श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] इसके बाद अब आप शेष मनुओंकी अद्भुत उत्पत्तिके विषयमें सुनिये, जिसके स्मरणमात्रसे देवीभक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥ 1 ॥वैवस्वत मनुके करूष, पृषध्र, नाभाग, दिष्ट, शर्याति तथा त्रिशंकु नामक उज्ज्वल यशवाले छः पुत्र थे। वे सब महान् पराक्रमी थे ॥ 23 ॥
वे छहों पुत्र यमुनाके पावन तटपर जाकर निराहार रहते हुए अपने श्वासपर नियन्त्रण रखकर वहीं स्थित होकर भगवतीकी उपासना करने लगे। भगवतीकी अलग-अलग पार्थिव मूर्ति बनाकर वे भाँति-भाँतिके उपचारोंसे आदरपूर्वक उनकी पूजा करते थे। इसके बाद उन सभी महाबली तथा महातपस्वी मनुपुत्रोंने क्रमशः सूखे पत्तों, वायु, जल, धूम्र तथा सूर्यकी किरणोंके आहारपर जीवन धारण करते हुए घोर तपस्या की ॥ 3-6 ॥
तत्पश्चात् आदरपूर्वक देवीकी अनवरत आराधना कर रहे उन पुत्रोंके मनमें समस्त मोहोंको नष्ट कर देनेवाली निर्मल बुद्धि जाग्रत् हुई ॥ 7 ॥
वे मनुपुत्र एकमात्र भगवतीके चरणोंमें ही मन लगाये हुए थे। विशुद्ध बुद्धिके प्रभावसे उन्हें शीघ्र अपने ही भीतर सम्पूर्ण जगत् दिखायी पड़ने लगा। वह अद्भुत स्थिति थी। इस प्रकार बारह वर्षोंके पश्चात् उनके तपसे हजारों सूर्योंके समान कान्तिवाली जगत्की स्वामिनी देवेश्वरी प्रकट हुई ॥ 8- 93 ॥
तब विमल आत्मावाले वे छहों राजकुमार देवीको देखते ही विनम्र तथा भाव-विह्वल होकर भक्तिपूर्ण अन्तःकरणसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ 103 ॥
राजकुमार बोले- हे महेश्वरि ! हे ईशानि! हे परमे! हे करुणालये! हे वाग्भव बीजमन्त्रकी आराधनासे प्रसन्न होनेवाली! हे वाग्भव मन्त्रसे प्रतिपादित होनेवाली! हे क्लींकाररूपी विग्रहवाली! हे 'क्लीं' बीजमन्त्रसे उपासित होनेपर प्रीति प्रदान करनेवाली हे कामेश्वरके मनको प्रसन्नता प्रदान करनेवाली। हे परमेश्वरको सन्तुष्ट करने वाली! हे महामाये! हे मोदपरे! हे महान् साम्राज्य देनेवाली! हे विष्णु, सूर्य, महेश, इन्द्र आदिके स्वरूपवाली। हे भोगकी वृद्धि करनेवाली! आपकी जय हो ॥ 11-133 ॥इस प्रकार उन महात्मा राजपुत्रोंके स्तुति करनेपर प्रसन्नतासे सुन्दर मुखवाली भगवती उनसे कल्याणमय वचन कहने लगीं ॥ 143 ॥
देवी बोलीं- हे महात्मा राजपुत्रो! तपस्यासे युक्त आपलोग मेरी उपासनासे निष्कल्मष तथा विमल बुद्धिवाले हो गये हैं। अब आपलोग अपना मनोवांछित वर शीघ्र ही माँग लीजिये। मैं अतीव प्रसन्न हूँ, इस समय आपलोगोंके मनमें जो भी होगा, वह सब मैं अवश्य दूँगी ।। 15-163 ॥
राजपुत्र बोले- हे भगवति ! निष्कंटक राज्य, दीर्घजीवी सन्तान, अखण्डित भोग, यथेच्छ यश, तेज, बुद्धि तथा सभीसे अपराजेयता हमें प्राप्त हो जाय, यही हमारे लिये हितकर वर है ।। 17-18 ॥
देवी बोलीं- ऐसा ही हो, आप सभीकी जो मनोगत कामनाएँ हैं, वे पूर्ण होंगी। अब आपलोग मेरी एक और बात सावधान होकर सुन लीजिये ॥ 19 ॥
हे राजपुत्रो ! मेरी कृपासे आप सभी लोग क्रमसे मन्वन्तराधिपति बनेंगे, दीर्घजीवी सन्तानें तथा अनेक प्रकारके भोग आपको प्राप्त होंगे। अखण्डित बल, ऐश्वर्य, यश, तेज तथा विभूतियाँ- ये सब आपको प्राप्त होंगे ॥ 20-21 ॥
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] इस प्रकार उन राजकुमारोंके भक्तिपूर्वक स्तुति करनेपर साध्वी भ्रामरी जगदम्बिका उन्हें वर प्रदानकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं ॥ 22 ॥
उन महान् तेजस्वी सभी राजपुत्रोंने उस जन्ममें महान् राज्य तथा समस्त सांसारिक सुखोंका भोग किया ॥ 23 ॥
सावर्णि पद नामवाले वे सभी राजपुत्र अखण्डित सन्तानें उत्पन्न करके भूलोकमें अपनी-अपनी वंश परम्परा स्थापितकर दूसरे जन्ममें क्रमसे मन्वन्तरोंके अधिपति हुए ॥ 243 ॥
दक्षसावर्णि नामक पहले राजपुत्र नौवें मनु कहलाये। भगवतीकी कृपासे वे अव्याहत बलवाले तथा परम ऐश्वर्यशाली हुए ॥ 253 ॥मेरुसावर्णि नामक दूसरे राजपुत्र दसवें मनु हुए। महादेवीकी कृपासे वे मन्वन्तरपति के रूपमें प्रतिष्ठित हुए ॥ 263 ॥
सूर्यसावर्णि नामक तीसरे राजपुत्र ग्यारहवें मनुके रूपमें प्रसिद्ध हुए अपनी तपस्यासे भावित ये मनु परम उत्साहसे सम्पन्न थे ॥ 273 ॥
चन्द्रसावर्णि नामक चौथे राजपुत्र परम ऐश्वर्यशाली बारहवें मनुके रूपमें अधिष्ठित हुए, जो देवीकी उपासनाके प्रभावसे मन्वन्तरके अधिपति हो गये ॥ 283 ॥
- नारदजी बोले ये भ्रामरी देवी कौन हैं, वे कैसे प्रकट हुई तथा किस स्वरूपवाली हैं? हे प्राज्ञ ! आप शोकका नाश करनेवाले उस अद्भुत आख्यानका वर्णन कीजिये ॥ 33 ॥
रुद्रसावर्णि नामवाले पाँचवें राजपुत्र तेरहवें मनु कहे गये हैं। महान् बल तथा महान् पराक्रमसे सम्पन्न वे मनु पृथ्वीके स्वामी हुए ॥ 293 ॥
विष्णुसावर्णि नामक छठे राजपुत्र चौदहवें मनु कहे गये हैं। भगवतीके वरदानसे वे लोकोंमें विख्यात राजाके रूपमें प्रतिष्ठित हुए ॥ 303 ॥
ये सभी चौदहों मनु भगवती भ्रामरीकी आराधना तथा उनके प्रसादसे महान् तेज तथा बलसे सम्पन्न, लोकोंमें नित्य पूजनीय, वन्दनीय और महाप्रतापी हो गये थे ॥ 31-32 ॥
मैं भगवतीके कथारूपी अमृतका पान करके भी तृप्त नहीं हो रहा हूँ । अमृत पीनेवालेकी मृत्यु तो सम्भव है, किंतु इस कथाका श्रवण करनेवालेकी मृत्यु सम्भव नहीं है 34 ॥
श्रीनारायण बोले- हे नारद! अब मैं अचिन्त्य तथा अव्यक्तस्वरूपिणी जगज्जननीकी मोक्षदायिनी अद्भुत लीलाका वर्णन करूँगा; आप सुनिये ॥ 35 ॥
भगवती श्रीदेवीके जो-जो चरित्र हैं, वे सब अहैतुकी दयासे लोकहितमें उसी प्रकार सम्पादित किये जाते हैं; जैसे माता के कार्य पुत्रके हितार्थ हुआ | करते हैं ।। 36 ।।पूर्वकालमें अरुण नामक एक महान् बलशाली दैत्य था। देवताओंसे द्वेष रखनेवाला वह घोर नीच दानव दैत्योंके निवासस्थान पातालमें रहता था ॥ 37 ॥ देवताओंको जीतनेकी इच्छावाला वह दैत्य हिमालयपर पहुँचकर उसके समीप अत्यन्त शीतल गंगाजल में पद्मयोनि ब्रह्माको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे यह सोचकर कठोर तप करने लगा कि एकमात्र वे ही हमारे रक्षक हो सकते हैं। सूखे पत्तोंके आहारपर रहते हुए वह अपना श्वास रोककर तमोगुणसे युक्त | हो सकामभावसे योगपरायण होते हुए गायत्रीमन्त्रके जपमें लीन हो गया। इसके बाद दस हजार वर्षोंतक जलकण पीकर, पुनः दस हजार वर्षोंतक वायुके आहारपर और पुनः दस हजार वर्षोंतक वह पूर्णरूपसे निराहार रहा ।। 38-41 ॥
इस प्रकार तप करते हुए उस दैत्यके शरीरस अग्नि उठी, जो सम्पूर्ण जगत्को जलाने लगी; वह एक अद्भुत घटना थी ॥ 42 ॥
यह क्या, यह क्या? ऐसा कहते हुए सभी देवता काँपने लगे तथा सभी प्राणी भयभीत हो गये। वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये। वहाँ सभी श्रेष्ठ देवताओंने वह बात बतायी। उसे सुनकर चतुर्मुख ब्रह्माजी गायत्रीसहित हंसपर सवार होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँ गये ॥ 43-44 ॥
उस समय उस दैत्यके सैकड़ों नाड़ियोंसे युक्त शरीरमें प्राणमात्र अवशिष्ट था, उसका उदर सूख गया था, शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था, आँखें मूँदकर वह ध्यानमें अवस्थित था तथा अपने तेजसे दूसरे अग्निकी भाँति प्रतीत हो रहा था - ऐसे उस दैत्यको ब्रह्माजीने देखा और तब श्रवणमात्रसे ही सन्तुष्टि प्रदान करनेवाला यह वाक्य उससे कहा हे वत्स! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे मनमें जो भी हो, वह माँग लो ll 45-463 ll
ब्रह्माजीके मुखसे अमृतकी धाराके सदृश वाणी सुनकर अरुणने जब आँखें खोलीं, तब उसने गायत्रीको साथ लिये हुए, चारों वेदोंको धारण किये हुए, हाथोंमें अक्षमाला तथा कुण्डिका ग्रहण किये हुए तथा शाश्वत ब्रह्मका जप करते हुए पद्मयोनि ब्रह्माजीको सामने देखा ।। 47-486 ।।उसने ब्रह्माजीको देखते ही उठकर प्रणाम किया तथा अनेकविध स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करके अपनी बुद्धिने स्थित वरको याचना की कि मेरी मृत्यु कभी न हो ॥ 493 ॥
अरुणका यह वचन सुनकर ब्रह्माजीने उसे आदरपूर्वक समझाया- हे दानवश्रेष्ठ ! जब बहा विष्णु महेश आदि भी मृत्युके ग्रास बन जाते हैं लो फिर मृत्युके सम्बन्धमें अन्य लोगोंकी बात ही क्या ? अतएव तुम दूसरा उचित वर मांगो, जिसे मैं तुम्हें दे सकूँ, बुद्धिमान् लोग इस विषयमें कभी भी आ नहीं करते ।। 50-52॥
ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर उसने पुनः आदरपूर्वक कहा- हे प्रभो! हे देव! तो फिर मुझे यह वर दीजिये कि मेरी मृत्यु न युद्धमें हो, न अस्त्र शस्त्रसे हो, न पुरुषसे हो, न स्त्रीसे हो, न दो पैरवाले न चार पैरोंवाले प्राणियोंसे और न तो उभय आकारवाले प्राणीसे ही हो, इसके साथ-साथ मुझे अत्यधिक बल भी दीजिये, जिससे देवताओंपर मेरी विजय स्थापित हो जाय ।। 53-543
अरुणकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने तथास्तु ऐसा वचन कह दिया और इस प्रकार उसे वर प्रदान करके वे तत्काल अपने लोक चले गये॥ 553 ॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजीसे वरदान पाकर अभिमानमें चूर उस अरुण नामक दैत्यने अपने आश्रित रहनेवाले पातालवासी दैत्योंको बुला लिया ॥ 563 ॥
पातालसे आकर उन सभी दैत्योंने उसे दैत्योंका राजा बना दिया और देवताओंसे युद्ध करनेके अभिप्रायसे देवपुरीके लिये एक दूत भेजा ॥ 573 ॥
दूतकी बात सुनकर देवराज इन्द्र भयसे काँपने लगे और शीघ्र ही देवताओंके साथ ब्रह्मलोक के लिये चल पड़े ॥ 583 ॥
वहाँसे पुनः ब्रह्मा तथा विष्णुको आगे करके वे | देवता शिवलोक पहुँचे और वहाँ देवशत्रु राक्षसों के वधके लिये विचार-विमर्श करने लगे ॥ 593 ॥
उसी समय वह अरुण नामक दैत्यराज दैत्यसेनाको साथमें लेकर स्वर्ग पहुँच गया। हे मुने! अपनी तपस्यासे अनेक रूप धारण करनेवाले उस दैत्यने सूर्य चन्द्रमा, यम तथा अग्निके समस्त अधिकारोको | पृथक्-पृथक् अपने अधीन कर लिया ।। 60-613 ॥तदनन्तर अपने-अपने स्थानसे च्युत हुए सभी देवता कैलासपर्वतपर गये और एक-एक करके शंकरजीको अपनी दुःखगाथा सुनाने लगे ॥ 623 ll
उस समय शंकरजी भी महान् सोचमें पड़ गये कि अब ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिये ? क्योंकि ब्रह्माजी इसे वरदान दे चुके हैं, अतः इसकी मृत्यु न युद्धमें, न शस्त्रास्त्रोंसे, न पुरुषसे, न स्त्रीसे, न दो पैरवाले प्राणियोंसे, न चार पैरवाले प्राणियोंसे और न तो उभय आकारवालोंसे ही सम्भव है। वे सभी इसी चिन्तामें व्याकुल थे; किंतु कुछ भी कर पाने में समर्थ नहीं हुए ॥ 63-65 ॥
इसी बीच वहाँ उच्च स्वरमें सन्तोषदायिनी आकाशवाणी हुई- [हे देवताओ!] तुमलोग भगवती भुवनेश्वरीकी आराधना करो। वे ही तुमलोगोंका कार्य सिद्ध करेंगी। गायत्रीजपमें संलग्न दैत्यराज अरुण यदि गायत्री उपासनाका त्याग कर दे तो उसकी मृत्यु हो सकती है ॥ 66-67 ॥
इस दिव्य वाणीको सुनकर आदरणीय देवताओंने परस्पर मन्त्रणा की। तदुपरान्त देवराज इन्द्रने बृहस्पतिको बुलाकर उनसे यह वचन कहा- हे गुरो! आप | देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये दैत्य अरुणके पास जाइये और जिस किसी भी तरहसे उसके द्वारा गायत्री जपका त्याग हो सके, वैसा प्रयत्न कीजिये। इधर, हमलोग भी ध्यानयोगमें अवस्थित होकर परमेश्वरीकी उपासना कर रहे हैं। वे प्रसन्न होकर आपकी सहायता अवश्य करेंगी ।। 68-70 ॥
गुरु बृहस्पतिसे इस प्रकार कहकर वे सभी देवता भगवती जम्बूनदेश्वरीके पास गये कि वे कल्याणी उस दैत्यके भयसे त्रस्त हम देवताओंकी रक्षा अवश्य करेंगी ॥ 71 ॥
वहाँ पहुँचकर देवीयज्ञपरायण वे सभी देवता अत्यन्त निष्ठापूर्वक मायाबीजके जपमें लीन होकर घोर तपश्चर्या करने लगे ॥ 72 ॥
इधर, बृहस्पति शीघ्र ही दानव अरुणके पास पहुँच गये। तब आये हुए उन मुनिवर बृहस्पतिसे उस दैत्यराजने पूछा- हे मुने! आप यहाँ कहाँ आ गये ? इस समय कहाँसे तथा किस उद्देश्यसे यहाँआपका आगमन हुआ है ? यह मुझे बताइये। मैं आपका पक्षधर तो हूँ नहीं, अपितु सदासे शत्रु ही हूँ ।। 73-74 ॥
उसकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ बृहस्पतिने कहा- जो देवी हम लोगोंकी आराध्या हैं, उन्हींकी उपासना तुम भी अनवरत कर रहे हो, तो फिर यह बताओ कि क्या तुम हमारे पक्षधर नहीं हुए ? ॥ 753॥
हे सतम (नारद) उन बृहस्पतिकी यह बात सुनकर देवमायासे मोहित हुए उस दैत्यने अभिमानपूर्वक परम गायत्री मन्त्रके जपका त्याग कर दिया। तब गायत्री जपसे विरत होते ही वह तेजशून्य हो गया । 76-77 ।।
इसके बाद गुरु बृहस्पति अपना कार्य सिद्ध करके उस स्थानसे चल दिये और वापस आकर उन्होंने इन्द्रसे सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया। इससे सभी देवता सन्तुष्ट हो गये और वे देवी परमेश्वरीकी आराधना करने लगे ॥ 783 ।।
हे मुने! इस प्रकार बहुत समय बीत जानेके बाद | किसी समय जगत्का कल्याण करनेवाली जगजननी प्रकट हुईं। वे देवी करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावाली थीं, करोड़ों कामदेवके सदृश सुन्दर, अंगोंमें अद्भुत अनुलेपनसे युक्त, दो सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित तथा विचित्र माला तथा आभूषणोंसे मण्डित थीं। वे अपनी मुट्ठीमें अद्भुत प्रकारके भ्रमर लिये हुए थीं, वे भगवती अपने हाथोंमें वर तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थीं, शान्त तथा करुणामृतके सागरके सदृश अनेकविध भ्रमरोंसे युक्त पुष्पोंकी मालासे वे शोभायमान थीं, वे अद्भुत प्रकारको असंख्य भ्रामरियोंसे घिरी हुई थीं और वे अम्बिका 'ह्रींकार' मन्त्रका गान कर रहे करोड़ों करोड़ों भ्रमरोंसे सभी ओरसे परिवृत थीं। वे सभी प्रकारके शृंगारों तथा वेषोंसे अलंकृत थीं तथा सभी वेदोंद्वारा स्तुत हो रही थीं। वे सबकी आत्मारूपा, सर्वमयी, सर्वमंगलरूपिणी, सर्वज्ञ, सर्वजननी, सर्वरूपिणी, सर्वेश्वरी तथा कल्याणमयी हैं ।। 79-85 ॥ उन्हें देखकर ब्रह्माजीको आगे करके दीन देवगण प्रसन्नचित्त होकर वेदोंगे प्रतिपादित देवोकी | स्तुति करने लगे ॥ 86 ॥देवता बोले-सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाली हे देवि ! हे महाविद्ये! आपको नमस्कार है। हे कमल-पत्रके समान नेत्रोंवाली आपको नमस्कार है। हे समस्त जगत्को धारण करनेवाली। आपको नमस्कार है ॥ 87 ॥
हे विश्व, तैजस, प्राज्ञ तथा विराट्रूपके साथ सूक्ष्मरूप धारण करनेवाली! आपको नमस्कार है। व्याकृत तथा कूटस्थरूपवाली आप भगवतीको बार बार नमस्कार है ।। 88 ।।
हे दुर्गे! हे उत्पत्ति आदिसे रहित देवि हे दुष्टोंके अवरोधार्थ अर्गलास्वरूपिणि! हे अटूट प्रेमसे प्राप्त की जानेवाली हे तेजोमयी देवि! आपको नमस्कार है ॥ 89 ॥
हे श्रीकालिके आपको नमस्कार है। हे मातः । आपको नमस्कार है। हे नीलसरस्वति हे उग्रतारे हे महोग्रे! आपको नित्य बार-बार नमस्कार है ॥ 90 ॥
हे पीताम्बरे। आपको नमस्कार है। हे देवि! हे त्रिपुरसुन्दरि ! आपको नमस्कार है। हे भैरवि आपको नमस्कार है। हे मातंगि! हे धूमावति! आपको बार बार नमस्कार है ॥ 91 ॥
हे छिन्नमस्ते! आपको नमस्कार है है क्षीरसागरकन्यके! आपको नमस्कार है है शाकम्भरि ! हे शिवे हे रक्तदन्तिके। आपको नमस्कार है॥ 92 ॥
हे शुम्भ तथा निशुम्भका संहार करनेवाली! हे रक्तबीजका विनाश करनेवाली! हे धूम्रलोचनका वध करनेवाली हे वृत्रासुरका ध्वंस करनेवाली ! हे चण्ड तथा मुण्डका दलन करनेवाली! हे दानवोंका अन्त करनेवाली हे शिवे हे विजये! हे गंगे! हे शारदे! हे प्रसन्नमुखि ! आपको नमस्कार है । 93-94 ॥
हे पृथ्वीरूपे! हे दयारूपे ! हे तेजोरूपे ! आपको बार-बार नमस्कार है। हे प्राणरूपे हे महारूपे ! हे भूतरूपे आपको नमस्कार है ।। 95 ।।
हे विश्वमूर्ते हे दयामूर्ते हे धर्ममूर्ते आपको बार-बार नमस्कार है। हे देवमूर्ते हे ज्योतिमूर्ते! हे ज्ञानमूर्ते आपको नमस्कार है ।। 96 ॥हे गायत्रि ! हे वरदे! हे देवि ! हे सावित्रि! हे सरस्वति! आपको नमस्कार है। हे स्वाहे ! हे स्वधे ! हे मातः! हे दक्षिणे! आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 97 ॥ समस्त शास्त्र 'नेति नेति' वचनोंसे जिनका
बोध करते हैं, उन प्रत्यक्स्वरूपा परादेवता भगवतीकी हम सभी देवगण उपासना करते हैं ॥ 98 ॥
सदा भ्रमरोंसे घिरी रहनेके कारण जो 'भ्रामरी' कही जाती हैं, उन भगवतीको नित्य-नित्य अनेकशः प्रणाम है ॥ 99 ॥
हे अम्बिके! आपके पार्श्व तथा पृष्ठ भागमें हमारा नमस्कार है। आपके आगे नमस्कार है, ऊपर नमस्कार है, नीचे नमस्कार है तथा सभी ओर नमस्कार है ॥ 100 ॥
हे मणिद्वीपमें निवास करनेवाली! हे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंकी अधीश्वरि! हे महादेवि ! हे जगदम्बिके! हम सबपर कृपा कीजिये ॥ 101 ॥
हे जगज्जननि ! हे देवि ! आपकी जय हो! हे देवि ! हे परात्परे ! आपकी जय हो ! हे श्रीभुवनेश्वरि ! आपकी जय हो! हे सर्वोत्तमोत्तमे ! आपकी जय हो ॥ 102 ॥
हे कल्याण तथा गुणरत्नोंकी निधिस्वरूपे ! हे भुवनेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये। हे परमेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये। हे संसारकी तोरणस्वरूपे ! प्रसन्न हो जाइये ॥ 103 ॥
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] देवताओंकी यह प्रगल्भ तथा मधुर वाणी सुनकर मत्त कोयलके समान बोलनेवाली वे जगदम्बा कहने लगीं ॥ 104 ॥
देवी बोलीं- हे देवताओ! वर प्रदान करनेवालोंमें श्रेष्ठ मैं (आपसे) सदा प्रसन्न हूँ। आपलोगोंके मनमें जो अभिलाषा हो, उसे बतायें ॥ 105 ॥
देवीका यह वचन सुनकर देवताओंने अपने दुःखका कारण बतलाया। उन्होंने दुष्ट दैत्यके द्वारा जगत्में किये जानेवाले महान् पीडाकारक कृत्यों; सर्वत्र देवताओं, ब्राह्मणों और वेदोंकी अवहेलना तथा विनाश और अपने | अपने स्थानसे देवताओंके च्युत कर दिये जानेका वर्णन बड़े विनयपूर्वक कर दिया। साथ ही ब्रह्माजीद्वारा उस दैत्यको दिये गये वरदानके विषयमें भी देवताओंने | देवीसे यथावत् कह दिया ।। 106-107 ॥तब देवताओंके मुखसे यह वाणी सुनकर महाभगवती भ्रामरीने अपने हस्तस्थित, पार्श्व प्रान्तस्थित तथा अग्रभागस्थित अनेकरूपधारी भ्रमरोंको प्रेरित किया; इसके साथ ही बहुत - से भ्रमरोंको उत्पन्न भी किया, जिनसे तीनों भुवन व्याप्त हो गये ।। 108-1093 ॥
उस समय उन भ्रमरोंके झुण्ड टिड्डियोंके दलके समान निकलने लगे। उन भ्रमरोंसे सम्पूर्ण अन्तरिक्ष आच्छादित हो गया और पृथ्वीपर अन्धकार छा गया। आकाशमें, पर्वतोंके शिखरोंपर, वृक्षोंपर तथा वनोंमें सर्वत्र भ्रमर-ही-भ्रमर हो गये। वह दृश्य अत्यन्त आश्चर्यजनक था ॥ 110-1113 ॥
वे सभी भ्रमर निकल-निकलकर दैत्योंके वक्षःस्थलको उसी प्रकार छेदने लगे, जैसे क्रोधमें भरी मधुमक्खियाँ मधुका दोहन करनेवाले व्यक्तिको काटती | हैं ॥ 1123 ॥
उस समय अस्त्रों तथा शस्त्रोंसे किसी प्रकार भी सुरक्षाका उपाय सम्भव नहीं हो सका। दैत्य न युद्ध कर सके और न कोई सम्भाषण ही। उन्हें केवल अपनी मृत्यु दिखायी दे रही थी ॥ 1133 ॥
जिस-जिस स्थानपर जो-जो दैत्य जिस जिस स्थितिमें विद्यमान थे, वे सब उसी रूपमें उसी स्थानपर अट्टहास करते हुए मृत्युको प्राप्त हुए ॥। 1143 ॥
उन दैत्योंमेंसे किसीकी भी एक-दूसरेसे कोई बातचीत भी नहीं हो सकी और वे सभी दैत्यश्रेष्ठ क्षणभरमें विनष्ट हो गये । ll 1153 ॥
इस प्रकार यह कार्य करके वे भ्रमर पुनः देवीके पास आ गये। यह तो आश्चर्य हो गया—ऐसा सभी लोग कहने लगे। जिन जगदम्बाकी इस प्रकारकी यह माया है, उनके लिये कौन-सा कार्य आश्चर्यजनक है ।। 116-117 ।।
तदनन्तर हर्षरूपी समुद्रमें डूबे हुए सभी देवगणोंने ब्रह्मा, विष्णु आदिको अग्रसर करके अनेक प्रकारके उपचारोंसे देवीकी पूजा की, अपने हाथोंसे उन्हें नानाविध उपहार किये और जय-जयकार करते हुए उनपर पुष्पोंकी वर्षा की ।। 118-119 ॥आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठीं, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं, गन्धर्व आदि गाने लगे तथा श्रेष्ठ मुनिगण वेदपाठ करने लगे। मृदंग, ढोल, वीणा, ढाक, डमरू, घण्टा और शंख आदिकी ध्वनियोंसे तीनों लोक व्याप्त हो गये । ll 120-121 ॥
उस समय अनेकविध स्तोत्रोंसे देवीका स्तवन | करके अपनी अंजलियाँ मस्तकपर रखकर सभी देवता कहने लगे-हे मातः ! आपकी जय हो। हे ईशानि! आपकी जय हो ॥ 122 ॥
उनके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करनेपर उनपर परम प्रसन्न भगवती महादेवीने उन देवताओंको पृथक्-पृथक् वर प्रदान करके उन्हें अपनी विपुल भक्ति प्रदान की। इसके बाद देवताओंके देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गयीं ॥ 1231/2 ॥
[हे नारद!] इस प्रकार मैंने आपसे भगवती भ्रामरीके सम्पूर्ण महिमाशाली चरित्रका वर्णन कर दिया, जिसके पढ़ने तथा सुननेवालोंके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सुननेमें आश्चर्यजनक यह [देवीचरित्र ] संसाररूपी सागरसे पार कर देनेवाला है ।। 124-125 ।।
इसी प्रकार अन्य सभी मनुओंका चरित्र भी पापको नष्ट करनेवाला, देवीके माहात्म्यसे परिपूर्ण तथा पढ़ने-सुननेवालेके लिये कल्याणप्रद है ॥ 126 ॥
जो मनुष्य इस चरित्रको नित्य पढ़ता है तथा | निरन्तर सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर देवी सायुज्य प्राप्त कर लेता है ॥ 127 ॥