 483 ॥
उन दोनों परकोटोंके मध्यमें हरिचन्दन वृक्षोंकी एक वाटिका कही गयी है। वहाँका स्वामी मेघोंपर आसीन रहनेवाला वर्षाऋतु है। वह पिंगल | वर्णवाले विद्युत्को नेत्रके रूपमें तथा मेघोंको कवचके रूपमें धारण करनेवाला कहा गया है। विद्युत्का | गर्जन ही इसका मुख है और वह इन्द्रधनुषकोधनुषरूपमें धारण किये रहता है। वह अपने गणोंसे आवृत होकर चारों ओर हजारों जलधाराएँ छोड़ता रहता है ।। 49-51 ॥
नभः श्री, नभस्यश्री, स्वरस्या, रस्यमालिनी, अम्बा, दुला, निरलि, अभ्रमन्ती, मेघयन्तिका, वर्षयन्ती, चिपुणिका और वारिधारा-ये बारह वर्षाऋतुकी प्रिय शक्तियाँ कही गयी हैं, जो सदा मदसे विह्वल रहती हैं ।। 52-53 ॥
नवीन लताओंसे समन्वित तथा नवीन पल्लवोंसे युक्त वृक्ष तथा हरे-भरे तृण वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं, जिनसे वहाँकी सम्पूर्ण भूमि आच्छादित रहती है। वहाँ नदी तथा नद अत्यन्त वेगसे प्रवाहित होते रहते हैं। राग-द्वेषसे युक्त मनुष्योंके चित्तके समान गन्दे जलवाले अनेक सरोवर भी वहाँ विद्यमान हैं ।। 54-55 ।।
देवता तथा सिद्धपुरुष वहाँ निवास करते हैं। देवी - कर्ममें निरन्तर तत्पर रहनेवाले तथा वापी, कूप और तालाबका निर्माण कराके देवीको अर्पण करनेवाले वे लोग अपनी स्त्रियोंके साथ वहाँ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ 563 ॥
उस पीतलके प्राकारके आगे सात योजनकी लम्बाईवाला एक पंचलौह-निर्मित परकोटा है, जिसके बीचमें नानाविध पुष्पों, लताओं तथा पल्लवोंसे सुशोभित मन्दारवाटिका विराजमान है ॥ 57-58 ॥
विकाररहित शरद् ऋतुको यहाँका अधिष्ठाता कहा गया है। इक्षुलक्ष्मी और ऊर्जलक्ष्मी-ये उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं। अनेक सिद्धलोग अपनी भार्याओं तथा अनुचरोंके साथ यहाँ निवास करते हैं ॥ 593 ॥ उस पंचलौहमय परकोटेके आगे विशाल शिखरों तथा सात योजन लम्बाईवाला एक दीप्तियुक्त रजत निर्मित परकोटा है। उसके मध्यमें पुष्पोंके गुच्छोंसे परिपूर्ण पारिजात-वन विद्यमान है । ll 60-61 ॥
चारों ओर दस योजनकी दूरीतक सुगन्ध फैलानेवाले पुष्प वहाँपर देवी-पूजन आदि कर्मोंमें तत्पर सभी गणोंको प्रसन्न किये रहते हैं ।॥ 62 ॥हे राजन्! महान् उज्ज्वल हेमन्तऋतु वहाँका स्वामी कहा गया है। वह सभी रागी पुरुषोंको आनन्दित करते हुए हाथमें आयुध लेकर अपने गणोंके साथ वहाँ उपस्थित रहता है ॥ 63 ॥
उसकी सहश्री तथा सहस्यश्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं। भगवतीका व्रत करनेवाले जो सिद्धलोग हैं, वे वहाँ निवास करते हैं ॥ 64 ॥
उस रजतके परकोटेके आगे तप्त स्वर्णसे निर्मित सात योजन लम्बा एक अन्य परकोटा है, जिसे सौवर्णसाल कहा गया है ॥ 65 ॥
उसके बीचमें पुष्पों तथा पल्लवोंसे सुशोभित एक कदम्ब वाटिका है, जहाँ कदम्बके आसवकी हजारों धाराएँ निरन्तर बहती रहती हैं, जिसका सेवन करनेसे आत्मानन्दका अनुभव होता है। वहाँका स्वामी श्रेष्ठ शिशिर ऋतु कहा गया है ॥ 66-67 ॥
उसकी तपः श्री और तपस्यश्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं। अपने अनेक गणोंसे घिरा हुआ शिशिर ऋतु इन दोनों भार्याओंके साथ प्रसन्नतापूर्वक अनेकविध क्रीडाओंमें तत्पर रहता है ॥ 683 ॥
देवीकी प्रसन्नताके निमित्त अनेक दान करनेवाले जो महान् सिद्धपुरुष हैं, वे अनेकविध भोगोंसे उत्पन्न महानन्दसे युक्त होकर और अपने परिवारजनों तथा भार्याओंको साथ लेकर वहाँ समूहमें निवास करते हैं । 69-70 ॥
उस स्वर्णनिर्मित परकोटेके आगे कुमकुमके समान अरुणवर्णवाला तथा सात योजन लम्बा पुष्परागमणिनिर्मित परकोटा है ॥ 71 ॥
वहाँकी भूमि पुष्परागमयी है। इसी प्रकार वहाँके वन, उपवन तथा थालोंसमेत वृक्ष पुष्परागरत्नसे युक्त कहे गये हैं ॥ 72 ॥
वहाँ जिस रत्नका परकोटा बना हुआ है, | उसी रत्नसे वहाँके वृक्ष, वन, भूमि, पक्षी, मण्डप, मण्डपोंके स्तम्भ, सरोवर और कमल भी निर्मित हैं; वहाँ जल भी उसी रत्नके वर्णका है। उस परकोटेके अन्दर जो-जो वस्तुएँ हैं, वे सब उसी रत्नके समान हैं ।। 73-74 ।।हे प्रभो ! रत्ननिर्मित परकोटोंके विषयमें मैंने आपको यह सम्यक् परिचय दे दिया। हे राजन्! इनमें प्रत्येक अगला प्राकार अपने पहलेवाले प्राकारसे एक लाख गुना अधिक तेजसम्पन्न है ॥ 75
प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले दिक्पाल अपना एक समूह बनाकर हाथोंमें श्रेष्ठ तथा अत्यन्त तेजोमय आयुध धारण किये हुए यहाँ निवास करते हैं ॥ 76 ॥
इस मणिद्वीपकी पूर्वदिशामें ऊँचे शिखरोंसे युक्त अमरावतीपुरी है। अनेकविध उपवनोंसे युक्त उस पुरीमें इन्द्र विराजमान रहते हैं॥ 77॥
स्वर्गलोकमें जितनी शोभा स्वर्गकी है, उससे भी अधिक शोभा इस अमरावतीपुरीकी है। अनेक इन्द्रोंके हजार गुनेसे भी अधिक इसकी शोभा कही गयी है। अपने ऐरावतपर आरूढ होकर हाथमें वज्र धारण किये हुए प्रतापी इन्द्र देवसेनाके साथ यहाँ सुशोभित होते हैं और वहींपर अनेक देवांगनाओंके साथ शची भी विराजमान रहती हैं78-793॥
हे राजन् ! उस मणिद्वीपके अग्निकोणमें अग्निसदृश प्रज्वलित वह्निपुरी है वहाँपर अपने देवगणोंसे घिरे हुए अग्निदेव अपने वाहनों तथा भूषणोंसे सुशोभित होकर 'स्वाहा' और 'स्वधा' – इन दो शक्तियोंके साथ विराजमान रहते हैं ।। 80-81 ॥
मणिद्वीपकी दक्षिणदिशामें यमपुरी है। हे राजन्! सूर्यपुत्र महाभाग श्रेष्ठ यमराज चित्रगुप्त आदि मन्त्रियोंके साथ अपने अनुचरोंसे घिरे रहकर हाथमें दण्ड धारण किये अपनी शक्तिके साथ वहाँ |विराजमान रहते हैं। 823 ॥
इस मणिदीपके नैर्ऋत्यकोणमें राक्षसोंकी पुरी विद्यमान है, जिसमें खड्गधारी निर्ऋति अपनी शक्तिके साथ राक्षसोंसे घिरे हुए विराजमान रहते हैं ॥ 833॥ पश्चिमदिशामें वरुणलोकमें वारुणीपानसे विह्वल, पाश धारण करनेवाले प्रतापवान् वरुणराज विशाल मत्स्यपर सवार होकर वरुणानीमें आसक्त रहते हुए अपनी शक्ति वरुणानी तथा अपने गणोंके साथ विराजमान रहते हैं। ll 84-853 ॥मणिद्वीपके वायव्यकोणमें वायुलोक स्थित है। विशाल नेत्रोंवाले वायुदेव प्राणायाम करनेमें परम सिद्ध योगियोंके समूह तथा मरुद्गणोंसे सदा घिरे रहकर हाथमें ध्वजा धारण करके मृगपर आरूढ होकर अपनी शक्तिके साथ वहाँ निवास करते हैं । 86-873 ॥
हे राजन् ! मणिद्वीपकी उत्तरदिशामें यक्षोंका महान् लोक है। वहाँपर अपनी शक्तिसहित यक्षोंके अधिराज तुन्दिल कुबेर वृद्धि ऋद्धि आदि शक्तियों, नौ निधियों और मणिभद्र, पूर्णभद्र, मणिमान्, मणिकन्धर, मणिभूष, मणिस्रग्वी, मणिकार्मुकधारक आदि यक्षसेनानियोंके साथ अपनी शक्तिसे समन्वित होकर विराजमान रहते हैं ॥ 88 - 903 ॥
मणिद्वीपके ईशानकोणमें बहुमूल्य रत्नोंसे सम्पन्न महान् रुद्रलोक कहा गया है, जहाँ प्रज्वलित नेत्रों तथा कोपयुक्त विग्रहवाले भगवान् रुद्र अपनी पीठपर महान् तरकस बाँधे तथा बायें हाथमें तेजस्वी धनुष लिये हुए अधिदेवताके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। वे भगवान् रुद्र धनुष्कोटिपर प्रत्यंचा चढ़ाये हुए धनुर्धारियों, हाथमें शूल तथा श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले, विकृत मुखवाले, विकराल मुखाकृतिवाले, मुखसे निरन्तर अग्निज्वाला उगलनेवाले, दस भुजाओंवाले, कोई सौ भुजाओंवाले, कितने हजार भुजाओंवाले, दस पैरोंवाले, दस गर्दनवाले, तीन नेत्रोंवाले और अत्यन्त उग्र विग्रहवाले अपने ही सदृश असंख्य रुद्रोंसे सदा घिरे रहते हैं। अन्तरिक्षलोकमें तथा भूलोकमें विचरण करनेवाले जो-जो रुद्र प्रसिद्ध हैं और रुद्राध्यायमें भी जो रुद्र वर्णित हैं; उन सबसे वे भगवान् रुद्र वहाँ आवृत रहते हैं। इसी प्रकार वे करोड़ों रुद्राणियों, भद्रकाली आदि मातृकाओं और विविध शक्तियोंसे युक्त डामरी आदि गणोंसे सदा घिरे रहते हैं । हे राजन् ! गलेमें मुण्डकी माला, हाथमें सर्प-वलय, कन्धेपर सर्पका यज्ञोपवीत, शरीरपर बाघम्बर और उत्तरीयके रूपमें गज-चर्म धारण करनेवाले; शरीरके अंगोंमें सदा चिताकी भस्म लगाये रहनेवाले; अपने डमरूकी तीव्र ध्वनिसे दिशाओंको बधिर बना देनेवाले; अपने अट्टहास और आस्फोट शब्दोंसे गगनमण्डलको भयभीत कर देनेवाले, भूतसमुदायसे युक्त रहनेवाले | तथा समस्त प्राणियोंके आवासस्वरूप भगवान् महेश्वररुद्र वहाँपर वीरभद्र आदि गणोंके साथ सदा विराजमान रहते हैं। ये ईशानदिशाके अधिपति हैं; इसीलिये ये 'ईशान' नामसे विख्यात हैं ॥ 91-100 ॥